370 पर विमर्श क्यों नहीं

-अरविंद जयतिलक-
article 370

प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह द्वारा अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बयान के बाद पर सियासत गरमा गयी है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला ने धमकी दी है कि या तो अनुच्छेद 370 मौजूद रहेगा या जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा। उधर, संघ परिवार ने भी उमर अब्दुला पर निशाना साधते हुए पलटवार किया कि जम्मू-कश्मीर उनकी जागीर नहीं। यह भारत का अभिन्न अंग था और हमेशा रहेगा। उमर अब्दुला का बयान जाहिर करता है कि वह जम्मू-कश्मीर को अपनी मिल्कियत समझते हैं और मान बैठे हैं कि उनके रहमो करम पर ही वह भारत का अंग है। उनकी यह प्रवृत्ति सामंती और विभाजनकारी है। साथ ही भारतीय संसद के उस सर्वसम्मत प्रस्ताव का अपमान भी जिसमें जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग कहा गया है। उमर अब्दुला की दलील दी है कि अनुच्छेद 370 भारत से जम्मू-कश्मीर से जुड़ने की एकमात्र शर्त है। लेकिन यह सही नहीं है। उन्हें समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर दिया गया था, न कि यह स्थायी प्रबंध था। उनके पिता के पिता यानी शेख अब्दुला ने जब इस प्रावधान को संविधान में स्थायी प्रबंध की मांग की तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने ठुकरा दिया। यानी यह प्रावधान सीमित अवधि के लिए था। आज जब महसूस किया जा रहा है कि अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर के विकास में बाधक है और इससे अलगाववादी शक्तियां ही मजबूत हो रही हैं तो फिर इस पर बहस क्यों नहीं होनी चाहिए? लेकिन अब्दुल्ला परिवार को यह मंजूर नहीं। जबकि वह अच्छी तरह अवगत है कि अनुच्छेद 370 कश्मीरियों के विकास से ज्यादा समस्याएं पैदा की हैं। इस संवैधानिक विशेषाधिकार की वजह से ही कश्मीरी पंडितों का सारा संवैधानिक अधिकार छिन गया है और वे दिल्ली में खानाबदोशों की तरह जीवन गुजार रहे हैं। इस हालात के लिए अब्दुला परिवार और कांग्रेस दोनों जिम्मेदार हैं। फारुख अब्दुला के पिता शेख अब्दुल्ला के शासन में ऐसी नीतियां बनी जिससे कश्मीरी पंडितों का अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया। शेख अब्दुल्ला ने दमनकारी नीति ‘बिग लैंड एबोलिशन एक्ट’ पारित कर हिंदुओं को भरपूर नुकसान पहुंचाया। इस कानून के तहत हिंदू मालिकों को बिना हर्जाना दिए ही उनकी कृशि योग्य भूमि छीनकर जोतने वालों को सौंप दी गयी। हिंदुओं ने मुसलमानों को जो कर्ज दे रखा था उसे भी सरकार ने ‘ऋण निरस्तीकरण योजना’ के तहत समाप्त कर दिया। सरकारी सेवाओं में आरक्षण सुनिश्चित कर घाटी के हिंदुओं को सिर्फ 5 फीसद स्थान दिया गया। प्रकट रूप से सरकारी नौकरियों में हिंदुओं पर पाबंदी थी। इसके चलते हिंदुओं को न सिर्फ बेरोजगार होना पड़ा, बल्कि घाटी छोड़ने के लिए भी मजबूर होना पड़ा। शेख अब्दुला की गिरफ्तारी के बाद उनके रिश्तेदार गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने 20 माह के शासन में घाटी में कश्मीरी पंडितों पर खूब जुल्म ढ़ाया। जनमत संग्रह मोर्चा गठित कर आत्मनिर्धारण के अधिकार का प्रस्ताव रखा। पाठ्य पुस्तकों में हिंदुओं के खिलाफ नफरत पैदा करने वाले विशय रखे। पंथनिरपेक्षता के विचार को तहस-नहस किया। पूजा स्थलों व धर्मशालाओं को नष्ट किया। कश्मीरी पंडित सिर्फ इसलिए निशाना बनाए गए कि वे ईमानदार और देशभक्त थे। शाह के समय ही 19 जनवरी 1990 को बड़े पैमाने पर घाटी में कष्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ। रालिव, गालिव और चालिव का नारा दिया गया। यानी कश्मीरी पंडित धर्मांतरण करें, मरें या चले जाएं। यही नहीं हिंदुओं के 300 गांवों के नाम बदलकर इस्लामपुरा, शेखपुरा