डीएनए कानूनः खुल जाएंगे जिंदगी के राज

डीएनए कानूनः खुल जाएंगे जिंदगी के राज
प्रमोद भार्गव
केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय को बताया है कि वह संसद के मानसून सत्र में डीएनए प्रोफाइलिंग बिल यानी, ‘मानव डीएनए सरंचना विधेयक‘ पेश करेगी। इस भरोसे के बाद न्यायालय ने गैर-सरकारी संगठन लोकनीति फाउंडेशन की 6 साल पुरानी जनहित याचिका का निपटारा कर दिया। इस याचिका में फाउंडेशन ने मांग की थी कि लावारिस शवों की डीएनए जांच का संग्रह हो, जिससे  गुमशुदा  लोगों से उसका मिलान करके मृतक व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित की जा सके। हमारी हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी जैसी धर्मनगरियों में हर साल मोक्ष के लिए आए लाखों में से सैंकड़ों लोग गुमनामी के कफन में दफन हो जाते है। इन लावारिस शवों की पहचान के लिए यह याचिका लगाई गई थी। इस नाते इस याचिका की पवित्रता पर संदेह करना बेमानी है।
अलबत्ता केंद्र सरकार इस बहाने जो ‘मानव संरचना डीएनए विधेयक-2015‘ ला रही है, उसके जरिए देश  के हर एक नागरिक का जीन आधारित कंप्यूटरीकृत डाटाबेस तैयार होगा और एक क्लिक पर  मनुष्य  की आंतरिक जैविक जानकारियां कंप्युटर स्क्रीन पर होंगी। लिहाजा इस विधेयक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में आम नागरिक के मूल अधिकारों में शामिल गोपनीयता के अधिकार का खुला उल्लंघन माना जा रहा है। इससे यह आशंका भी उत्पन्न हो रही है कि तकनीक आधारित इस डाटाबेस का दुरुपयोग स्वास्थ्य एवं उपचार, बीमा और प्रौद्योगिक उत्पादों से जुड़ी कंपनियां बाला-बाला लीक न करने लग जाएं। व्यक्ति की पहचान से जुड़े बहुउद्देशीय आधार कार्ड के साथ भी ये आशंकाएं जुड़ी थीं, जो अब सही साबित हो रही हैं। फेसबुक और ट्विटर ने भी ‘कैंब्रिज एनालिटिका‘ को गोपनीयता से जुड़ा उपभोक्ताओं का निजी डाटा बेचने का काम किया है। इन सच्चाईयों के परिप्रेक्ष्य में यदि डीएनए के नमूने भी लीक कर दिए जाते हैं तो यह व्यक्ति की जिंदगी के साथ आत्मघाती कदम होगा।
हालांकि इसे अस्तित्व में लाने के प्रमुख कारणों में अपराध पर नियंत्रण, शवों  की पहचान और बीमारी का रामबाण इलाज बताया जा रहा है। सवा अरब की आबादी और भिन्न-भिन्न नस्ल व जाति वाले देश  में कोई निर्विवाद व शंकाओं से परे डाटाबेस तैयार हो जाए यह अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि अब तक हम न तो विवादों से परे मतदाता पहचान पत्र बना पाए और न ही नागरिक को  विशिष्ट  पहचान देने का दावा करने वाला आधार कार्ड ? लिहाजा देश  के सभी लोगों की जीन आधाारित कुण्डली बना लेना भी एक दुश्कर व असंभव कार्य लगता है ?
