‘भक्ति’ की शक्ति से टूटा था सत्ता का अहं : डॉ कृष्णगोपाल

कोई भी व्यवस्था अपने उद्गम स्थल पर कितनी ही अच्छी क्यों न हो, आगे चलकर विकृत होती है, टूटती है और बिखरती है। तब समाज का विचारवंत वर्ग खड़ा होता है और अव्यवस्था, अराजकता, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करता है। समाज की प्रकृति स्वभावतः परंपरा और जड़ता-प्रिय होती है। यही जड़त्व समाज को बदलने से रोकता है और तब सद्विचार और कुरीति का परस्पर संघर्ष होने लगता है।

अच्छी बात यह है कि हिंदू समाज ने काल के अनुरूप स्वस्थ विचार और सद् समाज रचना को हमेशा प्राथमिकता दी है। इस कारण सद्विचार में से सद्परंपराएं निर्माण होती रहती हैं। वे पुरानी परंपराओं का स्थान ग्रहण करती हैं और समाज के अन्दर हर कालखण्ड में नवजागरण का सृजन होता है। हिंदू समाज सनातन सत्य को लेकर पुनः नए रूप में खड़ा हो जाता है। यही इस संस्कृति का अमृत घट है। हिन्दू समाज स्वभाव से क्रांतिधर्मा है। उसका जोर जिस क्रांति पर रहा है, वह संक्रांति कहलाती है। अर्थात् विचारवंत परिवर्तन, सद्गामी परिवर्तन, तमस और अन्धकार से प्रकाश और अमृत तत्व की ओर ले जाने वाला परिवर्तन।

इसी क्रांति-धर्म की अभिव्यक्ति हिंदू समाज ने परकीय आक्रमण के समय भक्ति आंदोलन के रूप में की थी। ‘भक्ति’ संसार को भारतीय आध्यात्मिक प्रज्ञा की विलक्षण देन है। भक्ति संपूर्ण संसार को ईश्वरमय मानती है। जैसा कि प्रथम उपनिषद ईशावास्य उपनिषद के पहले श्लोक में वर्णन आता है- ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत्किंचत्जगत्यांजगत्, अर्थात् संसार में सब कुछ ईश्वर से परिपूर्ण है। भक्ति आंदोलन के संतों ने उपनिषदों की वाणी को साक्षात् रूप में साकार किया है। प्राणीमात्र के दुःख से वह व्याकुल हो उठता है।

मानव मात्र को कष्ट देना, उसे अपमानित और प्रताड़ित करने का विचार ईश्वरीय सृजन के विरूद्ध है, इसीलिए सच्चा संत या ईश्वर भक्त इसे कभी स्वीकार नहीं करता । वास्तविकता तो यही है कि संसार को ईश्वरभक्ति से शून्य अहंवादी, प्रमादी लोगों ने ही बार-बार हिंसा और रक्तपात की ओर धकेला है।

शायद यही कारण है कि भक्ति आंदोलन से जुड़े तमाम संत सम्राटों की चाकरी और राजनीतिक प्रभुता, धन-ऐश्वर्य से अपने को दूर रखते हैं। कहीं-कहीं तो वे धन-प्रभुता और ऐश्वर्य प्रदर्शन के अनुचित स्वरुप को देखकर दुःखी और ठगे से महसूस भी करते हैं। भक्त कुंभनदास को सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त राजकीय वैभव बेकार लगने लगता है और गोस्वामी तुलसीदास अकबर की मंसबदारी से स्वयं को दूर ही रखते हैं। इन भक्तों ने राजमहलों की शोभा बनने की बजाए अपने झौपड़े को अधिक आनन्ददायक माना और साधारण समाज जीवन को भी सम्राट की बजाए रामजी को राजा मानकर अपने जीवनयापन का निर्देश दिया। सम्राट अकबर को प्रस्ताव को ठुकराते हुए तुलसीदास ने कहा-

