विजय कुमार,
कल शर्मा जी के घर गया, तो वे ‘इच्छा मृत्यु’ के बारे में एक लेख पढ़ रहे थे। पढ़ने के बाद उन्होंने वह अखबार मुझे पकड़ा दिया। उस लेख का सार इस प्रकार है।जीवन और मृत्यु के बारे में संतों, मनीषियों और विद्वानों ने बहुत कुछ कहा है। जीवन की तरह मृत्यु भी अटल है। इस पर युद्धिष्ठिर और यक्ष में संवाद भी हुआ था। जन्म के साथ ही मृत्यु की तारीख, समय, स्थान और कारण भी तय हो जाता है। यद्यपि इसका पता न होने से ही सब सुखी रहते हैं।मृत्यु कैसे और कहां हो, यह व्यक्ति के हाथ में नहीं है। यद्यपि बहुत से लोग काशी, हरिद्वार या अन्य किसी तीर्थ में मरना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इससे अगला जन्म फिर से मानव योनि में ही होगा। कबीरदास जी इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए मृत्यु से कुछ समय पूर्व काशी से बाहर चले गये थे; पर जो लोग पुनर्जन्म नहीं मानते, वे भी मरने या दफन होने के लिए अपने मजहबी स्थानों को चुनना पसंद करते हैं। यद्यपि इसके लिए उन्हें भी लाखों रु. अग्रिम देने पड़ते हैं। जहां तक इच्छा मृत्यु की बात है, तो कुछ लोग कहते हैं कि जब जन्म ईश्वर के हाथ में है, तो मृत्यु भी वही देगा; पर कुछ लोग अपने हिसाब से जीना और मरना चाहते हैं। उनका मत है कि जब उनकी सब इच्छाएं पूरी हो जाएं, या वे पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हो जाएं, तो परिवार पर बोझ बनने से अच्छा खुशी-खुशी चले जाना ही है। दुनिया भर में इस बारे में अलग-अलग कानून हैं।भारत में भी न्यायालय इस पर सोच रहा है। यदि डॉक्टर एकमत हों कि मरीज के ठीक होने की कोई संभावना नहीं है, और घर वाले भी सहमत हों, तो इच्छा मृत्यु के विकल्प पर विचार किया जाना चाहिए। इस बारे में स्विटजरलैंड के कानून बड़े स्पष्ट हैं। इसलिए दुनिया भर से लोग वहां मरने जाते हैं। पिछली 10 मई को ऑस्ट्रेलिया के 104 वर्षीय वैज्ञानिक डेविड गुडआल ने भी यही किया। वहां इसके लिए कई एजेंसियां हैं। मारने के बाद वे दफनाते भी हैं। इसके लिए सामान्य, वी.आई.पी. और वी.वी.आई.पी. पैकेज हैं। जेब जितनी भारी होगी, वैसा शानदार काम हो जाएगा। ।
लेख काफी लम्बा था; पर इतना पढ़ते तक ही मेरा सिर दर्द होने लगा। मैंने अखबार मेज पर पटक दिया।
– शर्मा जी, मेरा फिलहाल मरने का कोई इरादा नहीं है; और आपका भी हो, तो टाल दें। यह काम भगवान पर ही छोड़ दें।
– वर्मा जी, मैं अपने या आपके मरने की बात नहीं कह रहा हूं; पर मुझे लग रहा है कि हमारी पार्टी इच्छा मृत्यु की ओर बढ़ रही है।
– मैं समझा नहीं।
– समझने जैसी बात ही कहां है ? कर्नाटक में दोगुनी सीट होते हुए भी हम दब गये। बिहार में हम लोकसभा की आठ-दस सीटों पर ही समझौते को राजी हैं। उ.प्र. में अखिलेश बाबू हमें वही दो सीट देना चाहते हैं, जो हमने पिछली बार जीती थीं। दिल्ली में केजरीवाल हमें एक सीट का झुनझुना थमा रहे हैं। म.प्र. में मायावती अलग ताल ठोक रही हैं। नवीन पटनायक और ममता हमें घास डालने को तैयार नहीं हैं। उधर राहुल जी हैं कि हर जगह झुककर समझौते कर रहे हैं। ये इच्छा मृत्यु नहीं तो और क्या है ? यदि हमें पूरे देश में 200 सीट भी लड़ने को नहीं मिली, तो वे प्रधानमंत्री कैसे बनेंगे ?
– शर्मा जी, आपको ये गलतफहमी कैसे हो गयी कि राहुल बाबा प्रधानमंत्री बनने वाले हैं ?
– क्यों, मोदी के विरुद्ध बने गठबंधन के जीतने पर वे ही तो नेता बनेंगे।
– शर्मा जी, सपने देखने में कुछ खर्च नहीं होता। जहां हर कोई खुद को तीसमार खां समझता हो; जहां सबके मुंह में राम और बगल में छुरी हो; जहां सबके सामने देश की बजाय अपनी पार्टी और परिवार का हित महत्वपूर्ण हो; जहां कुर्सी ही एकमात्र लक्ष्य हो; वहां गठबंधन नहीं हठबंधन होता है; और ऐसे हठबंधन की नियति केवल और केवल पराजय ही है।
शर्मा जी के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। वे अखबार उठाकर फिर से इच्छा मृत्यु वाला लेख पढ़ने लगे।