अयोध्या की चिनगारी को हवा न दें

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डा. सुभाष राय

इतिहास केवल बीता हुआ भर नहीं होता, उसकी समग्रता का प्रतिफलन वर्तमान के रूप में उपस्थित होता है। वर्तमान की भी पूरी तरह स्वतंत्र सत्ता नहीं हो सकती, उसे इतिहास के संदर्भ में ही देखा जा सकता है लेकिन वर्तमान इतनी स्वतंत्रता हमेशा देता है कि इतिहास की गलतियों को दुहराने से बचा जा सके, कतिपय स्थितियों में उन्हें दुरुस्त किया जा सके। यही वर्तमान का सबसे महत्वपूर्ण अंश है, यही किसी भी व्यक्ति, समाज और देश के लिए भविष्य के निर्माण की आधारशिला है। इस स्वतंत्रता का जो जितना विवेकपूर्ण इस्तेमाल कर सकेगा, वह उतना ही चमकदार भविष्य रच सकेगा। ऐसे अवसर निरंतर सबके सामने उपस्थित रहते हैं पर कई बार प्रमाद में, कई बार भावुकता के लिजलिजे आवेग में और कई बार परिस्थितियों और लोक आकांक्षाओं के त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन के कारण उनका या तो इस्तेमाल नहीं हो पाता है या गलत इस्तेमाल हो जाता है। दोनों ही परिस्थितियां घातक होती हैं और ऐसी नासमझियां आने वाली पीढ़ियों को बेचैन करती हैं, परेशान करती हैं तथा कई बार रक्तरंजित संघर्ष की जमीन तैयार करती हैं। अयोध्या में बाबरी मसजिद को लेकर जो कुछ भी अतीत में हुआ और जो आज हो रहा है, वह हमारे देश के नीति-निर्धारकों और राजनेताओं की ऐसी तमाम गलतियों का समुच्चय है।
बाबर तो आक्रांता था। विजय और समृद्धि की आकांक्षा उसे यहां खींच लायी। बाबर एक पर्सियन शब्द है, जिसका अर्थ होता है शेर। जहीरुद्दीन मोहम्मद को सम्मान से बाबर कहा जाता था। वह बहादुर था, बेहतर संगठक और रणनीतिकार था, अपने समय के आधुनिक हथियारों से लैस था। इसलिए उसे उत्तरी हिंदुस्तान पर कब्जा करने में बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ी। कुछ देशभक्त भारतीय योद्धाओं ने यद्यपि उसका सशक्त प्रतिरोध किया पर उसे शिकस्त नहीं दे सके। उसने अवध पर विजय के बाद यह इलाका अपने एक सिपहसालार मीर बांकी के हवाले कर दिया था। कहते हैं कि उसी ने 1527 में अयोध्या में मस्जिद बनवाई और अपने बादशाह के नाम पर उसका नाम बाबरी मस्जिद रखा। पहले विजेता अक्सर विजित जातियों को पराभूत बनाये रखने के लिए उनकी संस्कृति और परंपराओं के विरुद्ध द्वेषपूर्ण और अपमानजनक कार्रवाई किया करते थे। मीर बांकी ने मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या को ही क्यों चुना, यह कोई भी आसानी से समझ सकता है। हिंदू मानते आये हैं कि अयोध्या में उनके सांस्कृतिक नायक राम जन्मे थे। मस्जिद बनने के बाद हिंदुओं में यह धारणा भी बनती गयी कि जिस स्थान पर मस्जिद बनायी गयी, वहां राम मंदिर था। मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनायी गयी। इसी जनविश्वास के कारण इस स्थान के लिए कई बार युद्ध हुआ, खून बहा।
समय-समय पर यह विवाद भड़कता रहा। 18 मार्च 1886 को फैजाबाद के जिला जज ने इस मसले पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। अयोध्या के एक महंत की अर्जी की सुनवाई करते हुए जज ने कहा, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदुओं द्वारा पवित्र समझी जाने वाली जमीन पर मस्जिद का निर्माण किया गया लेकिन साढ़े तीन सौ साल पहले की गयी गलती को अब ठीक नहीं किया जा सकता। जज ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के निर्माण को एक गलती की तरह तो स्वीकार किया लेकिन यथास्थिति में किसी तरह के परिवर्तन की संभावना से इनकार कर दिया। छिटपुट विरोध के बावजूद 22 दिसंबर 1949 तक इसका इस्तेमाल मस्जिद की तरह होता रहा। उसी 22 दिसम्बर की रात कुछ लोगों ने मस्जिद में मूर्तियां रख दीं और अगले दिन से बड़ी तादात में दर्शन के लिए वहां हिंदू उमड़ने लगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सलाह के बावजूद उस समय फैजाबाद के जिलाधिकारी के के नैयर मूर्तियों को हटाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं हुए। वहां मस्जिद के भीतर दर्शन के लिए आम लोगों को जाने की इजाजत तो नहीं थी मगर पुजारियों को पूजा-अर्चना की अनुमति दी गयी थी। जाहिर है तत्कालीन सरकारों ने अपेक्षित संकल्प का परिचय