हम चाकर रघुवीर के…, अब तुलसी का होहिंगे नर के मंसबदार।

भक्त कुंभनदास ने तो एक कदम आगे जाकर अकबर के दरबार में ही घोषणा की-

जिनके मुख देखत अघ लागत तिनको करन पड़ी परनाम, आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। संतन सो कहां सीकरी सो काम।

यानी जिन्हें देखने पर भी पाप लगता है, उन्हें प्रणाम करना पड़ रहा है। सम्राट की सीकरी से संतों का आखिर क्या काम है, इनके कारण तो भगवान का नाम लेना भी विस्मृत हो जा रहा है। और अंत में भक्त कुंभनदास दरबार में यह कहने की हिम्मत भी करते हैं कि- आज पाछे मोकों कबहूं बुलाइयो मति सम्राट। यानी हे सम्राट, अब फिर कभी इस भक्त को अपने दरबार में बुलावा मत भेजना।

जब बड़े-बड़े प्रतापी राजाओं की हिम्मत टूट चली थी, तब ये संत कैसा साहस प्रकट कर रहे थे, सहज समझ आ सकता है। यह कोई आसान काम नहीं था जो हिंदुस्थान के संत कर रहे थे। इन संतों ने विदेशी मुगलों के राज्य को कभी अपनी मान्यता और सम्मति नहीं दी और इसके समानांतर जब हिंदू राजा केवल नामशेष रह गए, राजा राम को लोकजीवन का सम्राट घोषित कर दिया।

कैसा विस्मित और दिल को दहलाने वाला दृश्य रहा होगा जब गुरु अर्जुनदेव ने जहांगीर को सामने झुकने से इनकार कर दिया। भयानक कष्टों और शारीरिक पीड़ा भोगने के बावजूद मृत्यु के समय उनके मुख से गुरुवाणी ही गुंजती रही और अंत में भी यही निकला- तेरा किया मीठा लागे। जहांगीर के लिए इससे बढ़कर शर्म की क्या बात हो सकती थी कि उसके अत्याचारों को भी एक संत ‘मीठे कार्य’ बता रहा था। गुरु तेगबहादुर महाराज भी इसी प्रकार कंठ से जपुजी साहिब का कीर्तन करते हुए बलिदान हुए।

यह भक्ति की ताकत थी जिसने भारतीय समाज को बड़े से बड़ा बलिदान करने की ओर उन्मुख किया। यह भक्ति थी जिसने भारतीय समाज को यह भी प्रेरणा दी कि अत्याचारियों से स्वराज्य छीनकर पुनः भारतभूमि को अपने सपनों का स्वर्ग बनाएं। यही कारण है कि एक ओर उत्तर में गुरु गोविंद सिंह महाराज कहते हैं-

अगम सूर वीरा उठहिं सिंह योद्धा,

पकड़ तुरकगण कऊं करै वै निरोधा।

वहीं दूसरी ओर दक्षिण में विद्यारण्य स्वामी और मध्य भारत में समर्थ स्वामी रामदास जैसे संत विदेशी सल्तनत का जुआ उतार कर समाज को उठ खड़े होने का आह्वान देते हैं।

परकीय दासता के कालखण्ड में भक्ति पराक्रम के विरुद्ध कायरता या गृहस्थी और संसार के झंझटों से मुक्त होकर स्वयं को सुखी रखने का साधन नहीं थी। संतों की साधना स्वयं में एक कठिन कार्य था, उसमें भी समाज को विदेशी दासता से मुक्ति की शुभ घड़ी के आगमन तक धैर्य रखने के लिए आश्वस्त करने का काम तो और कठिन था। इसलिए भक्ति के कार्य में कायरों के लिए तो कोई जगह नहीं थी। तभी तो कबीर दास उस कालखण्ड में भक्ति को बलिदान का दूसरा नाम देते हुए कहते हैं-