विधेयक के सामने आए प्रारूप के पक्ष-विपक्ष संबंधी पहलुओं को जानने से पहले थोड़ा जीन कुण्डली की आतंरिक रूपरेखा जान लें। मानव- शरीर में डी आॅक्सीरिवोन्यूक्लिक एसिड यानी डीएनए नामक सर्पिल सरंचना अणु कोशिकाओं और गुण-सूत्रों का निर्माण करती है। जब गुण-सूत्र परस्पर समायोजन करते हैं तो एक पूरी संख्या 46 बनती है,जो एक संपूर्ण कोशिका का निर्माण करती है। इनमें 22 गुण-सूत्र एक जैसे होते हैं,किंतु एक भिन्न होता है। गुण-सूत्र की यही विशमता स्त्री अथवा पुरूष के लिंग का निर्धाररण करती है। डीएनए नामक यह जो मौलिक महारसायन है,इसी के माध्यम से बच्चे में माता-पिता के आनुवंशिक गुण-अवगुण स्थानांतरित होते हैं। वंशानुक्रम की यही वह बुनियादी भौतिक रासायनिक,जैविक तथा क्रियात्मक ईकाई है,जो एक जीन बनाती है। 25000 जीनों की संख्या मिलकर एक मानव जीनोम रचती है,जिसे इस विषय  के विषेशज्ञ पढ़कर व्यक्ति के आनुवांशिकी रहस्यों को किसी पहचान-पत्र की तरह पढ़ सकते हैं। मसलन यदि मानव-जीवन का खाका रिकाॅर्ड करने का कानून वजूद में आ जाता है तो व्यक्ति की निजता के अधिकार के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे ?
मानव-जीनोम तीन अरब रासायनिक रेखाओं का तंतु है,जो यह परिभाषित  करता है कि वास्तव में मनुष्य है क्या ? इसे पढ़ने के लिए 1980 में ‘मानव-जीनोम परियोजना‘ लाई गई थी। जिस पर 13,800 करोड़ रुपय खर्च हुए थे। इसमें  अंतरराष्ट्रीय जीव व रसायन विज्ञानियों की बड़ी संख्या में भागीदारी थी। भिन्न मोर्चों पर दायित्व संभालते हुए इन विज्ञानियों ने इस योजना को 2001 में अंजाम तक पहुंचाया। मुकाम पर पहुंचने के बाद आधुनिक जीव वैज्ञानिक आज कोशिकीय रसायन शास्त्र की जटिलता का विश्लेषण   करने में पर्दार्शीय  दक्षता का दावा करने लगे हैं। गोयाकि इस सफलता ने यह तय कर दिया कि जीव विज्ञान में रासायनिक विश्लेषण  से जैसे सभी समस्याओं का तकनीकी समाधान संभव है ?
ह्यूमन डीएनए प्रोफाइलिंग बिल 2015 लाने के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं कि डीएनए विश्लेषण से अपराध नियंत्रित होंगे। खोए, चुराए और अवैध संबंधों से पैदा संतान के माता-पिता का पता चल जाएगा। लावारिस लाशों  की पहचान होगी। इस बाबत देशव्यापी चर्चा में रहे नारायण दत्त तिवारी और उनके जैविक पुत्र रोहित शेखर तथा उत्तर प्रदेश  सरकार के सजायाफ्ता पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी व कवयित्रि मधुमिता शुक्ला के उदाहरण दिए जा सकते हैं। रोहित, तिवारी और उज्जवला शर्मा के नाजायज संबंधों का परिणाम था। तिवारी पूर्व से ही विवाहित थे,इसलिए रोहित को पुत्र के रूप में नहीं स्वीकार रहे थे। किंतु जब रोहित ने खुद को तिवारी एवं उज्जवला की जैविक संतान होने की चुनौती सर्वोच्च न्यायालय में दी और डीएनए जांच का दबाव बनाया, तो तिवारी ने हथियार डाल दिए। रोहित ने यह लड़ाई अपना सम्मान हासिल करने की  द्रष्टि से लड़ी थी, इसलिए पवित्र और वैद्य हक के लिए थी। इसी तरह अमरमणि नहीं स्वीकार रहे थे कि मधुमिता से उनके नजायाज संबंध थे। किंतु सीबीआई ने मृतक मधुमिता के गर्भ में पल रहे शिशु -भू्रण और अमरमणि का डीएनए टेस्ट कराया तो मजबूत जैविक साक्ष्य मिल गए। जिससे अमरमणि व उनकी पत्नी हत्या के प्रमुख दोषी  साबित हुए व आजीवन कारावास की सजा पाई। बहरहाल कानून बनाने से पहले ही अदालतें डीएनए जांच रिर्पोट के आधार पर फैसले दे रही हैं। लावारिस व पहचान छिपाने के नजरिए से कुरूपता में बदल दी गईं लाशों  की पहचान भी इस टेस्ट से संभव है। लेकिन इस संदर्भ में देश  की पूरी आबादी का जीन-बैंक बनाए जाने का कोई औचित्य समझ से परे है।
