विकासशील देश और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद

 राघवेन्द्र कुमार ‘राघव’

साम्राज्यवाद (Imperialism) वह दृष्टिकोण है जिसके अनुसार कोई महत्त्वाकांक्षी राष्ट्र अपनी शक्ति और गौरव को बढ़ाने के लिए अन्य देशों के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है। यह हस्तक्षेप राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या अन्य किसी भी प्रकार का हो सकता है। इसका सबसे प्रत्यक्ष रूप किसी क्षेत्र को अपने राजनीतिक अधिकार में ले लेना एवं उस क्षेत्र के निवासियों को विविध अधिकारों से वंचित करना है। देश के नियंत्रित क्षेत्रों को साम्राज्य कहा जाता है । साम्राज्यवादी नीति के अन्तर्गत एक जातीयराज्य (Nation State) अपनी सीमाओं के बाहर जाकर दूसरे देशों और राज्यों मे हस्तक्षेप करता है । साम्राज्यवाद का विज्ञानसम्मत सिद्धांत लेनिन ने विकसित किया था । लेनिन के अनुसार साम्राज्यवाद एकाधिकारी पूंजीवाद, पूंजीवाद के विकास की सर्वोच्च और अंतिम अवस्था का संकेतक है । जिन राष्ट्रों में पूंजीवाद का चरमविकास नहीं हुआ वहाँ साम्राज्यवाद को ही लेनिन ने समाजवादी क्रांति की पूर्ववेला माना है ।

 

संस्कृति के लिहाज़ से विकासशील देश सबसे ज्यादा धनी हैं | इन देशों की संस्कृति इनके खान-पान से लेकर इनकी दैनिक दिनचर्या में झलकती है | लेकिन ये देश विकसित और खासकर यूरोपीय देशों की संस्कृति को कॉपी करते हैं | ये अपने पहनावे को कमतर आंकते है और उनके पहनावे को सर्वोपरि आंकते है | खाने – पीने से लेकर नहाने , धोने तक ये हीनभावना के शिकार पश्चिम को ही आदर्श मानते है | भारतीय टीवी कार्यक्रमों ने इस विदेशी अपनाओ क्रांति को और प्रोत्साहन दिया है | अगर कोई विदेशी नायिका अर्धनग्न स्वरुप में अवतरित होती है तो हमारे समाज या विकासशील समुदाय में भी वैसा ही दिखने की होड़ लग जाती है | भाषा पर तो इसका असर साफ तौर पर दिखाई देता है | भारतीय महाद्वीप से लेकर अफ़्रीकी महाद्वीप तक इस महामारी को आसानी से देखा जा सकता है | साबुन से लेकर क्रीम पाउडर तक हम सब कुछ इम्पोर्टेड ही चाहते है ऐसे में अपने को हीन मानने की भावना का भी पता चलता है | संस्कृति को आत्मसात करना अच्छा है | लेकिन कभी – कभी यह मजबूरी में भी करना पड़ता है | विकासशील देश अधिकांशतः आवश्यकताओं के लिए विकसित देशों पर आधारित रहते है | ये विकसित देश अपनी सामर्थ्य के बूते वहां अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं | धीरे-धीरे वहां की संस्कृति को यह प्रभावित करने लगते है और एक दिन यही थोपी गयी संस्कृति उनकी मजबूरी बन जाती है |

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद (Cultural Imperialism) यह वह नीति है जिसमे जानबूझकर किसी संस्कृति में दूसरी संस्कृति को आरोपित किया जाता है , मिश्रित किया जाता है या प्रोत्साहन दिया जाता है । प्राय दूसरी संस्कृति किसी शक्तिशाली सैनिक देश की होती है जबकि जिसमे आरोपण हो रहा हो वह दुर्बल होता है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को हम कई रूपों में रख सकते हैं |

 

१. भाषिक साम्राज्यवाद या भाषाई साम्राज्यवाद (Linguistic imperialism)

उस स्थिति को कहते हैं जिसमें किसी सबल राष्ट्र की भाषा किसी निर्बल राष्ट्र की शिक्षा और शासन आदि विविध क्षेत्रों से देशी भाषाओं का लोप कर देती है । इसके लिये घोषित या अघोषित रूप से एक ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करके जड़ जमाने दी जाती है जिसमें उस विदेशी भाषा को ना बोलने और जानने वाले लोग दूसरे दर्जे के नागरिक के समान होने को विवश हो जाते हैं ।

 

अंग्रेज़ी भाषा का साम्राज्यवाद

फिलिपिंसन ने अंग्रेज़ी भाषा के साम्राज्यवाद की परिभाषा इस प्रकार की है:

 

  • The dominance asserted and maintained by the establishment and continuous reconstitution of structural and cultural inequalities between English and other languages.