नहीं दिया। बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी, बाद में 1985 के दौरान राजीव गांधी की सरकार ने मस्जिद के भीतर स्थापित राम का दर्शन आम जन के लिए सुलभ कराने का फैसला किया और इसी के साथ हिंदुओं-मुसलमानों के बीच संघर्ष की नींव डाल दी गयी। फिर भगवा दलों के आंदोलन, रथयात्रा और आखिरकार 6 दिसंबर 1992 को बाबरी के ध्वंस की पटकथा किस तरह फिल्मायी गयी, यह सभी जानते हैं। इस घटना ने देश में सांप्रदायिक विभाजन की खतरनाक परिस्थिति पैदा कर दी, देश दंगों की आग में झुलस उठा। फिर जांच-पड़ताल का लंबा दौर चला और कुछ लोगों पर मस्जिद गिराने का षडयंत्र रचने का मुकदमा दायर किया गया। कुछ राजनीतिक दलों ने समस्या को सुलझाने का माहौल बनाने की जगह इससे पैदा हुए हिंदू-मुस्लिम बंटवारे का जमकर फायदा उठाया।
बाबरी ध्वंस से जो आग दिलों के भीतर लगी थी, वह अभी ठंडी नहीं पड़ी है। फासला इतना बढ़ गया है कि बातचीत की कोई गुंजाइश शेष नहीं रही। हिंदू संगठन वहां राम मंदिर देखना चाहते हैं पर मुसलमान किसी भी कीमत पर मस्जिद की जगह छोड़ने को तैयार नहीं है। कोई तर्क और न्याय की बात नहीं कर रहा, किसी को अदालतों पर भरोसा नहीं है। पहले मुस्लिम नेताओं ने कहा था कि अगर यह साबित हो जाय कि मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़कर किया गया है तो वे अपना दावा छोड़ देंगे। पर जब न्यायालय की पहल पर मस्जिद की जमीन पर खुदाई की गयी और उसकी रिपोर्ट उनके विरुद्ध जाती दिखी तो उन्होंने उसकी प्रामाणिकता पर ऊँगली उठाते हुए उसे मानने से इनकार कर दिया। इसी तरह हिंदू संगठन भी अदालत का फैसला तभी मानने को तैयार होंगे, जब वह उनके पक्ष में आये अन्यथा वे अपने मशहूर जुमले पर अड़े रहेंगे कि आस्था के प्रश्न पर कोई अदालत फैसला नहीं कर सकती। सभी जानते हैं कि बाबरी के ढह जाने के बाद अदालत के निर्देश पर संस्कृत के विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं के एक दल ने एएसआई की देख-रेख में वहां खुदाई करायी थी। मलबे से जो चीजें बरामद हुईँ थीं, वे स्पष्ट रूप से इस जनविश्वास को प्रामाणिक करार देती हैं कि उस स्थान पर कोई मंदिर रहा होगा। इस बारे में एएसआई की रिपोर्ट अदालत के पास है। देखा जाये तो दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिन पर हाई कोर्ट को फैसला देना है। मस्जिद की जमीन का मालिकाना हक किसका है और क्या मस्जिद बनने से पहले उस स्थान पर कोई मंदिर था। यह प्रश्न इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने भी आ चुका है और उसने कोई फैसला देने से इनकार कर दिया था।
अब अलग-अलग खेमों में बहस चल रही है कि फैसला क्या होना चाहिए? आम लोगों के जेहन में यह सवाल तैर रहा है कि अगर किसी के पक्ष में कोई भी फैसला हुआ तो क्या होगा? महत्वपूर्ण बात यही है कि दोनों पक्षों के हठधर्मी रवैये की पृष्ठभूमि में इस विषय पर किसी भी फैसले का परिणाम क्या होगा। ऐसा कोई फैसला हो नहीं सकता जो दोनों पक्षों को खुश कर सके और अगर फैसला किसी एक के पक्ष में जाता है तो दूसरा पक्ष अदालत की अवमानना से चूकेगा नहीं। अपनी तमाम मुस्तैदी के बावजूद सरकारें किसी न किसी राजनीतिक लाभ के नजरिये से काम करती हैं, ऐसे में नहीं लगता कि अगर हालात बिगड़े तो वे संभाल पायेंगी। अभी से कुछ राजनीतिक दल इस उम्मीद में अपनी रणनीतियां बनाने में जुट गये हैं कि अगर हालात खराब होते हैं तो उसका राजनीतिक फायदा कैसे उठाया जाये। इस विषम परिस्थिति में सवा सौ साल पहले फैजाबाद के जिला जज के फैसले से सबक लिया जा सकता है। उसने कहा था कि अयोध्या में मस्जिद बनाकर इतिहास ने एक गलती की है, पर सैकड़ों बरस बीत जाने के बाद उसे सुधारा नहीं जा सकता। इसका आशय स्पष्ट है कि जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दिया जाये। क्या इस फैसले का आशय और संकेत भी अदालत को नहीं समझना चाहिए? इसकी जरूरत इसलिए भी है कि अब ऐसा कोई भी मौका उन लोगों को नहीं दिया जाना चाहिए, जो घात लगाये चिनगारी फूटने का इंतजार कर रहे हैं। मस्जिद गिराने की गलती, उसे अयोध्या में बनाने की मुगल भूल से कम गंभीर नहीं थी। अब उसके मलबे पर राजनीति करने वालों को कोई और अवसर नहीं दिया जाना चाहिए।

