पदनाम नहीं बदलें, कलेक्टर के अधिकारों में की जाए तब्दीली!

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लिमटी खरे

किसान हलाकान रहे, बेरोजगारों को रोजगार की तलाश में खाक छाननी पड़ती रही, शिक्षा का स्तर बहुत निम्न पर पहुंच गया, स्वास्थ्य सुविधाएं वेंटीलेटर पर दिखाई देने लगीं, उद्योग जगत की सांसें फूलती रहीं, न जाने क्या क्या चलता रहा देश के हृदय प्रदेश में, पर इनकी चिंता करने के बजाए कांग्रेस सरकार के द्वारा जिलों के प्रशासनिक मुखिया कलेक्टर का पदनाम बदलने की कवायद की गई, इसके लिए समिति का गठन भी कर दिया गया। सरकार बदलते ही भाजपा की शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार के द्वारा इस समिति को भंग कर दिया गया है। देखा जाए तो यह अनावश्यक कदम ही था। जिलों में कलेक्टर शब्द आम जनता में पूरी तरह रच बस चुका है। इसका केवल नाम बदलने से क्या होगा।

याद पड़ता है जब हम छोटे हुआ करते थे, तब पिताजी स्व. शंभू दयाल खरे द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी के रूप में जिला मलेरिया अधिकारी हुआ करते थे। उस दौरान उनके कार्यालय के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हमारे अग्रज को कहा करते थे आप बड़े होकर कलक्टर बनोगे . . . वे कहा करते थे कि कलक्टर जिले का मालिक होता है। तब तो यह बात समझ में नहीं आती थी, पर जैसे ही बालिग हुए और प्रशासनिक ढांचे से रूबरू हुए तब समझ में आया कलेक्टर का रौब और रूतबा। हर कोई यूं ही कलेक्टर को सलाम नहीं बजाता।

आजाद भारत के पहले से लेकर आजादी के बाद अब तक सरकार, हुक्मरान, राजा, कलेक्टर आदि इस तरह के शब्द हैं जो समय के साथ लोगों के जेहन पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं। कलेक्टर एक ऐसा पद माना जाता है कि जिसके पास असाधारण अधिकार होते हैं। अगर यह कहा जाए कि कलेक्टर जिले का राजा और सरकारों के आंख, नाक और कान होते हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। यह पद अंग्रेजी शासन व्यवस्था की देन माना जा सकता है। ब्रितानी हुक्मरानों ने अपने आप को स्थापित करने के लिए और जिलों में अपनी पकड़ को मजबूत रखने के लिए जिस तरह का प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया था उस ढांचे में आजादी के सात दशकों बाद भी बदलाव नहीं किया जा सका है। उस दौरान वायसराय हुआ करते थे। उस दौर के पदनामों को बदलकर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कर दिया गया है, इसके अलावा हमने और कुछ भी नहीं बदला है।

इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि कलेक्टर नामक पद का सृजन भारत पर राज करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रथम गर्वनर जनरल वारेल हेस्टिंग्ज के द्वारा किया गया था। उनकी सोच शायद यही रही होगी कि जिले में काम करने वाले सारे सरकारी महकमों पर नियंत्रण के लिए एक पद होना चाहिए, इस कंट्रोलिंग अर्थारिटी को ही कलेक्टर का नाम दिया गया होगा। यह प्रशासनिक व्यवस्था लगभग ढाई सौ साल पहले वारेन हस्टिंग के द्वारा 1772 में देश में लागू हुई थी। देश का पहला कलेक्टर गेरार्ड गुस्ताव डयूकारेल को माना जाता है। हिन्दू धर्म में सती प्रथा का अंत सख्ती से करने के लिए उन्हें बहुत ही शिद्दत से याद भी किया जाता है। प्रथम भारतीय कलेक्टर रोमेश चंद्र दत्त हुआ करते थे।

देश में लगभग ढाई सौ साल पहले जो शब्द अस्तित्व में आया उसे इतनी आसानी से विस्मृत करना मुश्किल ही है। वैसे भी कहा जाता है कि हर चीज का एक समय मुकर्रर होता है। सौ या डेढ़ सौ सालों में परंपराएं, व्यवस्थाएं, रहन सहन आदि में बदलाव आना अवश्यंभावी ही है। कोरोना काल में बहुत सारा बदलाव देखने को मिल रहा है। अब प्रिंटेड मेटेरियल के बजाए ऑन लाईन पढ़ने और देखने का चलन तेजी से बढ़ रहा है।

