राष्ट्रधर्म के ओजस्वी कवि दिनकर

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राष्ट्रीय चेतना के मंत्र हैं उनकी रचनाएं

dinkar jiअनिता महेचा

मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रथम राष्ट्र कवि थे तो दिनकर उनके सच्चे उत्तराधिकारी थे। गुप्तजी की राष्ट्रीयता में सांस्कृतिक तत्व गहरा था, उसी का एक व्यापक पक्ष हमें दिनकर  के काव्य में दृष्टिगत होता है। दिनकर ने प्रारंभ से ही ओजस्विता एवं तेजस्विता से परिपूर्ण कविताएं लिखी। उनकी कविताओं में योद्धा सा गंभीर घोष है, अनल की सी तीव्र उष्मा है और सूर्य का सा प्रखर तेज है। दिनकर ने 14 वर्ष की आयु में अपना पहला गीत लिखा था। आप को राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री से राष्ट्र प्रेम, स्वदेशानुराग एवं राष्ट्र भाषा की चिंगारी प्राप्त हुई थी तथा माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘‘नवीन‘‘ आदि तत्कालीन कवियों से ओजस्वी काव्य की प्रेरणा मिली। गुप्तजी के बाद राष्ट्रीयता की सम्यक और प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति दिनकर के काव्य में परिलक्षित होती है।

प्रगतिशील चेतना के संवाहक, राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचारक और क्रांतिदृष्टा दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के एक छोटे से गांव सिमरिया नामक स्थान पर सन 1908 में 30 सितम्बर को हुआ। उनके पिता रविनाथ सिंह का देहावसान रामधारी सिंह के जन्म के दो वर्ष के पश्चात् हो गया।

पिता की स्मृति में रखा दिनकर नाम

अपने पिता के नाम को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए रामधारी सिंह ने अपना उपनाम ‘‘ दिनकर‘‘ रखा। पिता का  साया शीघ्र ही सिर से उठ जाने के कारण दिनकर का बचपन अधिक सुख से नहीं बीता।  साधारण से किसान परिवार में पैदा होकर भी उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा से प्रमाणित कर दिया कि प्रतिभा और विद्वत्ता किसी वर्ग विशेष की विरासत नहीं है। दिनकर की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत से प्रांरभ हुई। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में ग्रहण की। तत्पश्चात ‘बारी‘ नामक ग्राम के ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल‘ से मिडिल,‘ मोकामा घाट‘ के हाई स्कूल से सन् 1928 में मैट्रिक तथा 1932 में पटना कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। सन् 1934 में वे बिहार सरकार के सब-रजिस्ट्रार के पद पर आसीन हुए। सन् 1943 तक वे इसी पद पर कार्यरत रहे। सन् 1943 से 1947 तक वे बिहार सरकार के प्रचार विभाग में उपनिदेशक पद पर आसीन रहे। सन् 1950 में वे मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए। लेकिन सन 1962 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हो जाने के कारण उन्हांने  यह पद त्याग दिया। अब वे मुक्त व मुखर होकर कवि, आलोचक और राजनीतिक रूप का प्रभाव दिखाने लगे।

हिन्दी जगत की सेवा को समर्पित

सन् 1964 में वे भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए, बाद में केन्द्रीय सरकार की हिन्दी सलाहकार परिषद् के अध्यक्ष बने और देश में हिन्दी लागू करने के प्रयासों में जुटे रहे। सन् 1959 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित किया गया। उनकी प्रशंसनीय साहित्य-सेवाओं के उपलक्ष्य में भागलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। उनके ‘ऊर्वशी‘ काव्य ग्रंथ पर उन्हें 1973 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया।

राष्ट्रीय चेतना के सशक्त संवाहक

दिनकर की काव्य यात्रा की कहानी बड़ी विचित्र और अद्भुत रही है। वे मूलतः राष्ट्रीय भावों के संवाहक और मानवतावादी विचारों को अभिव्यक्ति देने वाले प्रतिभाशाली कवि थे। उनका साहित्य परिमाण और गुणों में विपुल और महान् है। उनकी काव्यकृतियों में – ‘बारदोली विजय‘, ‘रेणुका‘, ‘हुंकार‘, ‘रसवन्ती‘, ‘द्वन्द्व गीत‘, ‘सामधेनी‘, ‘बापू‘, ‘इतिहास के आंसू‘, ‘दिल्ली‘, ‘धूप और धुआँ‘, ‘नील कुसम‘, ‘नीम के पत्ते‘, ‘ सीपी और शंख‘, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा‘, ‘कोयला और कवित्व‘ आदि विशेष उल्ल्ेाखनीय हैं। ‘प्रणभंग‘, ‘कुरुक्षेत्र‘, ‘रश्मिरथी‘, और ‘ऊर्वशी‘ उनके प्रबंध काव्य हैं। उनकी चुनी हुई कविताएं चक्रवाल में संग्रहीत हैं।

