धरा को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं आदिवासी

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विगत 100 वर्षों में विकास की सबसे ज्यादा कीमत किसी ने चुकाई है तो वे आदिवासी हैं। किसी को उसके घर से विस्थापित कर दिया जाए, उसकी आजीविका के जरिये छीन लिए जाएं और उसकी पहचान बदल कर इस धर्म या उस धर्म की बना दी जाए तो उससे दुर्भाग्यशाली भला और कौन होगा? आदिवासी ऐसे ही दुर्भाग्यशाली हैं। उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह रहा कि जिस वनभूमि पर उनका आवास है वह अपने गर्भ में कोयला, लोहा, बॉक्साइट, हीरा, यूरेनियम आदि बहुमूल्य खनिजों को धारण किए हुए है और बिना इन वनों के विनाश के इस सम्पदा का उपयोग करने वाले स्टील और पावर तथा रत्न आदि उद्योगों की स्थापना संभव नहीं है। आदिवासियों के शत्रु भी हैं- उनकी सरलता-निष्कपटता और भोलापन! आधुनिक सभ्य समाज के कुटिल व्यवहार को अंगीकार करने में उन्हें शायद सदियां लग जाएंगी। कभी उनकी वनोपजों और वन से संग्रहित उत्पादों को नमक के मोल पर खरीदा जाता था और कभी समाप्त न होने वाले ऋणों के बदले में उनसे बंधुआ मजदूरी कराई जाती थी तथा उनकी स्त्रियों का शोषण किया जाता था। कभी धोखे से उनकी जमीन हड़प कर ली जाती थी। आज भी एक से एक सशक्त कानूनों,आरक्षण के कवच और बतौर वोट बैंक उनकी उपयोगिता की स्वीकृति के बावजूद आदिवासियों की दशा में आने वाला परिवर्तन सकारात्मक नहीं है।
आदिवासी भोले जरूर हैं-उन्हें छला जा सकता है किंतु वे कायर नहीं हैं, उन्हें दबाया नहीं जा सकता। भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक अचर्चित पाठ आदिवासियों के प्रखर संघर्ष का पाठ है। संथाल परगना में तिलका मांझी की अगुवाई में चले दामिन विद्रोह के 13 वर्ष (1771- 1784) लोमहर्षक और लोकप्रिय वीरगाथाओं के स्रोत रहे हैं। बुधु भगत के लरका आंदोलन (1828-1832) का विवरण हैरान कर देने वाला है। सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू का विद्रोह (1855) झारखंड के साहसी और क्रांतिकारी आदिवासी सेनानियों के संघर्ष की उस परंपरा की एक कड़ी है जिसका शिखर बिरसा मुंडा और उनके उलगुलान (1894-1900) में देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ में वीर नारायण सिंह की शहादत(1857) और मध्य प्रदेश के निमाड़ के सघन वनों में रहने वाले टांट्या भील का बलिदान(1889) आदिवासियों के स्वाधीनता के प्रति उस दुर्दमनीय आकर्षण को दर्शाते हैं जो हमेशा कायम रहेगा। स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण बिखरे पड़े हैं जो एक नए विमर्श की शुरुआत कर सकते हैं। इन सारे आदिवासी स्वाधीनता आंदोलनों के नायकों की एक ही नियति रही – अल्पायु में आत्म बलिदान। इन्हें इतिहासकारों द्वारा या तो उपेक्षित किया गया या लुटेरों के रूप में प्रस्तुत किया गया किन्तु आदिवासी समुदाय में इनका पराक्रम दंतकथा बन गया और लोक गीतों एवं लोक साहित्य में ये आज भी जीवित हैं। विचारधारा और संगठनात्मक कौशल की दृष्टि से अनगढ़ इन आंदोलनों का नितांत क्रूरता और बर्बरता से दमन किया गया और इनमें अपार जनहानि हुई। इन आंदोलनों के पीछे निहित कारण, शोषण और दमन के अलावा आदिवासियों की उन्मुक्त एवं स्वतंत्र जीवन शैली में हस्तक्षेप को भी माना जा सकता है। आदिवासी आंदोलनों के प्रति नजरिया बदलने की आवश्यकता तब भी थी और अब भी है।
आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधानों में पाँचवीं और छठी अनुसूची सर्वप्रमुख रही हैं। पाँचवी अनुसूची में देश के दस राज्यों के वे क्षेत्र सम्मिलित हैं जहाँ आदिवासियों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। इन क्षेत्रों में आदिवासी जीवन शैली और जीवन दर्शन की रक्षा करते हुए आदिवासियों की रूढ़ियों,परम्पराओं और मान्यताओं के अनुरूप शासन चलाने एवं विकास योजनाओं का निर्माण तथा संचालन करने का प्रावधान है। छठी अनुसूची में उत्तर पूर्व के वे राज्य रखे गए हैं जहाँ आदिवासियों की जनसंख्या 80 प्रतिशत तक है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों की पारंपरिक कानून व्यवस्था लागू है और भूमि का क्रय विक्रय प्रतिबंधित