जीन बैंक में नस्ल और जाति के आधार पर भी आंकड़े एकत्रित करने का प्रावधान हैं। इस  द्रष्टि से दावा तो यह किया जा रहा है कि मानव समूहों के बीच नस्लीय भेदभाव के वंषाणु नहीं मिलते हैं। सभी नस्ल और जाति के मनुष्यों में 99.99 प्रतिषत गुण-सूत्र एक जैसे पाए गए हैं। इसीलिए जीव-विज्ञानी दावा कर रहे हैं कि आनुवंषिक समानताओं की व्याख्या करके यह  सुनिश्चित किया जा सकता है कि सबके पुर्खें एक थे,जो पूर्वी अफ्रीका में ड़ेढ़ लाख साल पहले हुए थे। इसके उलट सेंटर फाॅर सेल्युलर एंड माॅलिक्युलर बायोलाॅजी के पूर्व निदेशक लालजी सिंह पहले ही कह चुके हैं कि वैश्विक आनुवंशिक मानचित्र पर डीएनए की श्रृंखला भारत की आबादी से मेल नहीं खाती। अतः इनके बारे में माना जाता है कि ये 65 हजार साल पहले अस्तित्व में आई और ग्रेटर अंडमानी जनजातियों के कहीं ज्यादा निकट हैं, जो भारतीय हैं। यही सबसे प्राचीन ज्ञात मानव हैं। वैसे भी भारत में इतनी नस्लीय और जातीय विविधताएं हैं कि इनकी नस्ल और जाति आधारित डीएनए जांच का विश्लेषण भारत में जातिवाद को और पुख्ता ही करेगा। साथ ही,यह संदेह भी बना रहेगा कि जिस तरह ब्रिटिश  शासनकाल में कुछ जातियों को आपराधिक जाति का दर्जा दे दिया गया था,उनका वंषानुक्रम खोज कर यह साबित न कर दिया जाए कि इनमें तो अपराध के लक्षण वंषानुगत हैं। जबकि जाति और अपराध का परस्पर कोई संबंध नहीं है। यह स्थिति बनती है तो सामुदायिक हितों के प्रतिकूल होगी ।
जीन संबंधी परिणामों को सबसे अहम् चिकित्सा के क्षेत्र में माना जा रहा है। क्योंकि अभी तक यह शत-प्रतिशत तय नहीं हो सका है कि दवाएं किस तहर बीमारी का प्रतिरोध कर उपचार करती हैं। जाहिर है,अभी ज्यादातर दवाएं अनुमान के आधार पर रोगी को दी जाती हैं। जीन के सूक्ष्म परीक्षण से बीमारी की सार्थक दवा देने की उम्मीद बढ़ गई है। लिहाजा इससे चिकित्सा और जीव-विज्ञान के अनेक राज तो खुलेंगे ही,दवा उद्योग भी फले-फूलेगा। इसीलिए मानव-जीनोम से मिल रही सूचनाओं का दोहन करने के लिए दुनिया भर की दवा, बीमा और जीन-बैंक उपकरण निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियां अरबों का न केवल निवेश  कर रही हैं, बल्कि राज्य सत्ताओं पर जीन-बैंक बनाने का पर्याप्त दबाव भी बना रही हैं। आशंकाएं तो यहां तक है कि यही कंपनियां सामाजिक समस्याओं से जुड़े बहाने ढूंढकर अदालत में एनजीओ से याचिकाएं दाखिल कराती हैं।
हालांकि जीन की किस्मों का पता लगाकर मलेरिया, कैंसर, रक्तचाप, मधुमेह और दिल की बीमारियों से कहीं ज्यादा कारगर ढंग से इलाज किया जा सकेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन इस हेतु केवल बीमार व्यक्ति अपना डाटाबेस तैयार कराए, हरेक व्यक्ति का जीन डाटा इकट्ठा करने का क्या औचित्य है ? क्योंकि इसके नकारात्मक परिणाम भी देखने में आ सकते हैं। चुनांचे, यदि व्यक्ति की जीन-कुडंली से यह पता चल जाए कि व्यक्ति को भविष्य में फलां बीमारी हो सकती है,तो उसके विवाह में मुश्किल आएगी ? बीमा कंपनियां बीमा नहीं करेंगी और यदि व्यक्ति,एड्स से ग्रसित है तो रोग के उभरने से पहले ही उसका समाज से  बहिष्कार  होना तय है। गंभीर बीमारी की शंका वाले व्यक्ति को खासकर निजी कंपनियां नौकरी देने से भी वंचित कर देंगी। जाहिर है, निजता का यह उल्लंघन भविष्य में मानवाधिकारों के हनन का प्रमुख सबब बन सकता है ?
