कांग्रेस के लिए “करो या मरो” का सवाल

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chintan shivir of congressजावेद अनीस

भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है, 2014 में उसे अपने सबसे बड़े चुनावी पराजय का सामना करना पड़ा था और उसे पचास से भी कम सीटें मिली सकी थीं. वैसे तो चुनाव में हार-जीत सामान्य है लेकिन यह हार कुछ अलग थी. 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस अभी तक संभल नहीं पायी है एक के बाद एक विफलतायें उसकी नियति बनती जा रही हैं. तजा झटका 2016 के पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव के नतीजों का है जिसमें पुदुच्चेरी को छोड़ उसे निराशा ही हाथ लगी है अब असम और केरल जैसे राज्य भी उसके हाथ से निकल चुके हैं. वर्तमान में कांग्रेस देश की केवल 6 प्रतिशत जनसंख्या पर ही राज करती है अब उसकी सत्ता केवल 7 राज्यों में ही बची है जिसमें कर्नाटक को छोड़ कर बाकी राज्य इतने छोटे हैं कि उनका राष्ट्रीय राजनीति में खास दखल नहीं है . भाजपा भारतीय राजनीति में कांग्रेस के स्थान पर काबिज हो चुकी है और कांग्रेस के सामने अपना अस्तित्व बनाये रखने का खतरा मंडरा रहा है. पार्टी में बैचैनी और भगदड़ सा माहौल बन रहा है एक के बाद एक राज्यों से आंतरिक कलह और बगावत की खबरें आ रही हैं, उत्तराखंड प्रकरण के बाद की भगदड़ पर नज़र डालें तो छत्‍तीसगढ़ से अजीत जोगी ,महाराष्‍ट्र से पार्टी के वरिष्ठ नेता गुरुदास कामत और उत्‍तर प्रदेश में बेनी प्रसाद वर्मा पार्टी छोड़ चुके हैं, त्रिपुरा में पार्टी के 6 विधायक टीएमसी में शामिल हो चुके हैं, उत्‍तराखंड में एक बार फिर सुगबुगाहट है जहाँ प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय पार्टी से नाराज बताये जा रहे हैं.

