हुसैन दीन भी हैं दीन की पनाह भी हैं

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तनवीर जाफ़री

इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे तथा हज़रत अली के पुत्र इमाम हुसैन व उनके 72 परिजनों व साथियों की शहादत की याद दिलाने वाला मोहर्रम प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी पूरी दुनिया में सभी धर्मों व समुदायों के लोगों द्वारा मनाया जा रहा है। हालांकि करबला की घटना को आज 1400 से भी अधिक वर्षों का समय बीत चुका है। उसके बावजूद इस्लाम के इतिहास में इस घटना ने अपना वह स्थान बना लिया है जिसने कि इस्लाम के दो प्रमुख पहलूओं को उजागर किया है। एक तो सब्र,सच्चाई व कुर्बानी की इंतेहा दूसरा ज़ुल्म,क्रूरता असत्य तथा सत्ता के मोह का उत्कर्ष। इस्लाम धर्म के अनुयायी जहां अपने आखिरी नबी हज़रत मोहम्मद के इसलिए हमेशा आभारी रहेंगे कि उन्होंने इस्लामी उसूलों व सिद्धांतों पर चलते हुए प्रेम, सद्भाव, समानता व समरसता जैसे संदेश इस्लाम के माध्यम से प्रसारित करने की कोशिश की। वहीं इस्लाम को संरक्षण देने के लिए करबला के मैदान में हुई हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों की शहादत को भी उसी प्रकार हमेशा याद किया जाता रहेगा। क्योंकि करबला के मैदान में ही दसवीं मोहर्रम को हज़रत इमाम हुसैन ने अपनी व अपने परिजनों की कुर्बानियां देकर इस्लाम को राक्षसी प्रवृति के क्रूर सीरियाई शासक यज़ीद के हाथों में जाने से बचाया। शायद इसीलिए अजमेर शरीफ के महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती ने हज़रत इमाम हुसैन की शान में फारसी भाषा में यह चार पंक्तियां कही थीं जो आज अजमेर की दरगाह के मुख्य द्वार पर सुनहरे अक्षरों में लिखी हुई हैं। ख्वाज़ा गरीब नवाज़ फरमाते हैं

शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन।

दीन अस्त हुसैन दीँ पनाह अस्त हुसैन।।

सरदार नादाद दर्द दर दस्त-ए-यज़ीद।

हक्का कि बिनाए ला-इलाह अस्त हुसैन।।

उपरोक्त पंक्तियों का आज के दौर में और भी महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि आज इत्तेफाक से मुस्लिम माता-पिता के घरों में पैदा हुए तमाम कथित मुस्लिम लोग राजनैतिक व सांप्रदायिक पूर्वाग्रह रखते हुए तथा तमाम गैर ज़रूरी रूढ़ीवादी रीति-रिवाजो व परंपराओं का अनुसरण करते हुए इस्लाम धर्म को अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी ताकतें जिन्हें हम आज कहीं अलकायदा के नाम से जानते हैं तो कहीं तालिबान, तहरीक-ए-तालिबान,जमात-उद-दावा, जैशे मोहम्मद, लश्करे तैयबा, अलशबाब या सिपाहेसहाबा व लश्करे झांगवी आदि संगठनों के नाम से जानते हैं या इन जैसी सभी ता$कतें बेशक अपने-आप को इस्लाम का रखवाला या इस्लाम की स्वयंभू ठेकेदार या पहरेदार क्यों न समझती हों। परंतु हकीकत में इनके कारनामे पूरी तरह इस्लाम विरोधी या गैर इस्लामी हैं। जिस प्रकार यह खून-खराबे,कत्लोगारत, मानव बम का प्रयोग कर दरगाहों, मस्जिदों व इमामबाड़ों तथा स्कूलों को तहस-नहस कर इस्लाम के नाम का झंडा बुलंद करना चाहते हैं वह किसी भी कीमत पर किसी भी समझदार व मानवताप्रिय व्यक्ति द्वारा इस्लामी तो क्या इन्सानी कृत्य भी नहीं कहा जा सकता। हां इन वहशी व अमानवीय प्रवृति के लोगों की दरिंदगीपूर्ण कार्रवाईयां करबला में यज़ीदी फौज द्वारा अमल में लाई गई वहशियानी कार्रवाई की यादें ज़रूर ताज़ा कर देती हैं। क्योंकि करबला में एक ओर यदि स्वयं को मुसलमान कहने वाला सीरियाई शासक यज़ीद अपनी लाखों की ज़ालिम फौज लेकर स्वयं को इस्लामी शासक प्रमाणित करने का प्रयास करते हुए हज़रत मोहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन को उनके परिवार के सदस्यों सहित कत्ल करने की योजना बना चुका था तो वहीं दूसरी ओर हज़रत इमाम हुसैन भी हज़रत मोहम्मद के उत्तराधिकारी होने के नाते अपनी व अपने परिवार के सदस्यों की कुर्बानी देकर दुनिया को यह बताना चाहते थे कि वास्तविक इस्लाम दरअसल वह नहीं जो यज़ीद के दर पर देखने को मिल रहा है बल्कि वास्तविक इस्लाम वह है जो हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों द्वारा करबला के मैदान में अपनी जान देकर सुरक्षित व संरक्षित किया जा रहा है। और यही वजह है कि गरीब नवाज़ ने हुसैन को केवल दीन ही नहीं बल्कि दीन को पनाह देने वाला महान शहीद भी करार दिया है।