 

  • संस्थापना द्वारा प्रभुत्व पर बल देना और बनाए रखना और अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं के मध्य लगातार पुनर्गठन द्वारा संरचनात्मक और सांस्कृतिक असमानता को बनाए रखना।

 

  • फिलिपिंसन का उपरोक्त सिद्धान्त अंग्रेज़ी के अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में ऐतिहासिक प्रसार की सटीक व्याख्या करता है । साथ ही यह इस तथ्य की व्याख्या करता कि क्यों भारत, पाकिस्तान, युगाण्डा, ज़िम्बाब्वे आदि देशों में स्वतन्त्र होने के पश्चात भी अंग्रेज़ी का प्रभुत्व बना हुआ है ?

 

भाषाई साम्राज्यवाद के शस्त्र एवँ उपकरण

भाषाई – साम्राज्यवाद फैलाने का सबसे सशक्त और ऐतिहासिक उपकरण राजनैतिक साम्राज्य है । दक्षिण एशिया में अंग्रेज़ी भाषा का साम्राज्य तथा अफ़्रीका के अनेक देशों में फ़्रांसीसी का साम्राज्य राजनैतिक साम्राज्य में निहित शक्तियों के दुरुपयोग का ही परिणाम है । किन्तु इसके साथ-साथ भाषाई-साम्राज्य को बनाए रखने और सतत् प्रसार को सुनिश्चित करने के लिये मिथ्या-प्रचार, अर्धसत्य, दुष्प्रचार आदि का सहारा लिया जाता है । इसके अतिरिक्त यह सुनिश्चित किया जाता है कि रोज़गार पाने के लिये आरोपित भाषा का अच्छा ज्ञान अनिवार्य हो । इसके लिये एक अल्पसंख्यक अभिजात वर्ग तैयार किया जाता है जो इस भाषा का दुरुपयोग करके शेष समाज का शोषण करता रहे तथा वह वर्ग जाने-अनजाने इस विदेशी भाषा का हित साधन करता रहता है ।

 

पिलिप्सन की पुस्तक में इस बात का विश्लेषण है कि किस प्रकार ब्रिटिश काउन्सिल तथा अन्य संस्थाएँ भ्रामक-प्रचार (रिटोरिक) का प्रयोग करके अंग्रेज़ी साम्राज्य को बढ़ावा देती है । इन भ्रमजालों के कुछ नमूने हैं :

  •  · अंग्रेज़ी-शिक्षण का सर्वोत्तम तरीका उसे एकभाषीय रूप से पढ़ाना है । (एकभाषीय भ्रम)
  •  · अंग्रेज़ी शिक्षण के लिये आदर्श अध्यापक वही है जिसकी मातृभाषा अंग्रेज़ी हो । (मातृभाषी भ्रम)
  •   जितनी कम आयु से अंग्रेज़ी सिखायी जाय, परिणाम उतने ही अच्छे होंगे । (शीघ्रारम्भ भ्रम)
  •   जितनी अधिक अंग्रेज़ी पढा़यी जाएगी, परिणाम उतना ही अच्छा होगा । (अधिकतम-अनावरण भ्रम)
  •   यदि अन्य भाषाओं का अधिक प्रयोग किया जायेगा तो, अंग्रेज़ी का स्तर गिरेगा । (व्यकलित भ्रम)
  •  अंग्रेज़ी भाषा के विषय में विविध माध्यमों से अर्धसत्यों से मिश्रित प्रचार को फैलाया जाता है:
  •   अंग्रेज़ी को दैवी, धनी, सभ्य, और रोचक बताया जाता है । ऐसा प्रतीत कराया जाता है कि दूसरी भाषाएँ इन गुणों से हीन हैं ।
  •   अंग्रेज़ी में प्रशिक्षित अध्यापक एवँ शिक्षा-सामग्री के भरपूर उपलब्धता की बात कही जाती है ।
  •  अंग्रेज़ी के बारे में कुछ कथन उसके उपयोगिता और महत्व का अतिशयोक्तिपूर्ण प्रचार करते हुए दिये जाये हैं; जैसे:
  •   अंग्रेज़ी विश्व का प्रवेशद्वार है ।
  •   अंग्रेज़ी लोगों को प्रौद्योगिकी के संचालन में सक्षम बनाती है ।
  •   अंग्रेज़ी आधुनिकता का प्रतीक है ।

 

भाषाई साम्राज्यवाद के दुष्परिणाम एवँ हानियाँ

 