संवेदनशीलता का भरपूर समावेश है सृजन में

‘रेणुका‘, ‘हुंकार‘, ‘रसवन्ती‘ में एक ओर छायावादी रोमानियत, मधुर कल्पना व भावुकता मिलती है तो दूसरी ओर प्रगतिवादी सामाजिक चेतना। ‘रेणुका‘ में अतीत के प्रति गहरा आकर्षण है। ‘हुंकार‘ में कवि दीनता और विपन्नता के प्रति  दयाद्र्र हो गया है। ‘रसवन्ती ‘ में कवि सौन्दर्य का प्रेमी बन गया है। ‘द्वन्द्व- गीत‘ में कवि के अन्तर्जगत और बाह्य-जगत का द्वन्द है। ‘सामधेनी‘ में कवि धीरे-धीरे क्रान्ति से शांति की ओर आता दिखाई देता है। कुरुक्षेत्र में कवि का शंकालु मन, समस्यानुकूल और प्रश्नानुकूल हो गया है। ‘रश्मिरथी‘ में कवि की नई विचारधारा यह है कि व्यक्ति की पूजा उसके गुणाें के कारण होनी चाहिए। ‘नील-कमल‘ की कविताओं में प्रयोगशीलता का पुट है। कोयला और कवित्त में कवि ने कला और धर्म के सामंजस्य पर विशेष रूप से बल दिया है।

गद्य और पद्य दोनों में अपूर्व रचनाधर्म

दिनकरजी  मुख्य रूप से कवि हैं किन्तु उन्होंने गद्य  साहित्य का भी यथेष्ट निर्माण किया है। इस सम्बन्ध में उनकी ‘मिट्टी की ओर‘, ‘अद्र्ध-नारीश्वर‘, ‘काव्य की भूमिका‘, ‘शुद्ध कविता की खोज‘, ‘संस्कृति के चार अध्याय‘, ‘हमारी सांस्कृतिक एकता‘, ‘धर्म-नैतिकता और विज्ञान‘ आदि गद्य रचनाएं अत्यन्त महत्त्व की  एवं भाव पूर्ण हैं। इन रचनाओं में उनके गंभीर अध्ययन एवं स्वतंत्र चिन्तन की छाप सर्वत्र दृष्टिगत होती है। इनकी महत्ता और लोकप्रियता का अन्दाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि उनकी कुछ कृतियों का अनुवाद उड़िया, कन्नड़, तेलगु, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी आदि कई भाषाओं में हो चुका है।

इतना ही नहीं, सन् 1955 में पोलैन्ड, लन्दन, जिनेवा, पेरिस और काहिरा, 1957 में चीन, हांगकांग, बैंकाक और बर्मा, 1961 में रूस,1967 में मॉरीशस तथा 1968 पश्चिम जर्मनी की यात्रा के समय सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रतिनिधित्व किया। इससे राष्ट्र के सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गौरव-गरिमा में वृद्धि हुई, साथ ही उन्हें विदेशों में पर्याप्त प्रतिष्ठा और ख्याति अर्जित करने का सौभाग्य  प्राप्त हुआ। सन् 1974 में 24 अप्रेल को अस्पताल में ही दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।

रचनाओं से झरता है राष्ट्रीय ओज

दिनकर के काव्य में पौरुष और ओज को प्रमुख स्थान प्राप्त है। उनकी राष्ट्रीयता से भरी-पूरी भावना में उत्साह, पौरुष व प्रतिशोध के भाव बहुत गहरे तक समाये हुए हैं। दिनकर ओज व पौरुष के कवि हैं और उनकी रचनाएँ इन भावों की अजस्र सरणियाँ बहाती हैं –

लेना अनल-किरीट भाल पर आशिक होने वाले।

काल कूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोने वाले।

राष्ट्रपुरुष के ओज को संकेतित करने वाले दिनकर तलवार की चमक मे पौरुष का प्रतिबिम्ब देखते हैं। वास्तव में दिनकर राष्ट्र धर्म के ओजस्वी कवि रहे हैं। क्रान्ति का स्वर उनकी ‘कस्मे दैवाय…‘ कविता में इन पंक्तियों में सुना जा सकता है –

क्रान्ति धात्रि, कविते जाग उठ, आडमबर में आग लगा के।

पतन, पाप, पाखण्ड जले जग में ऎसी ज्वाला सुलगा दे।

       युगों तक गूंजेगी राष्ट्रीयता की चेतना ऋचाएं

दिनकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी के गद्य और पद्य साहित्य में समान अधिकार से लिखने वाले युग चेता और जनप्रिय रचनाकार के रूप में सदैव अविस्मरणीय बने रहेंगे। वे सच्चे राष्ट्रीय कवि थे। उन्होंने अधिकांश ऎसी कविताओं का  सृजन किया है जो जनजीवन को शौर्य, पराक्रम और वीरता से परिपूर्ण कर राष्ट्रीयता का अमर मंत्र फूंकने में सक्षम हैं। दिनकर की कालजयी रचनाएँ युगों तक शौर्य-पराक्रम और स्वतंत्र्य चेतना का उद्घोष करती रहेंगी।

1 COMMENT

  1. He was popularly known as Dinkarjee to all .He was a towering personality, very tall and handsome . He spoke very forcefully with care and respect to all. I as a child [in 1952]recited one of his poems to [Neend]ohim while traveling from Mahendrughat Ptna] to Pahleza ghat in Bihar on way to Muzaffarpur by boat with my father who new him well . Later I met him as a medical student while walking in North Avenue , New Delhi , when he was M.P. then he kindly took us in his Bunglow and offered us tea and to my surprise he asked me if I could recite the same poem again and I did.
    JIS NE AVISHKAAR KIYA HAI NIDRA KA US KI JAI HO—
    He was pleased and blessed me.
    I cannot forget Dinkarjee . he was a great patriot, author, orator, poet ,his writing will inspire us for ever.
    TUNE DIYA DES KO JEEVAN DES TUMHE KYA DEGA,
    APANI AAG JALA RAKHANE KO NAAM TUMHARA LEGA.—-DINKARJEE.

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