इराक के प्रसिद्ध शहर करबला के मैदान में 14 सदी पूर्व जहां क्रूरता की अब तक की सबसे बड़ी मिसाल यज़ीद व उसकी सेना द्वारा $कायम की गई वहीं हुसैन व उनके साथियों ने इसी मैदान में त्याग,तपस्या व कुर्बानी का भी जो इतिहास रचा उसकी दूसरी मिसाल आज तक देखने को नहीं मिली। यज़ीद ने हज़रत हुसैन के जिन 72 साथियों को मैदान-ए-करबला मे शहीद किया उनमें हज़रत इमाम हुसैन का मात्र 6 महीने का बच्चा अली असगर भी शामिल था। वह बच्चा भी अपने पूरे परिवार के साथ तीन दिन का भूखा व प्यासा था। जब हज़रत हुसैन अली असगर की प्यास की शिद्दत को सहन न कर सके तब वे उसे अपनी गोद में लेकर उसके लिए पानी मांगने मैदान में आए। क्रूर यज़ीदी लश्कर के एक सिपहसालार ने उस मासूम बच्चे को पानी देने के बजाए उसके गले पर तीर चलाकर उसे हज़रत हुसैन की ही गोद में शहीद कर दिया। आतंकवाद व निर्दयता की ऐसी दूसरी मिसाल करबला के सिवा और कहां मिल सकती है? ज़रा कल्पना कीजिए कि जिस अली अस$गर की मां से हज़रत हुसैन उनका बच्चा इस वादे के साथ गोद में लेकर मैदान-ए-जंग में गए हों कि वे अभी उसे पानी पिलाकर वापस ला रहे हैं। और बाद में वही हज़रत हुसैन अपने उस मासूम बच्चे को कब्र में दफन कर अपने परिवार की महिला सदस्यों के कैंप में खाली हाथ वापस गए हों और अपना लहू से लथपथ शरीर दिखाते हुए उन्होंने अली असगर के कत्ल की दास्तान सुनाई हो उस स्थान पर कैसी दर्दनाक स्थिति रही होगी?

