विकास के नाम इतिहास बनते लोग !

0
233

अब्दुल रशीद
जंगल आदिवासीयों के लिए और खेत किसानों के लिए न केवल उनके रोजीरोटी का साधन है बल्कि उनकी पहचान है. नए दौर में जो विकास कि गाथा लिखी जा रही है उसमें किसान और आदिवासी कहीं गुम होते जा रहें हैं. मूल बाशिंदो को विस्थापित कर नए को स्थापित करने का काम जिस गति से हो रहा है ऐसा प्रतीत होता है इतिहास के पन्नों में कहीं मूल ही दुर्लभ बनकर न रह जाए.
राजनीति में किसान और आदिवासीयों कि चर्चा तो खूब होती है लेकिन एक कड़वा सच यह भी है के जंगल उजड़ रहा है,खेत सिमट रहे है और अपनी आजीविका के लिए आदिवासी और किसान शहर की ओर पलायन कर दिहाड़ी मजदूर बन रहें हैं.
भारत में जंगल का कुल क्षेत्र 678333 वर्ग किलोमीटर माना जाता है जो देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 20 फीसदी माना जाता है जिसमें सघन जंगल करीब 12 फीसदी ही है. आदिवासियों कि ज्यादातर आबादी मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र, उड़ीसा और गुजरात में बसी है. जंगल में आदिवासियों का निवास स्वाभाविक है लेकिन अब स्थिति बदल रही है कॉर्पोरेट घराना अपने कल कारखानों के लिए जंगल कि ओर रुख कर रहें हैं ऐसे में जंगल का आकार सिमट रहा है और आदिवासी या तो पलायन कर रहें हैं या फिर अभाव प्रभाव से ग्रसित हो कर लुप्त हो रहें हैं. आंकड़ो को आधा गिलास भरा या आधा गिलास खाली समझना स्वःविवेक के ऊपर निर्भर करता है. आंकड़ो कि हकीकत को ईमानदारी से पढ़ा जाए तो आदिवासियों का जीवन सुखमय है यह बात कतई नहीं कहा जा सकता है.
आदिवासियों के विकास के लिए देश में मंत्रालय है पूरा का पूरा एक सरकारी तंत्र है लेकिन हकीकत में तन्त्र और मंत्रालयों द्वारा आदिवासियों के लिए किया जाने वाला विकास महज़ कागज़ी लगता है क्योंकि आदिवासीयों तक यदि विकास पहुँच रहा होता तो नज़र भी आता. आदिवासियों और किसानों के रहन सहन का स्तर देखिए, शिक्षा,राजनीति खेल और सरकारी नौकरियों में कितना उनकों मौक़ा मिला है यह बात किसी से छुपा नहीं. क्या सब के सब नकारे और अयोग्य हैं? या उन्हें उनके हक़ से वंचित किया जा रहा है ?
आदिवासियों के विकास कि झांकी देखनी है तो देश के जंगल बाहुल्य इलाके में जा कर देखिए कैसे जीते है ये लोग कितनी सुविधा सरकार द्वारा दी जा रही है, कैसे विकास के नाम पर इनको विस्थापित किया जा रहा है, यकीन मानिए नीति नियति और नीयत तीनों से आपका साक्षात्कार हो जाएगा.
विकास और विस्थापन के कुचक्र में फंसी आदिवासी कौम इस कुचक्र को तोड़कर विकास की नई सुबह तो देखना चाहती है लेकिन क्या उसके लिए क़ीमत चुकाना होगा, उन्हें अपने पहचान को खोना होगा? क्या कारपोरेट घराना और सरकार आदिवासियों और किसानों का विस्थापन करते समय पैकेज और मुआवजा के बज़ाय मानवीय दृष्टिकोण को अपना कर उनकों उनकी पहचान के साथ विकास कि नई सुबह दिखा सकती है,काश ऐसा हो, तो विकास के साथ साथ सभ्यता और संस्कृतियों का भी विकास होगा.

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here