मानव डीएनए सरंचना विधेयक अस्तित्व में आ जाता है तो इसके क्रियान्वयन के लिए बड़ा ढांचागत निवेश भी करना होगा। डीएनए नमूने लेने, फिर परीक्षण करने और फिर डेटा संधारण के लिए देश भर में प्रयोगशालाएं बनानी होंगी। प्रयोगशालाओं से तैयार डेटा आंकड़ों को राष्टीय  व राज्य स्तर पर सुरक्षित रखने के लिए डीएनए डाटा-बैंक बनाने होंगे। जीनोम-कुण्डली बनाने के लिए ऐसे सुपर कंप्युटरों की जरूरत होगी, जो आज के सबसे तेज गति से चलने वाले कंप्युटर से भी हजार गुना अधिक गति से चल सकें। बावजूद महारसायन डीएनए में चलायमान वंषाणुओं की तुलनात्मक गणना मुष्किल है। इस ढांचागत व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए विधेयक के मसौदे में डीएनए प्राधिकरण के गठन का भी प्रावधान है। हमारे यहां कंप्यूटराइजेशन होने के पश्चात भी राजस्व-अभिलेख, बिसरा और रक्त संबंधी जांच-रिपोर्ट तथा आंकड़ों का रख-रखाव कतई विश्वसनीय व सुरक्षित नहीं है। भ्रष्टाचार के चलते जांच प्रतिवेदन व डेटा बदल दिए जाते हैं। ऐसी अवस्था में अनुवांशिक  रहस्यों की गलत जानकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक समरसता से खिलवाड़ कर सकती है। बावजूद निजी जेनेटिक परीक्षण को कानून के जरिए अनिवार्य बना देने में कंपनियां इसलिए लगी हैं, जिससे उपकरण और अनुवांशिक  सूचनाएं बेचकर मोटा मुनाफा कमाया जा सके ?

 

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  1. The DNA Based Technology (Use and Regulation) Bill, 2017 के सन्दर्भ में प्रमोद भार्गव जी द्वारा प्रस्तुत सामायिक लेख स्वयं विषय पर सारगर्भित एवं कुशल विचार है| प्रश्न उठेंगे तो ही उत्तर की संभावना बनेगी| जहां तक गोपनीयता के उल्लंघन का प्रश्न है, हमें अंग्रेजी भाषा में लिखे विधेयक को विकसित पाश्चात्य देशों जहां शासक और शासित में समन्वय द्वारा उत्पन्न समृद्ध समाज में गोपनोयता उनका मानव अधिकार है के नहीं बल्कि नंगी नहाए क्या निचोड़े क्या के सन्दर्भ में सोचना होगा| पिछले सत्तर वर्षों में नंगी नहाए क्या निचोड़े क्या की लोकोक्ति विभिन्न रूप लिए भारतीय समाज में एक साथ रह रहे ठगों और भारत-विरोधी सक्रीय तत्वों द्वारा अब तक किये कुकर्मों को व्यक्त करती है| आज भारत में राष्ट्रवादी शासक द्वारा “डीएनए कानून” उन ठगों और राष्ट्रद्रोही तत्वों की गोपनीयता को नंगा करने का अन्तर्निहित प्रयास है और इसे अन्य विशेष अच्छाईयों हेतु लागू किया जाना चाहिए|

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