है। पाँचवी और छठी अनुसूचियाँ राज्यपालों को विशेष शक्तियां और अधिकार देती हैं। किन्तु इन प्रावधानों का कितना पालन हो रहा है यह जगविदित है। पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया कानून अर्थात पेसा 1996 में पारित किया गया जो आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की अनुमति को आवश्यक बनाता है। दिसंबर 2006 में संसद द्वारा पारित एवं सरकार द्वारा 1 जनवरी 2008 से अधिसूचित वन अधिकार कानून, 13 दिसंबर 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को वनों में निवास करने और इनसे आजीविका अर्जित करने का अधिकार देता है। लगभग 120 वर्ष पुराने ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण कानून का स्थान लेने वाला 2013 का नया भूमि अधिग्रहण अधिनियम जमीन के उचित मुआवजे,पुर्नवास और पुनर्स्थापन का दावा करता है तथा बिना किसानों की सहमति के निजी उद्योगपतियों द्वारा उनकी भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाता है एवं सामाजिक प्रभाव के आकलन को अनिवार्य बनाता है। इन क्रांतिकारी आदिवासी हितैषी कानूनी प्रावधानों के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि स्वतंत्रता के उपरांत लगभग 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है या उसके उपयोग में परिवर्तन किया जा चुका है जो कि कुल भूमि का 6 प्रतिशत है और सर्वाधिक दुर्भाग्य का विषय है इस अधिग्रहण से प्रभावित करीबन 5 करोड़ लोगों में बहुसंख्य आदिवासी हैं। आदिवासियों की आजीविका और जीवन शैली का आधार परंपरागत कृषि रहा है जिसे धीरे धीरे हाशिये पर धकेला गया है।
जैसा व्यंग्यात्मक लहजे में कहा जाता है कि स्वाधीनता के बाद आदिवासी विकास के नाम पर जितनी राशि सरकारों द्वारा खर्च की गई है उसका योग कर यदि आदिवासियों के मध्य बांटा जाए तो प्रत्येक आदिवासी आज ही विपुल संपत्ति का मालिक बन जाएगा, किन्तु आदिवासियों की स्थिति समाज के अन्य समुदायों की तुलना में अब भी बहुत पिछड़ी है। विकास के हर पैरामीटर – शिक्षा,स्वास्थ्य,आयु,आय, रोजगार,शिशु मृत्यु दर,मातृ सुरक्षा – सभी में वे राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे हैं। बिना एंथ्रोपोलॉजिकल दृष्टिकोण को महत्ता दिए बनाई गई अदूरदर्शितापूर्ण योजनाओं के अनिच्छापूर्वक किए गए क्रियान्वयन का परिणाम असफलता तो होना ही था। व्यापक भ्रष्टाचार ने आदिवासी विकास के लिए जारी की गई विपुल धनराशि की जमकर बंदरबांट को सुनिश्चित किया। आधुनिक आर्थिक विकास का तूफानी प्रवाह आदिवासियों तक पहुंचा और उनकी सम्पन्नता को बहा ले गया। आदिवासी नई आर्थिक गतिविधियों और वित्तीय संस्थाओं का लाभ उठाने के लिए परिपक्व नहीं थे परिणामस्वरूप अन्य तबकों के साथ प्रतिस्पर्धा में वे टिक न पाए और विकास सम्पन्नता के स्थान पर गरीबी लाने का माध्यम बन गया। छठी अनुसूची में आने वाले उत्तरपूर्व के आदिवासी इलाकों में उग्रवाद और पाँचवीं अनुसूची में आने वाले कुछ राज्यों के कतिपय क्षेत्रों में नक्सलवाद की उपस्थिति को शासन तंत्र द्वारा विकास में सबसे बड़े अवरोध का दर्जा दिया जाता है। यद्यपि बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि स्थिति ठीक विपरीत है- विकास के अभाव में उग्रवाद और नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमाई हैं। इसी से जुड़ा यह विमर्श भी है कि क्या उग्रवाद और नक्सलवाद की समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या माना जाए अथवा इसे एक सामाजिक आर्थिक समस्या मानकर हल करने की चेष्टा की जाए और यह भी कि राह से भटके आदिवासियों के साथ क्या उग्रवादी और नक्सली जैसा व्यवहार किया जाए अथवा इन्हें उग्रवाद और नक्सलवाद के पीड़ित के रूप में आकलित किया जाए। हाल के वर्षों में पलायन आदिवासियों की सर्वप्रमुख समस्या रहा है। कृषि ही जब मुनाफे का धंधा न रही हो तब परंपरागत कृषि के लाभप्रद होने की आशा ही व्यर्थ है और इसी पारंपरिक कृषि और वनोपजों के संग्रहण पर आदिवासियों की अर्थव्यवस्था आधारित रही है। आदिवासी अर्थव्यवस्था सूदखोरों और वन माफियाओं के द्वारा आक्रांत रही है। तमाम कागजी कानूनों और जमीनी जन प्रतिरोधों के