उत्तरप्रदेश की जनता का अपमान राष्ट्रपति शासन की धमकी
लोकेन्द्र सिंह राजपूत
उत्तरप्रदेश में पांच चरणों के मतदान के बाद आ रहे रुझान देखकर कांग्रेस की सिट्टी-पिट्टी गुम है। कांग्रेस की यथा स्थिति यानी चौथे पायदान पर बने रहने की प्रबल संभावनाएं जताई जाने लगी हैं। इससे कांग्रेस के तमाम नेतागण या तो बौखला गए हैं या फिर उनके बयानों में दंभ झलक रहा है। सबसे पहले कांग्रेस के विवादास्पद नेता दिग्विजय सिंह ने उत्तरप्रदेश में सत्ता में न आने पर राष्ट्रपति शासन की बात कही। बात क्या कही जनता को राष्ट्रपति शासन का डर दिखाया। दिग्विजय की बात का कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर से विरोध नहीं जताया गया। अर्थात् ऐसी कांग्रेस पार्टी और आलाकमान सोनिया गांधी की मंशा है यह समझा जाना चाहिए। इसे और अधिक पुष्ट किया कांग्रेस सांसद और केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जायसवाल ने। बुंदेलखंड में मट्टी पलीद होते देख कांग्रेस की बौखलाहट या दंभ सामने आ गया। केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जायसवाल ने कहा था कि यदि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं बनी तो किसी और की सरकार नहीं बनेगी। ऐसे में राष्ट्रपति शासन के अलावा कोई विकल्प नहीं। इस पर तमाम विपक्षी पार्टियों ने इसे लोकतंत्र का उपहास, कांग्रेस का दिवालियापन, पागलपन, तानाशाही और हताशा की स्थिति में पहुंचना बताया।
सबका अपना-अपना नजरिया है। लेकिन, मैं इसे सीधे तौर पर उत्तरप्रदेश की जनता का अपमान समझता हूं। यह साफ तौर पर वहां की जनता को धमकाने का मामला है। भला यह क्या बात हुई, हमको जिताओ वरना राष्ट्रपति शासन झेलना। लोकतंत्र में जनता को अपने मन के प्रतिनिधि चुनने का हक है। उन पर किसी तरह का मानसिक दबाव बनाना गलत है। हालांकि वोट पाने का कांग्रेस का यह तरीका (धमकी) भी कारगर नहीं होगा। दंभ किसी का भी हो भारत की जनता झेलती नहीं है। यह इतिहास हमें बताता है। कांग्रेस खुद का ही इतिहास पढ़ लेती तो राष्ट्रपति शासन लागू करने की मंशा ही नहीं बनाती। सोनिया गांधी की सास और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी वर्ष 1975 में इसी दंभ का शिकार हो गई थीं। उन्होंने अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए 1975 देश पर 21 महीने का आपातकाल थोप दिया। इस दौरान पुलिस की मदद से इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों को प्रताडि़त किया। इन 21 महीनों को भारतीय राजनीति का काला इतिहास माना जाता है। दरअसल, इंदिरा गांधी के चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण की याचिका पर इलाहबाद हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार में लिप्त होने पर इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था। ऐसे में उनके प्रधानमंत्री बने रहने पर संकट आ गया था। विपक्षी पार्टियां उनसे इस्तीफे की मांग जोर-शोर से करने लगी थीं। सत्ता से चिपके रहने का नशा और अंहकार ने इंदिरा को 1975 में आपातकाल का फैसला लेने पर मजबूर कर दिया था। आपातकाल के दौरान आमजन के पीड़ा-वेदना से भरे अनुभव इतिहास के पन्नों पर दर्ज किए गए हैं। दो साल बाद आम चुनाव में जनता ने दंभ को धूल चटा दी। 1977 में कांग्रेस का सूपड़ा-साफ हो गया। पहली बार देश में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। आज तक इंदिरा गांधी को उस दंभी निर्णय के लिए निंदित किया जाता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत विधानसभा में यदि कोई दल स्पष्ट बहुमत में नहीं होता अर्थात् यदि कोई दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होता तो ऐसी स्थिति में केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर देता है। छह माह में भी यदि कोई दल सरकार बनाने के लिए बहुमत सिद्ध नहीं कर सका तो राज्य में फिर से चुनाव कराए जाते हैं। लेकिन, यह सब बाद की स्थिति है। कांग्रेस के नेता तो अभी से ही राष्ट्रपति शासन की धमकी दे रहे हैं। यह कहां तक वाजिब है। बहरहाल, कांग्रेस ने अपना रवैया न बदला तो जनता उसे उसकी औकात बताने में पांच साल भी नहीं लगाएगी, उसके हाथ वर्तमान में ही मौका है। लोकसभा के आमचुनाव भी अधिक दूर नहीं। वैसे भी यूपीए-2 के कार्यकाल में परत-दर-परत घोटालों के खुलासे से कांग्रेस के बारह बजे हुए हैं।
वास्तव मैं यह बेवजह बयानबाजी है /ताज्जुब यह की ये नेता कितने ऊँचे दर्जे के हैं और ऐसी ब्यान बाजी करतें हैं की नौसीखिया हों.एक भ्ट्पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा की वो गंगा में कूद जायेंगी.