भगति देहुली राम की, नहिं कायर का काम।

सीस उतारै हाथि करि, सो ले हरिनाम।

संपादकीय टिप्पणीः

डॉ. कृष्णगोपाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवन समर्पित प्रचारकों की टोली से जुड़े यशस्वी और मेधावी प्रचारक हैं। वनस्पति विज्ञान में शोध करने के उपरांत उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रकार्य के लिए अर्पित किया। संप्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजनानुसार वह पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। व्यक्तिरूप से वे गहन जिज्ञासु और अध्यावसायी हैं। स्वदेशी, डंकेल प्रस्तावों पर उन्होंने करीब 15 वर्ष पूर्व विचारपूर्वक अनेक पुस्तकों का लेखन किया।

2 COMMENTS

  1. Bhakti ki shakti….. Dr Krishnagopal ji ke sandarbhit aalekh se asahmati ka prashn hi nahi uthta. Bhaktikal me tatkaleen kavydhara ke sahityik andolan me sankramankaleen upmahadweepeey samaj me samanti paraspar yudhdhyon ki vibhishika ka bhari prabhav pada tha parinamswroop tathakathit desh {?} gulam ho gaya tha.gulami ke dino me iswar{chahe ho ya na ho}hi yad aata hai so jo pahle lokik rajaon me apna udhdhar dekh rahe the we prathviraj raso , parmal raso, bisaldeo raso, padmawat tatha rajtarangni rach rahe the aakrmankariyon ke hath inke mare jane par is parampara ne vairagy bhav ko ashtra vanakar
    bhakti kavy ke madhyam se alaukik shaktiyon me apna srijanhar palanhar aur vidhwansak khoj liya.
    unke naye upman ab ajar, amar, avinashi hone lage. Tulsi ke ram ab Chandvardhayee ke Prithviraj ki tarah raas rang me nahi doobe the. In bhakt kavion ne un vikat paristhition me bhi apne nayko ko padchyut nahi hone diya. Unke swamisakha tatha taranhar awdheshkumar matr nahi the. Ve brahma vyapak ajar amar avinashi the. Ab wah sthiti nahi thi ki udhar akrantaon ki tope panipat ke maidan garaz rahi ho aur idhar tathakathit soorma sanyogita haran me vyast ho. Bhaktikal me samaj ke prabuddha varg ne vastvik aitihasik bhoomika ka nirwah karte hue bhakti kavya ke roop me samaj ki pratirodhak kshamta ko jeevit rakha hai.
    Shriram Tiwari, http://www.janwadi.blogspot.com

  2. यही कारण है, जो हिंदुत्त्वको (१)कालातीत, सार्वदेशिक, सार्वजनीन, वैश्विक, और सनातन बना देता है। और भी कई विशेषण गढे जा सकते हैं। हिंदुत्व काल, देश, परिस्थिति-के अनुरूप आवश्यकता पडनेपर कभी भक्तियोग, कभी ज्ञानयोग, कभी कर्मयोग, कभी राजयोग को उजागर करता है।–और फिर चाहो तो अरविंदका “इंटिग्रल योग”, या परहंस योगानंदका “क्रिया योग” और श्री रविशंकरजी की “सुदर्शन क्रिया”, इत्यादि भी खडा कर लेता है।
    गत कई शताब्दियोंकी दास्यतामें जैसे कछुआ अपना मुंह सिकुडकर अपनी रक्षा कर लेता है, वैसे भक्तिके सहारे दास्यतामेंभी अपनेको बचाके रख सका।किंतु, ऐसे विशालातिविशाल सारी सीमाओंको लांघनेवाले हिंदुत्त्वपरभी, एकेश्वरवादी धर्मोकी छवि मढकर, उसेभी संकुचित दिखाने से हि कुछ लोगोंकी दाल गलती है। जानबुझकरहि ऐसे विद्वान(?) लेखनी रगडनेमें व्यस्त हैं। डॉ. कृष्ण गोपालजी को हृदयतलसे, सादर, सप्रेम धन्यवाद, और चरणस्पर्श। आपको पढनेसे आजका दिन,एक गरिमाका अनुभव करते हुए उत्तेजना पा रहा है। गुजरातीमेंभी कडी है,”हरिनो मारग छे शूरानो, नहिं कायरनुं काम रे”।(हरिका मार्ग शूरोंका मार्ग है, कायरका काम नहीं)

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