बावजूद पिछले डेढ़ दशक में कोयला और खनिज उत्खनन की मात्रा तथा इन पर आधारित पावर एवं स्टील उद्योगों की संख्या बढ़ी है। आदिवासियों को अपर्याप्त अथवा समुचित मुआवजा देकर उनकी जमीन से बेदखल किया गया है। मुआवजे की राशि का संचय या सदुपयोग करने के लिए आवश्यक कौशल के अभाव में यह खर्च हो जाती है। मालिक से नौकर बने आदिवासियों को या तो अपनी जमीन पर बने कारखानों में अकुशल श्रमिक बनना पड़ता है या रोजगार की तलाश में पलायन करना पड़ता है। इसी पलायन से जुड़े मानव तस्करी, देह व्यापार और बंधुआ मजदूरी के यक्ष प्रश्न हैं। कमाने खाने के लिए लंबे समय तक बाहर रहने वाले आदिवासी बिल्कुल अपने घुमन्तू आदिवासी मित्रों की भांति कई बार जनगणना आदि में सम्मिलित नहीं किए जाते और अनेक लाभों से वंचित रह जाते हैं।
आदिवासियों की अधिकांश समस्याओं का समाधान ऐसी उपयुक्त शिक्षा है जो मातृ भाषा में दी जाए और जिसका पाठ्य क्रम कृषि,वानिकी,वनौषधि, लोकगीत,संगीत,नृत्य,खेल,युद्ध कौशल आदि को स्वयं में समाविष्ट करता हो किन्तु प्रचलित शिक्षा का माध्यम और पाठ्यक्रम दोनों आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति की उपेक्षा पर आधारित हैं। इससे एक तो आदिवासी शिक्षा से जुड़ नहीं पाते और यदि वे इसमें दीक्षित हो कोई उच्च शासकीय पद प्राप्त भी कर लेते हैं तो उनके मन में अपनी सभ्यता,संस्कृति और अतीत के प्रति प्रायः तिरस्कार की भावना पैदा हो जाती है। वे अपनी जड़ों से कट जाते हैं और उनके ज्ञान तथा अनुभव का लाभ उनके पैतृक आवास में रहकर पारंपरिक धंधों में लगे अन्य बंधुओं को नहीं मिल पाता। राजनीति में प्रवेश कर शीर्ष स्थान पर पहुंचने वाले आदिवासी नेताओं में भी अपनी सर्वश्रेष्ठता का अहंकार देखने में आता है अंतर केवल इतना होता है कि वे चुनावी राजनीति के लिए आदिवासियों से जुड़कर भी पिछड़ेपन को बरकरार रखना चाहते हैं ताकि उन्हें मुद्दों का अभाव भी न हो और पिछड़े आदिवासी समाज में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी उभर न सकें। आदिवासियों में शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में पहले ईसाई मिशनरियों और अब इनकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदूवादी संगठनों ने भी उल्लेखनीय कार्य किया है किंतु इनका मूल उद्देश्य धर्म प्रचार ही रहा है।
अंत में आलेख के सारांश स्वरूप, क्रियान्वित न हो सके अद्भुत सिद्धांतों के प्रणेता पंडित नेहरू के वाङ्गमय से एक उद्धरण जिसे आदिवासी पंचशील के नाम से जाना जाता है-1.आदिवासियों को अपनी प्रतिभा और विशेषता के आधार पर विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। हमें उन पर कुछ भी थोपने से बचना चाहिए। उनकी पारंपरिक कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिए।2. जमीन और जंगलों पर आदिवासियों के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।3. प्रशासन और विकास का कार्य करने के लिए हमें उनके लोगों (आदिवासियों) को ही प्रशिक्षण देने और उनकी एक टीम तैयार करने की चेष्टा करनी चाहिए। जाहिर है, इस कार्य के लिए प्रारंभ में बाहर के कुछ तकनीकी जानकारों की आवश्यकता पड़ेगी ।लेकिन हमें आदिवासी इलाकों में बहुत ज्यादा बाहरी लोगों को भेजने से बचना चाहिए।4. हमें इन क्षेत्रों में बहुत ज्यादा शासन-प्रशासन करने से या उन पर ढेर सारी योजनाओं का बोझ लादने से बचना चाहिए। हमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा या होड़ करके कार्य नहीं करना चाहिए। इसके बजाए उनके साथ तालमेल स्थापित कर काम करना चाहिए।5. हमें आंकड़ों के जरिये या कितना पैसा खर्च हुआ है, इस आधार पर विकास के परिणाम नहीं तय करने चाहिए, बल्कि मनुष्य की विशेषता का कितना विकास हुआ, नतीजे इससे तय होने चाहिए।
विश्व आदिवासी दिवस पर लोकतंत्र के आदिम उपासक, आनंद और उल्लास की प्राप्ति को सर्वोपरि स्थान देने वाले, संग्रह और लोभ जैसे दुर्गुणों से मुक्त, प्रकृति के इन रक्षकों की विजय की कामना करना हम सब का धर्म हैं क्योंकि ये पूरी दुनिया को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
डॉ राजू पाण्डेय,

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