रोगोत्पादक सूक्ष्म जीवाणु और हमारा सुरक्षा तंत्र

immune systemआज पूरा विश्व स्वास्थ्य समस्यायों से जूझ रहा है, यह उसी तरह है जैसे भारत में उग्रवाद । हम उग्रवाद के लिये पड़ोसियों को दोष दे सकते हैं किंतु वास्तविकता यह है कि विदेशी उग्रवाद को भारत में पनपने के लिए जिस उर्वरता की आवश्यकता है वह भारत की अपनी आंतरिक अव्यवस्था से उत्पन्न होती है । उग्रवाद को समाप्त करने के लिए हमें अपनी आंतरिक व्यवस्था को सुदृढ़ करना ही होगा । ठीक यही स्थिति लोक स्वास्थ्य के विषय में भी है । हमारे शरीर की आंतरिक अव्यवस्था से उत्पन्न उर्वरता विभिन्न रोगोत्पादक जीवाणुओं को आमंत्रित करती है । भारत के देशी राजाओं ने पड़ोसी राजा को पराभूत करने के लिए विदेशी लुटेरों को आमंत्रित किया और उन्हें हर सम्भव सहयोग भी दिया । यहाँ पर शरीर और राज्य की सुरक्षा प्रणाली में बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है । युगों पूर्व कहा गया ऋषि वचन आज कितना प्रासंगिक हो गया है – “पुरुषोऽयं लोक संमितः” , अर्थात यह ‘पुरुष’ लोक (संसार) की तरह है ।

एक लम्बे अवैज्ञानिक भटकाव के पश्चात विश्व स्वास्थ्य संगठन को अब यह स्वीकार करने पर विवश होना पड़ा है कि हमारी स्वास्थ्य समस्यायों का श्रेष्ठ समाधान चिकित्सा से सम्भव नहीं है । श्रेष्ठ समाधान के लिए हमें ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि लोग अस्वस्थ ही न हों । दुर्भाग्य से हम चिकित्सकीय उपचार के पीछे पागल हो रहे हैं । इस वैज्ञानिक युग के उत्कर्ष के दिनों में भी हम लोगों को जीवन जीना नहीं सिखा पाये हैं ; हम यह बताने में असफल रहे हैं कि स्वस्थ्य जीवन के लिए औषधि की नहीं प्रत्युत वैज्ञानिकजीवन की कला सीखने की आवश्यकता है । हमारी वर्तमान स्वास्थ्य समस्यायों ने आधुनिक विकास की अवधारणा पर एक जटिल प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है ।

भारत से मिस्र और यूनान होते हुये योरोप तक पहुँचते-पहुँचते आयुर्वेद का कलेवर पूरी तरह बदल चुका था । नित्यकर्म (दीर्घशंका) के पश्चात जल से अंग प्रक्षालन की भारतीयों की जीवन शैली आज भी योरोपीय जीवनशैली में अपना स्थान बना सकने में सफल नहीं हो सकी है । ऐसे असंस्कारी योरोपीय परिवेश में जीवनशैली के स्थान पर चिकित्सा को अधिक सम्मान की दृष्टि से देखा गया और इसी कारण नित नवीन औषधियों के शोध पर उनका ध्यान अधिक केन्द्रित रहा । परिणामतः विश्व को एक के बाद एक कई चमत्कारी औषधियाँ मिलती चली गयीं । किंतु कोई भी चमत्कार सावधिक होता है, एक समय के पश्चात हर चमत्कार को अंततः धूमिल होना ही पड़ता है । सल्फ़ा ड्रग्स और पेनिसिलीन से प्रारम्भ हुयी एण्टीबायटिक्स की यात्रा अब अपनी समाप्ति की ओर है । यात्रा के इस समापन की पूर्व कल्पना से ही चिकित्सा जगत में निराशा और चिंता के बादल घनीभूत होते जा रहे हैं । एण्टीबायटिक्स के लगातार और अविवेकपूर्ण प्रयोग के कारण रोगोत्पादक जीवाणुओं में विकसित हुए नये-नये स्ट्रेंस के कारण स्थिति गम्भीर हो चुकी है । मायावी क्षमतायुक्त जीवाणुओं ने तो अपना रूप बदल लिया किंतु एण्टीबायटिक्स अपना रूप बदल-बदल कर थक चुके हैं , और यह इतना सरल भी नहीं है । एक नये एण्टीबायटिक्स को विकसित करना एक लम्बी शोध प्रक्रिया के बाद ही सम्भव हो पाता है । वायरस तो और भी मायावी और अवसरवादी होते हैं, उनसे निपटना आज भी एक रहस्य बना हुआ है । वायरल डिसऑर्डर्स के आगे तो मनुष्य की एक भी नहीं चल पा रही है ।

तो अब समस्या यह है कि मायावी जीवाणु सशक्त होते जा रहे हैं जबकि उनसे निपटने के लिए उपलब्ध एण्टीबायटिक्स का ज़ख़ीरा व्यर्थ होता जा रहा है । इस प्रतिस्पर्धा का अंत मनुष्य के लिए शुभ होने वाला नहीं है । दूसरी ओर कैंसर जैसी जीवनशैलीजन्य व्याधियाँ विस्तार पाती जा रही हैं । अब विचार यह करना है कि हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए करना क्या चाहिये ?

ऋषिवचन – “पुरुषोऽयं लोक संमितः” से हमें एक निश्चित समाधान का सूत्र प्राप्त होता है । जिस तरह किसी राज्य की समृद्धि और सुख के लिए आंतरिक सुरक्षा आवश्यक होती है उसी तरह शरीर के स्वास्थ्य और सुख के लिए हमें अपने शारीरिक सुरक्षातंत्र को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है । यह सूत्र वाक्य हमें समझना ही होगा ।

हम दो प्रकार के वातावरणों में जीने के लिए बाध्य हैं- एक शरीर का आंतरिक वातावरण और दूसरा बाह्य वातावरण । बाह्य वातावरण की अपेक्षा आंतरिक वातावरण पर हमारा नियंत्रण सहज है । शरीर के आंतरिक वातावरण के दुर्बल होते ही बाह्य वातावरण में उपस्थित रोगोत्पादक अनेक कारण प्रभावी होने लगते हैं और शरीर की स्थिति ठीक वैसी ही हो जाती है जैसी कि बाह्य आतंकवादियों के कारण कश्मीर की और आयातित माओवादी विचारधारा के कारण मध्य और पूर्वी भारत की हो गयी है ।

आयुर्वेद ने सदैव शरीर के आंतरिक वातावरण की शुद्धता और श्रेष्ठता की चिंता करते हुये वैज्ञानिक आहार-विहार ( भोजन और आचरण ) के व्यवहार की वकालत की है । यदि हमें एड्स, इबोला, एंथ्रेक्स, कैंसर, इन्फ़र्टिलिटी, मेटाबोलिक डिसऑर्डर्स, इनबॉर्न डिसऑर्डर्स और मनोरोगों से मुक्ति चाहिये तो हमें अपनी जीवनशैली में आये विकारों को दूर करना ही होगा ।

आगे के लेखों में हम उस वैज्ञानिक जीवनशैली की चर्चा करेंगे जो हमें, समाज को, राष्ट्र को और पूरे विश्व को स्वस्थ बनाने का मूल आधार है । स्मरण कीजिये भारत ने सदैव “सर्वे भव्ंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः …” के आदर्श को स्थापित करने की दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।

 

( क्रमशः ……… )

 

डॉ. कौशल किशोर मिश्र

आयुष प्रभाग, महारानी जिला चिकित्सालय

जगदलपुर, बस्तर, छ.ग.

 

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