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डॉ. सुभाष राय
जन्म जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश में स्थित मऊ नाथ भंजन जनपद के गांव बड़ागांव में। शिक्षा काशी, प्रयाग और आगरा में। आगरा विश्वविद्यालय के ख्यातिप्राप्त संस्थान के. एम. आई. से हिंदी साहित्य और भाषा में स्रातकोत्तर की उपाधि। उत्तर भारत के प्रख्यात संत कवि दादू दयाल की कविताओं के मर्म पर शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि। कविता, कहानी, व्यंग्य और आलोचना में निरंतर सक्रियता। देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं, वर्तमान साहित्य, अभिनव कदम,अभिनव प्रसंगवश, लोकगंगा, आजकल, मधुमती, समन्वय, वसुधा, शोध-दिशा में रचनाओं का प्रकाशन। ई-पत्रिका अनुभूति, रचनाकार, कृत्या और सृजनगाथा में कविताएं। अंजोरिया वेब पत्रिका पर भोजपुरी में रचनाएं। फिलहाल पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय।

4 COMMENTS

  1. डाक्टर रॉय,आपको यहाँ दूसरी बार पढने का मौका मिला,पहली बार आपने लिखा था की राम और कृष्ण को मंदिरों न बंद कर उन्हें महापुरुष मIनो और उनके आचरण का अनुकरण करो.दूसरा आलेख यह वर्त्तमान आलेख है. समस्या का समाधान आपने नहीं दिया है,क्यों की आपने इतिहास का हवाला देते हुए प्रश्न को ही इस तरह उठाया है की आप समाधान दे ही नहीं सकते थे.इसका समाधान जज के उस फैसले में समाहित है की इतिहास की गलतिओं को दुहरा कर किसी समास्या का हल नहीं dhundhaa ja saktaa.rahi baat balpurbak kabjaa karne ki to yah ek dhaarmik unmaad hi kahaa ja saktaa hai.iskaa asali dharma se koi lenaa denaa nahi hai.agar ham Ram ko mahaapurush mankar unke aacharan ka anukaran bhi kare to iska samaadhaan mil jayegaa,par ham waisa karna chahe tab na?
    Itihaas ki us prishtha bhoomi ka bhi maine anyatra jikra kiya hai jahan Babar se prasta hone ki baat kahi gayee thee.itihaas gawaah hai ki yah praajay bhi hamaari bholon ka natijaa thee naki baabar ki shaurya ki.

  2. सुभाष राय जी को धन्यवाद् .भारत के सामने अनेक चुनौतियां दरपेश हो रहीं hain aajaadi के 63 saal wad bhi is desh men jahaan ek aor athah sampda के deep nirmit huye ,whin doosri or 30 karod logon के pas gujare layak ann vasht ya makan nahin .shoshit janta को jaat dharam men baantkar foot dalo raj karo ka sootr istemaal kiya ja raha hai .schche deshbhakton sachche haidu sachche musalmano se nivedan hai ki bahkave men na aaven .court के faisle को maane यदि किसी को लगता है की उसे न्याय nahin mila to supreem court ka darwaja khula है .सुभाष राय जी ka pratek shbd deshbhktimy है ..

  3. Arvind bhai, hame hal to dhundhna hoga lekin paristhitiyon par bhee gaur karana hoga. sachmuch is maamale par adalat koi phaisala naheen kar sakegee aur agar karatee hai to vah sarvmaany naheen hoga. ghav bana rahega. yah masala bal prayog se bhee naheen sulajh sakata kyonki vah to antheen hoga. is par naram dili aur aapasee muhabbat se baithkar bat karane se hee baat banegee. chandrshekhar ne jo prayaas shuru kiya tha, use hee aage badhaana padega, aur koi raasta nahee hai. sasneh.

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