कागजों पर ही है आपदा प्रबंधन!

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लिमटी खरे

साल में कम से कम तीन से चार बार हर जिले में आपदा प्रबंधन के संबंध में जनसंपर्क कार्यालयों के जरिए विज्ञप्तियां जारी की जाती हैं। बारिश के दौरान तो विशेषकर इस तरह की कवायद होती है। देश में आपदा प्रबंधन के नाम पर एक बड़ा विभाग भी कार्यरत है। 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम भी बनाया गया। इसके बनने के डेढ़ दशक बाद भी स्थितियों में अपेक्षित सुधार महसूस नहीं किया जा रहा है।

हाल ही में बंगाल की खाड़ी में एक चक्रवाती तूफान अस्तित्व में आया। जान माल को भारी भरकम नुकसान पहुंचाकर इसने बिदाई भी ले ली। सांप निकलने के बाद लकीर पीटने की तरह ही अब रटी रटाई बातें हुक्मरानों के द्वारा कही जा रही है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता, किन्तु इससे होने वाले जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।

बात सिर्फ इस चक्रवाती तूफान की नहीं है। हर साल बाढ़ की विभीषिका देश के अनेक राज्य भोगते हैं। बिहार में कोसी नदी का कहर किसी से छिपा नहीं है। कभी अतिवृष्टि होती है तो कभी भूकंप से धरती थर्राती है, तो कभी अल्पवर्षा का भोगमान देश के किसानों को भोगना पड़ता है। केदारनाथ में मची तबाही लोगों के जेहन में अभी ताजा ही होगी।

यह बात आईने की तरह साफ है कि इस तरह के नियम कायदे कानून बनाए जाने से शायद परिवर्तन आने वाला नहीं है। इस तरह की कवायदों से तो महज कागजों पर ही आपदा प्रबंधन होता दिखता है। आलम यह होता है कि जब भी किसी तरह की आपदा सर पर आती है तब हमारे हुक्मरान जागते हैं और फिर पता चलता है कि इस आपदा से मुकाबले के लिए हमारी तैयारी अभी अधूरी ही है।

लगभग हर दशक में आने वाले चक्रवाती तूफानों से निपटने के लिए राहत दल भी बनाए गए हैं। आपदा प्राधिकरण बनाए जाने के साथ ही यह लग रहा था कि उसके बाद आने वाले तूफानों या अन्य आपदाओं के दौरान सरकारी सिस्टम देश को चाक चौबंद रखेगा। यह उम्मीद भी की जा रही थी कि इस तरह की आपदाओं के आने से पहले इससे किस तरह की समस्याएं पैदा हो सकती हैं! उसके लिए राहत बचाव हेतु क्या किया जा सकता है इसका एक खाका या रोडमैप तो कम से कम तैयार किया ही जा सकता  है।

बात अगर वैश्विक महामारियों की हो तो एक सदी में एकाध बार ही इस तरह की महामारी से लोग दो चार होते हैं। इस तरह का संकट देश में लगभग एक सदी के बाद ही आया है। लगभग दो से तीन पीढ़ियों के द्वारा इस तरह के संकट के बारे में महज किताबों में ही पढ़ा है। प्रशासनिक लोग दावा कर सकते हैं कि आजाद भारत में इस तरह का संकट पहली बार आया है इसलिए वे इससे अनजान हैं। जमीनी हकीकत देखी जाए तो शायद उनकी बात सिरे से खारिज करने योग्य मानी जा सकती है।

अगर हम बात कोरोना कोविड 19 के संक्रमण की करें तो जनवरी में ही इस मामले में देश को पता चल गया था। इसके बाद मार्च में पूर्ण बंदी के पहले तक देश में तैयारियों के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ था। यहां तक कि होली के पर्व पर जिलों के आला अधिकारियों के निवास पर आयोजित होली मिलन समारोहों में भी मास्क का उपयोग नहीं किया गया था।

कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश में एक राज्य से दूसरे राज्य में उदरपोषण या आजीविका कमाने गए कामगार को प्रवासी की संज्ञा दी जा रही है! मार्च माह में टोटल लॉक डाऊन के बाद देश की तंद्रा टूटी। देश के अंदर ही रहने वाला मजदूर इसके बाद ही अपने अपने घरों के लिए निकल पड़ा। आपदा प्रबंधन के लिए बने संगठनों के द्वारा अगर इस दृष्टिकोण पर विचार कर सरकार के समक्ष बात रखी जाती तो निश्चित तौर पर सरकार के द्वारा लिए जाने वाले फैसलों एवं किए जाने वाले इंतजामात का स्वरूप कुछ और ही होता।

यह सिर्फ कामगारों की बात ही नहीं है। चिकित्सा के क्षेत्र में हम कितने समृद्ध हैं इसका आंकलन भी समय समय पर किया जाना जरूरी था। स्वास्थ्य के मामले में कभी भी अपदा की स्थिति निर्मित हो सकती है। इस लिहाज से आजादी के सात दशकों में अब तक देश को कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में तो समृद्ध कर ही लिया जाना चाहिए था। कोरोना की अपदा आने के बाद ही पता चल पाया कि स्वास्थ्य के मामले में हम कितने पानी में हैं। न हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं, न उपकरण न चिकित्सक!

देश में नीति निर्धारक भले ही नेताओं को माना जाता हो पर प्रशासनिक तंत्र ही उन्हें नीतियों के बारे में न केवल बताता है वरन अपने हिसाब से व्याख्या भी करता है। जब प्रशासनिक तंत्र ही हर साल आने वाली छोटी मोटी आपदाओं की तैयारी में जिला स्तर पर ही व्यवस्थाएं पुख्ता नहीं कर पता है तो यह उम्मीद कैसे की जाए कि कोरोना या अम्फान जैसी अचानक आने वाली आपदाओं से यह तंत्र देश को पूरी तरह चाक चौबंद रख पाएगा। इन आपदाओं से सबक लेने की जरूरत है, ये बातें सदा ही कही जाती हैं पर इन आपदाओं से सबक लेना कब आरंभ किया जाएगा यह बात भविष्य के गर्भ में ही है!

आप अपने घरों में रहें, घरों से बाहर न निकलें, सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात सामाजिक दूरी को बरकरार रखें, शासन, प्रशासन के द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों का कड़ाई से पालन करते हुए घर पर ही रहें।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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