विडंबना तो इसी बात की है कि इस पूरे घटनाक्रम में दोनों ही पक्ष मुस्लिम समुदाय से संबंधित थे तथा दोनों ही पक्षों के दावे यही थे कि वे ही सच्चे व वास्तविक इस्लाम के पैरोकार हैं। करबला की घटना से एक बात और स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम धर्म के नाम का इस्तेमाल जब-जब साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा, शासकों द्वारा, अपनी सत्ता का विस्तार करने वाले लोगों के द्वारा, आक्रमणकारी व लुटेरे प्रवृति के राजाओं द्वारा किया गया है तब-तब इस्लाम का वैसा ही भयावह चेहरा सामने आया है जैसाकि आज दुनिया के विभिन्न देशों में दिखाई दे रहा है। और जब-जब यह इस्लाम पैगंबरों,इमामों, वलियों, सूफियों व फकीरों के दरों से होकर गुज़रा है तो कहीं उसे करबला ने पनाह दी है तो कहीं नजफ व मदीने की गलियों में इसने संरक्षण पाया है। और सिर चढक़र बोलने वाला इस्लाम का यही जादू आज भी दुनिया की तमाम मजिस्दों,खानक़ाहों, दरगाहों व इमामबाड़ों की रौनक़ बना हुआ है तथा दुनिया को प्रेम व भाईचारे का संदेश दे रहा है। जबकि शहनशाहों व सत्तालोभियों का इस्लाम कहीं गुफाओं में पनाह लेता फिर रहा है तो कहीं दूसरे देशों द्वारा प्रतिबंधित किया जा रहा है। कहीं गुप्त कमरों में बैठकें करता फिर रहा है तो कहीं जगलों में आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर संचालित कर रहा है। वास्तविक इस्लाम को पनाह देने वाले हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद में आज जब कहीं सडक़ों पर उनके नाम का मर्सिया पढ़ते या उनकी कुर्बानी को याद कर रोते-पीटते जुलूस की शक्ल में जब लोग निकलते हैं तो आतंकी इस्लाम का कोई प्रशिक्षित प्रतिनिधि जो कि आत्मघाती बम के रूप में खुद को तो तबाह करता ही है साथ-साथ हुसैन का गम मनाने वाले कई लोगों की भी जान ले बैठता है।

हज़रत हुसैन की कुर्बानी हमें 1400 वर्षों से बार-बार इस बात की याद दिलाती रहती है कि इस्लाम अपनी शहादत देकर दीन को अयोग्य, ज़ालिम, क्रूर,अधार्मिक व अपवित्र लोगों के हाथों में जाने से रोकने का नाम है। बेगुनाहों को बेवजह कत्ल करना इस्लाम हरगिज़ नहीं। लोगों में शिक्षा का प्रसार कर ज्ञान का दीप जलाना इस्लाम की पहचान है। स्कूलों व विद्यालयों को ध्वस्त कर अंधकार फैलाना इस्लाम हरगिज़ नहीं। औरतों की इज़्ज़त-आबरू व उनके पर्दे की रक्षा करने का नाम इस्लाम है। औरतों को गोली से उड़ाने,उनपर सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाने तथा उन्हें शिक्षा हेतु स्कूलों में जाने से रोकने का नाम इस्लाम नहीं। कुल मिलाकर हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि वास्तविक इस्लामी शिक्षाओं की सीख हमें हुसैनियत की राह पर चलने व उनसे प्रेरणा प्राप्त करने से मिल सकती है। जबकि यज़ीदियत से प्रेरणा हासिल करने वाला इस्लाम कल भी वही था जो करबला में यज़ीदी पक्ष की ओर से क्रूरता की इंतेहा करते हुए दिखाई दे रहा था और आज भी वही है जो लगभग पूरे विश्व में आतंकवाद, अत्याचार तथा बर्बरता का पर्याय बना हुआ है।

1 COMMENT

  1. whatever you may write but it does not convince the people at large because what you see everyday cannot be denied and it is against Islam.
    According to media Islam has become synonymous with terror, rape, gang-rape, highjack, loot, plunder, kidnapp, smuggling, women and child abuse, forced marriage, honour killings, killing of innocent, betraying,production of fake currencies, illegal immigration, suicide bombing and various crimes and Muslims are more in jails of foreign countries , against education and freedom of expression etcs——–
    How will you change this scene?

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