क्या चर्च बलात्कारी पादरी की बलात्कार पीड़िता से शादी का समर्थन करता है?

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यह सोचने की जरूरत है कि एक कैथोलिक पादरी ने एक नाबालिग बच्ची से बलात्कार करके उसे गर्भवती कर दिया, इसे लेकर चर्च के पूरे संगठन को जितनी शर्मिंदगी होनी चाहिए थी, वैसी तो कुछ भी कहीं सुनाई नहीं पड़ी। चर्च को तो अपना रुख इस मामले में भी साफ करना चाहिए कि क्या वह बलात्कार की शिकार लडक़ी से बलात्कारी की ऐसी शादी का हिमायती है? चर्च और वेटिकन कभी भी पीड़ितों के लिए खड़े नहीं हुए उन्होंने हमेशा मामलों पर पर्दा डालने और पीड़ितों को डराने, बदनाम करने का काम किया है।

जस्टिस विनीत सरन और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने केरल के कोट्टियूर बलात्कार मामले की पीड़िता के पूर्व पादरी रॉबिन वडक्कमचेरी से शादी करने की पेशकश की याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया है। दरअसल पादरी ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि उसके बलात्कार की शिकार लडक़ी अब उससे शादी करना चाहती है, और इस शादी के लिए उसे कुछ वक्त के लिए जेल से रिहा किया जाए।

 अदालत से इस पादरी को 20 बरस की कैद सुनाई गई थी,  इन दोनों ने यह तर्क भी दिया था, कि बलात्कार के बाद इस लडक़ी से जो संतान हुई है, उसके अब स्कूल जाने की उम्र हो गई है, और स्कूल में अगर पिता का नाम नहीं लिखाया जा सकेगा तो उससे सामाजिक अपमान होगा। पादरी के बलात्कार की शिकार नाबालिग लडक़ी अब बालिग हो चुकी है, और शादी की उम्र की हो गई है। बच्चे की उम्र भी अभी स्कूल जाने लायक हो चुकी है।

16 वर्षीय सर्वाइवर, सेंट सेबेस्टियन चर्च से जुड़े कोट्टियूर आईजेएम हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ती थी। उनका परिवार इसी चर्च का सदस्य था, वह चर्च में कंप्यूटर में डेटा एंट्री करने में भी मदद करती थीं। मई 2016 में चर्च के तत्कालीन विकर, रॉबिन वाडाक्कुमचरी ने उसके साथ बलात्कार किया। रॉबिन वडक्कुमचेरी की धमकियों की वजह से लड़की ने पुलिस को यहां तक कह दिया था कि उसका रेप, उसके पिता ने ही किया है, वडक्कुमचेरी के बारे में कन्नूर में चाइल्ड लाइन पर आई एक गुमनाम कॉल से पता चला था।

ऐसे मामलों का खुलासा करने वालों के लिए यह अकेले युद्ध लड़ने जैसा होता है। “चर्च उन्हें बहिष्कृत कर देता है या फिर उन्हें अपने ही समुदाय के भीतर अलग-थलग कर दिया जाता है”। (दुष्कर्म के आरोपी बिशप फ्रैंको मुलक्कल की गिरफ्तारी की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाली चार ननों का मामला अभी ताजा है) इनमें से एक नन सिस्टर लूसी कल्लापुरा ने मलयाली पुस्तक ‘‘करथाविन्डे नामथिल’ (ईसा के नाम पर) लिखकर अपनी पीड़ा जाहिर की है।

हां, इतना जरूर है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश चर्च के भीतर उन सभी लोगों के लिए एक झटका है जो यह मानते हैं कि इस तरह की गतिविधियों को उजागर नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इस से चर्च की बदनामी होती है।

कैथोलिक आबादी वाले ईसाई समुदाय में डर और मौन की संस्कृति के चलते समस्या की वास्तविकता को आंका नहीं जा सकता। जिन्होंने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है, वो कहते हैं कि यह किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। मुंबई में कुछ समय पहले दो अलग-अलग मामले सामने आए थे , जिनमें तुरंत कार्रवाई और पीड़ितों को सहायता प्रदान करने के मामले में मुंबई के आर्कबिशप – कार्डिनल ओस्वाल्ड ग्रेशस विफल रहे। चर्च ऐसे मामलों की जानकारी पुलिस को नहीं देकर भारत के पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट 2012) का भी उल्लंघन करता है।

जिस तरह सरकारी और निजी सभी किस्म के दफ्तरों और कामकाज की जगहों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए समितियां बनाने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू किया जाता है, उसी तरह का फैसला चर्च संगठनों पर भी लागू किया जाना चाहिए।  तुरंत प्रभाव से चर्च पदाधिकारियों और अनुयायियों की संयुक्त समितियां बनाई जानी चाहिए जो इस तरह के मामले में संज्ञान ले सके।

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