  • · भाषाई-साम्राज्य का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि स्वदेशी भाषाएँ एवँ बोलियाँ उपेक्षित हो जातीं हैं । कुछ मामलों में उनके लुप्त होने का प्रबल खतरा भी उपस्थित हो जाता है ।
  •  · साम्राज्यवादी भाषा एक अल्पसंख्यक, अभिजात्य, शोषक वर्ग उत्पन्न करती है ।
  •  · साम्राज्यवादी भाषा (जैसे, अंग्रेज़ी) शोषण के हथियार के रूप में प्रयुक्त होती रहती है ।
  •  · अभिजात वर्ग, साम्राज्यवादी भाषा का उपयोग आम जनता से दूरी बनाकर अनुचित लाभ लेने के लिये करता है । (जैसे – धौंस जमाने के लिये)
  •  · समाज के पिछड़े और उपेक्षित लोगों को उनकी प्रतिभा के पश्चात भी रोज़गार मिलने में कठिनाई होती है क्योंकि उनके सामाजिक पर्यावरण के कारण एक विदेशी भाषा के स्थान पर वे स्वभाषा में प्रवीण होते हैं । इससे समाज में समानता आने के स्थान पर असमानता की खाई बनती जाती है ।
  •  · विदेशी भाषा के उपयोग की विवशता के कारण समाज में विचार-विनिमय सम्यक प्रकार से नहीं हो पाता। कुछ-कुछ स्थितियों में (साम्राज्यवादी) भाषा का उपयोग संवाद को बढ़ावा देने के स्थान पर संवाद का हनन करने के लिये भी किया जाता है ।
  •  · शिक्षा में विदेशी भाषा के प्रचलन से विद्यार्थियों में समझने के स्थान पर रटने की प्रवृति बढ़ती है । इससे मौलिक चिन्तन करने वाले देशवासियों के स्थान पर अन्धानुकरण करने वाले (नकलची) अधिक उत्पन्न होते हैं ।
  •  · विदेशी भाषा में अनावश्यक रूप से निपुणता लाने के लिये समय बर्बाद करना पड़ता है जिसे किसी अन्य सृजनात्मक कार्य के लिये उपयोग में लाया जा सकता था ।
  •  · दीर्घ अवधि में समाज अपनी संस्कृति और जड़ से ही कट जाता है ।
  •  · समाज में हीनभावना आ जाती है ।
  •  · सारा समाज भाषा जैसी महान चीज़ की अस्वाभाविक स्थिति के कारण परेशानी उठाता है ।

 

एक सत्य तथ्य यह भी है कि हम जानबूझकर दूसरों की संस्कृति को अपना रहे हैं | घर से माँ – बाप को निकालकर बाहर कर देने की आदत हमें सिखाई नहीं गई अपितु हमने सीखी है | इसी तरह न जाने कितनी ही अपवर्ज्य चीजें हमने शौक में सीख ली हैं | सांस्कृतिक साम्राज्यवाद आज के समय में हमारी मानसिकता का ही एक पक्ष है | इसे उलाहना देने के बजाय हमें अपनी संस्कृति को अपना और सर्वोच्च मानते हुए उसका सम्मान करना चाहिए और इसे बढ़ानेका प्रयत्न करना चाहिए |

 

 

3 COMMENTS

  1. बहुत, बहुत सुन्दर.
    पॉलिटिक्स अमंग नेशंस —मॉर्गन थाउ, लिखित पुस्तक का भी ऐसा ही निष्कर्ष है.
    पाठकों को से अनुरोध||
    इस आलेख को, अपने हर मित्र को भेजे जो भारत के हित चिन्तक है.

    साम्राज्य वादी सत्ताएं दूसरे राष्ट्रों की बौद्धिक संपत्ति भी आकर्षित ही करती है. जिस आकर्षण के कारण अनेक भारतीय युवा, आकर्षित होकर ऐसी साम्राज्यवादी सत्ताओं को ही, और समृद्ध करने में, इमानदारी से, अपना योगदान देते रहते हैं. फिर ऐसे विद्वानों को अवार्ड्स, देकर और आगे बढ़ा कर उनका उपयोग किया जाता है.

    यह पारदर्शक सत्य जब समझ आने लगता है, तब तक बड़ी देर हो जाती है. कुछ पढ़त मूर्खों को यह समझ में भी नहीं आता!

    इसे सांस्कृतिक साम्राज्य वाद कहा जाता है.
    वालमार्ट क्या कर रहा है? धीरे धीरे धीरे एक एक सीढ़ी हम पीछे हट रहे हैं, परदेशी भाषा, परदेशी चाल चलन, परदेशी नेतृत्व? इश्वर करें, भारत को इस कैंसर से बचाए.
    सर्व हितकारी और समन्वय वादी संस्कृति को वर्चस्ववादी सामराज्यवादियों के साथ बराबरी देना —-अतार्किक है.
    क्या वर्चस्ववादी=समन्वयवादी ?

    जो साम्राज्यवादी खूंटी से बंधा है, वह सर्व कल्याणकारी मुक्त चिन्तक के बराबर कभी नहीं हो सकता. लेखक को बहुत बहुत साधुवाद.

    • श्रीमान डॉ. मधुसूदन जी , एक कलमकार के कलम की हौसलाफजाई के लिए आभार ! आप सब का मार्गदर्शन ही इस तरह लिखने को प्रेरित करता है | आप अपना वरदहस्त ऐसे ही बनाए रखिए |

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