कांग्रेस पहले जब कभी भी सत्ता से बाहर हुई है तो उसकी वापसी को लेकर इतना संदेह नहीं किया गया लेकिन 2014 की हार कुछ अलग थी. इसके बावजूद अगर गंभीरता से प्रयास किये जाते तो हालात में बदलाव संभव था लेकिन इस दौरान मोदी सरकार कि विफलताओं पर ही निर्भरता नजर आयी. दो साल बीत जाने के बाद आज कांग्रेस में ऐसा कुछ नजर नहीं आता है जिसे हम बदलाव कह सकें. 2014 में पार्टी ने जनता का जो विश्वास खोया था उसे वह वापस नहीं पा सकी है और सतह पर अभी भी कांग्रेस के लिए गुस्सा और चिढ़ देखा जा सकता है. लगता है कांग्रेस के पास ऐसा कुछ बचा ही नहीं जिसके सहारे वह एक बार फिर जनता का भरोसा वापस पा सके पार्टी अभी भी अपने दस साल की करतूतों और बदनामियों के बोझ तले दबी हुई नजर आ रही है. कुल मिलाकर उसका भविष्य अनिश्चिताओं से भरा हुआ है. कहा नहीं जा सकता कि कांग्रेस को अपनी इस स्थिति की गंभीरता का अहसास है भी या नहीं.
दरअसल कांग्रेस आज दोहरे संकट से गुजर रही है जो कि अंदरूनी और बाहरी दोनों हैं लेकिन अंदरूनी संकट ज्यादा गहरा है यह संकट इसलिए भी बड़ा है क्योंकि इसके घेरे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व यानी गांधी-नेहरू परिवार भी शामिल है. आज कांग्रेस एक राजनीतिक संगठन के तौर पर काम नहीं कर पा रही है. इतनी बड़ी हार के बाद पार्टी के अंदर कोई समीक्षा नहीं हुई, ए.के. एंटनी की अध्यक्षता में जो समिति बनाई गयी थी उसकी रिपोर्ट पर चर्चा तक नहीं की गयी और सब कुछ किसी चमत्कार के भरोसे छोड़ दिया गया. इसी तरह से कांग्रेस समय में हुए बदलाव को भी नहीं समझ पायी, पिछले दशकों में भारत बहुत तेजी से बदला है इस दौरान मध्य वर्ग का दायरा बढ़ा है, बड़ी संख्या में एक नयी पीढ़ी वोटर के रूप में सामने आई है, अभूतपूर्व रूप सूचना स्रोतों की बाढ़ सी आ गई है आज टीवी चैनल, सोशल मीडिया, इंटरनेट, मोबाइल, व्हाट्स-अप जैसे माध्यमों की पैठ कस्बों को पार करते हुए गांवों तक हो चुकी है जिसके परिणामस्वरूप जनता की मानस, नजरिये व अपेक्षायें भी बदली हैं. विडंबना देखिये इन बदलावों की वाहक कमोबेश कांग्रेस ही रही है लेकिन वह खुद इसे समझ ही नहीं पायी उसकी राजनीति अभी भी “गरीबी हटाओ” जैसे घिसे-पिटे नारों के इर्दगिर्द सिमटी नजर आती है.
इधर राजनीति करने के तौर-तरीकों में भी बदलाव आया है और सूबों में भी ऐसे चेहरों को तरजीह दी जाने लगी है जो अपनी पहचान और काम के बल पर जनता का विश्वाश जीत सकते हों, इस बात को बीजेपी ने बखूबी समझा है लेकिन कांग्रेस की स्थिति यह है कि उसके पास राज्यों में ऐसे चेहरों का आभाव है, उसके पास तो ऐसा कोई मुख्यमंत्री है और ना ही प्रदेश जिसे वह अपने गुड गवर्नेंस के माडल के तौर पर पेश कर सके. विचारधारा को लेकर भी पार्टी भ्रम का शिकार है. वैसे कांग्रेस अपनी विचारधारा कब का छोड़ चुकी है और अब वह भाजपा का पिछलग्गू बनने की कोशिश करती हुई नज़र आती है लेकिन उसे समझना होगा कि भारत में एक साथ दो दक्षिणपंथी पार्टियाँ नहीं हो सकती हैं.
तमाम प्रयासों के बावजूद अभी तक राहुल गाँधी अपने आप को एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर पेश करने में नाकाम रहे हैं, हालत यह है अब उन्हें अगले साल होने वाले यू.पी. विधान सभा में मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश करने का सुझाव दिया जा रहा है. अपने बारह साल के पॉलिटिकल कैरियर में राहुल ज्यादातर समय अनिच्छुक और थोपे हुए गैर-राजनीतिक प्राणी लगे और भारतीय राजनीति की शैली,व्याकरण और तौर-तरीकों के लिहाज से अनफिट नजर आये. उनकी छवि एक “कमजोर” ‘संकोची’ और ‘यदाकदा’ नेता की बन गयी है जो अनमनेपन से सियासत में है. राहुल गाँधी अभी तक अपने पार्टी में ही वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाए हैं उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह एक प्रेरणादायक और चुनाव जिता सकने वाले नेता के तौर पर स्वीकृति नहीं मिली है, उनमें नेतृत्व और संकट के समय जोखिम लेने की क्षमता का आभाव दिखाई पड़ता है. पार्टी की राज्य इकाईयों पर भी राहुल गांधी की पकड़ दिखाई नहीं पड़ रही है.

लोकसभा चुनाव में हार के बाद अभी तक कांग्रेस कमोबेश वहीँ कदमताल कर रही है जहाँ भाजपा ने उसे 2014 में छोड़ा था. आज हालत यह है कि 2019 लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के विकल्प के तौर कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय दलों की चर्चा है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देते हुए भाजपा विरोधी खेमे की तरफ से अपनी दावेदारी भी पेश कर चुके हैं. कांग्रेस पार्टी को समझना होगा कि संकट बड़ा है और यहाँ से बाहर निकलने के लिए उसे निर्णायक कदम उठाने होंगें. अब कांग्रेस का भविष्य राहुल प्रयंका या प्रशांत किशोर पर नहीं बल्कि इस बात पर टिका है की वह अपने अन्दर कितना बदलाव ला पाती है. उबरने के लिए उसे बदले माहौल को समझते हुए खुद उसके अनुसार ढालना होगा,आज कांग्रेस को सामूहिक लीडरशिप की जरूरत है, उसे अपने जड़ों की तरफ लौटना होगा और आजादी के आन्दोलन के दौरान जिन मूल्यों और विचारों की विरासत उसे मिली थी उन्हें अपने एजेंडे व कार्यकर्मों में लाना होगा तभी जाकर वह भाजपा का मुकाबला करते हुए अपनी खोई हुई जमीन दोबारा हासिल कर सकती है. राजनीति अनिश्चिताओं का खेल है और यहाँ समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता है, आने वाले दो साल पार्टी के लिए बेहद अहम साबित होने वाले हैं इस दौरान कांग्रेस के पास खुद को बदलने के अलावा इतिहास बन जाने का ही विकल्प है.

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