बहरहाल, कांग्रेस की सरकार के द्वारा जिलों में कलेक्टर्स के पदनाम को बदलने का ताना बाना बुना गया। अतिरिक्त मुख्य सचिव आईसीपी केसरी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन भी कर दिया गया। यह सब तब हुआ जब कांग्रेस की सरकार अंदर ही अंदर अस्थिर होती दिख रही थी। सचिवालय के सूत्रों की अगर मानें तो राज्य प्रशासनिक संघ और तहसीलदार संघ के द्वारा पदनाम बदलने पर असहमति भी जताई जा चुकी थी।

नाम बदलने के पीछे यह अवधारणा हो सकती है कि कलेक्टर नाम का शाब्दिक अर्थ संग्रहणकर्ता ही माना जाता था। इसलिए इसे बदला जाए। हमारे एक मित्र राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी स्व. आर.के. तिवारी जो लगभग दो दशक पहले मध्य प्रदेश में उप सचिव के पद पर पदस्थ थे वे सदा ही प्रशासनिक व्यवस्था को परिभाषित करते थे। वे कहा करते थे कि राज्य सरकार में त्रि स्तरीय व्यवस्था है। पहली है सचिवालय, जिसे सेकेटरीएट कहा जाता था। वे इसे सीक्रेट रेट परिभाषित करते थे। वे कहा करते थे कि यहां कोई रेट फिक्स नहीं है। आपका काम महज कुछ मुद्राओं में हो जाए या फिर लाखों लग जाएं, अर्थात रेट सीक्रेट है!

इसके अलावा वे संचालनालय जिसे अंग्रेजी में डायरेक्टरेट कहा जाता है को परिभाषित करते थे डारेक्ट रेट के रूप में अर्थात वहां डेढ़ परसेंट लगेगा मतलब लगेगा! वहां रेट डारेक्ट है अर्थात डारेक्टरेट। तीसरी व्यवस्था वे जिला स्तर पर बताते थे। जिला स्तर पर कलेक्टरेट को वे कहा करते थे कि हर जगह से जाने वाले अनुदान को कलेक्ट करने वाला स्थान कलेक्ट रेट अर्थात कलेक्टरेट होता था।

यह सब तो हास परिहास का मसला है पर सरकार को अगर बदलना था तो पदनाम के बजाए कलेक्टर्स को ज्यादा जवाबदेह बनाने की कवायद की जाती। हर जिलों में कलेक्टर्स क्या कर रहे हैं! उनकी प्रशासनिक क्षमता कितनी है! वे जिले के अन्य विभागों से किस तरह काम करवा पा रहे हैं! आदि बातों का बारीकी से परीक्षण कराया जाता और व्यवस्थाओं को और अधिक जवाबदेह तथा पारदर्शी बनाया जाता तो बात बनती। वैसे भी सरकारी नुमाईंदों को सरकारी नौकर कहा जाता है। अर्थात वे जनता के लिए काम करते हैं, जिसके एवज में उन्हें वेतन भत्ते मिलते हैं। जनता को उनकी सेवाओं का कितना लाभ मिल पा रहा है, इस बारे में अध्ययन करने की महती जरूरत महसूस हो रही है।

वैसे हर जिले में कलेक्टर्स को नवाचार करने के लिए प्रेरित किया जाता है। जिलों में नवाचार होता भी है, पर जिलाधिकारी के स्थानांतरण के बाद उनके सक्सेसर के द्वारा उनके द्वारा किए गए कामों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और नवाचार को दरकिनार ही कर दिया जाता है। इस तरह नवाचार असफल ही रहते हैं। इसके लिए एक गाईड लाईन निर्धारित किए जाने की महती जरूरत है। जिलाधिकारी के पदनाम को बदल देने से क्या होता! क्या उनकी कार्यप्रणाली बदल जाती! उनके अधिकार कम हो जाते! जाहिर है नहीं! कहा जाता है कि किसी भी ओहदे की ताकत, उसका रौब उसके अधिकारों में निहित होता है न कि पदनाम में। अगर चमेली के फूल का नाम बदल दिया जाए तो क्या उसकी खुशबू बदल जाएगी! जाहिर है सूरत के साथ सीरत भी बदलना जरूरी है . . .!आप अपने घरों में रहें, घरों से बाहर न निकलें, घर से निकलते समय मास्क का उपयोग जरूर करें, सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात सामाजिक दूरी को बरकरार रखें, शासन, प्रशासन के द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों का कड़ाई से पालन करें।

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