और मोहम्मदपुरा कर दिया गया। हिंदुओं के समतल कृषि भूमि को वक्फ के सुपुर्द किया गया। अनंतनाग जिले की उमा नगरी जहां ढ़ाई सौ हिंदू परिवार रहते थे उसका नाम शेखपूरा कर दिया गया। क्या यही कश्मीरियत है? आखिर इस पर गर्व कैसे किया जा सकता है? कश्मीर सूफी परंपरा की धरती रही है। यह परंपरा कश्मीरी इस्लाम को हिंदुओं के प्रति सहिष्णु बनाती है। लेकिन यहां के हुक्कामों ने कभी भी सहिष्णुता का परिचय नहीं दिया। अगर आजादी के बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान नहीं जोड़ा गया होता तो जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार नहीं होते और न ही कश्मीरी पंडितों को अपनी धरती नहीं छोड़नी पड़ती। इस स्थिति के लिए कांग्रेस भी बराबर की गुनाहगार है। यह प्रधानमंत्री पंडित नेहरु की भूल रही जो उन्होंने भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान किया। जबकि न्यायाधीश डीडी बसु ने इस अनुच्छेद को संविधान विरुद्ध और राजनीति से प्रेरित कहा था। खुद डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसका विरोध किया और इस अनुच्छेद को जोड़ने से मना किया। किंतु प्रधानमंत्री नेहरु नहीं मानें और रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्टूबर 1949 को प्रस्ताव रखवाकर कष्मीर के लिए अलग संविधान की स्वीकृति दे दी। उस समय देष के महान नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान और दो निषान के विरुद्ध देषव्यापी आंदोलन किया। परिमट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए। लेकिन एक साजिष के तहत जेल में ही उनकी हत्या कर दी गयी। अनुच्छेद 370 के कारण ही आजादी के साढ़े छः दशक बाद भी भारतीय संविधान जम्मू-कश्मीर तक नहीं पहुंच पाया है। आज भी जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान, विधान और निशान है। जम्मू-कष्मीर के उच्च न्यायालय के पास सीमित षक्तियां हैं। वह जम्मू-कश्मीर के कोई भी कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकती, न ही कोई रिट इष्यू कर सकती है। अगर जम्मू-कष्मीर की सरकार राश्ट्रीय एकता और अखंडता के खिलाफ कार्य करती है तो भी राश्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है। संविधान की धारा 356 और धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है वह जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता। 1976 का शहरी भूमि कानून भी यहां लागू नहीं। यानी यहां भारत के दूसरे राज्यों के लोग जमीन खरीद कर बस नहीं सकते और न ही कोई उद्योग-धंधा लगा सकते। भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची जो अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रषासन और नियंत्रण से संबंधित है और छठी अनुसूची जो जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विशय में है वह भी जम्मू-कष्मीर पर लागू नहीं होती। देष भर में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के लोगों को सरकारी सेवाओं और व्यवस्थापिका में आरक्षण हासिल है। लेकिन जम्मू-कश्मीर का यह वर्ग अपने अधिकारों से वंचित है। यही नहीं यहां की आधी आबादी यानी महिलाओं को भी पुरुशों के बराबर अधिकार हासिल नहीं है। धारा 370 के तहत यह व्यवस्था है कि अगर कोई कष्मीरी लड़की किसी गैर-कष्मीरी भारतीय लड़के के साथ विवाह करती है तो उसे कष्मीर की नागरिकता से वंचित ही नहीं, सभी अधिकारों से भी हाथ धोना पड़ेगा। आखिर यह किस तरह का न्याय है? सच तो यह है कि धारा 370 के प्रावधान से न केवल जम्मू-कश्मीर का विकास अवरुद्ध हुआ है बल्कि इंसानियत भी लहूलुहान हुई है। अगर केंद्र की सरकार अनुच्छेद 370 की प्रासंगिकता पर विमर्श छेड़ती है तो यह स्वागतयोग्य है।

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