डोगरी की तीव्रगामी प्रगति

जम्मू और कश्मीर में डोगरा लोगों की भाषा डोगरी एक जीवन्त भाषा है। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में डोगरी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है और यह भी भारतीय साहित्य की समृध्दि में उल्लेखनीय योगदान दे रही है।

डोगरी लोक संगीत और विश्व प्रसिध्द बाशोली लघुचित्र भारत की समृध्दि धरोहर के गौरवशाली अंश हैं। इसके अतिरिक्त, बहादुर डोगरा योध्दाओं की साहसिक कारगुजारियां भारतीय इतिहास की गौरवपूर्ण गाथाओं में शामिल हैं। न केवल उनकी समृध्द कला और सांस्कृतिक धरोहर, बल्कि उनकी मातृभाषा डोगरी भारतीय साहित्य को संपन्न और समृध्द बना रही है। विशेष रूप से पिछले 6 दशकों में डोगरी साहित्य ने प्रगति की है, वह ध्यान देने योग्य है। महाराजा रणवीर सिंह (1857-1885) के शासनकाल के दौरान डोगरी जम्मू और कश्मीर राज्य की सरकारी भाषा थी। उर्दू तो बाद में राज्य की सरकारी भाषा और शिक्षा का माध्यम बनी।

अतीत में डोगरी वर्णमाला को गणमत कहा जाता था। बाद में महाराजा रणवीर सिंह के समय इसको सुधार कर नामे अक्खर नाम दिया गया। एक सरकारी समिति की संस्तुति पर 1955 में डोगरी के लिये देवनागरी लिपि को अपनाया गया और वर्ष 1957 में इसे राज्य के संविधान में शामिल कर लिया गया।

जम्मू और कश्मीर देश का एकमात्र राज्य है, जिसका अपना पृथक संविधान है। राज्य के संविधान में उर्दू को राजभाषा का स्थान दिया गया है, परन्तु इसमें यह भी कहा गया है कि जब तक विधायिका द्वारा अन्य कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं की जाती, सभी सरकारी कार्यों के लिये अंग्रेजी का उपयोग होता रहेगा। कश्मीरी, डोगरी, गोजरी (गूजरी), बाल्टी (पाली), दर्दी, पंजाबी, पहाड़ी और लद्दाखी को क्षेत्रीय भाषाओं के तौर पर राज्य के संविधान की छठी अनुसूची में सम्मिलित किया गया है । देश के सबसे उत्तर में स्थित यह राज्य सामरिक दृष्टि से अति संवेदनशील होने के साथ-साथ बहुभाषी और बहु-प्रजातीय है, जहां सभी वर्गों और भाषाओं को विकास और प्रगति के लिये समुचित अवसर प्रदान किये गए हैं।

जीवंत भाषा

कश्मीरी भाषा को 1950 में भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कर दिया गया था, परन्तु डोगरी को इस तर्क के आधार पर छोड़ दिया गया था कि एक राज्य से केवल एक भाषा को ही लिया जा सकता है। साहित्य के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति और लम्बे संघर्ष के बाद डोगरी को भी 22 दिसम्बर, 2003 को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हो गया और भारत के संविधान में इस भाषा को उसका नियत स्थान मिल गया। इस सम्मान को हासिल करने के बाद डोगरी भाषा के लिये अवसरों के नए वातायन खुल गए हैं, और साथ ही इसकी तीव्र प्रगति के लिये कुछ चुनौतियाँ भी पेश की हैं।

डोगरी भाषा के संवर्धन और लोक व्यापीकरण के लिये 1944 में स्थापित डोगरी संस्था नामक स्वैच्छिक संगठन ने अग्रणी भूमिका निभाई है । इस भाषा की चर्चा सुर्खियों में उस समय आई जब दीनू भाई पंत ने 1945में गुत्तालुन (गुदगुदी) नाम से डोगरी में हास्य पुस्तिका की रचना की। इस पुस्तका ने डोगरी के प्रति लोगों में खूब रुचि जगाई और पुस्तका के साथ-साथ भाषा को भी काफी लोकप्रियता मिली।

संपोषणीय प्रगति

संस्था के प्रयासों से डोगरी भाषाप्रेमियों में पुनर्जागरण शुरू हुआ और अन्य भाषाओं के लेखकों में भी डोगरी साहित्य को अपनाने में रुचि दिखाई देने लगी। विभिन्न विषयों और विधाओं पर डोगरी में पुस्तकें लिखी जाने लगीं। डोगरी संस्था ने एक माहौल बनाया तो अन्य अनेक गैर-सरकारी संगठन भी साहित्यिक संवेग को सुविधाजनक बनाने के इस प्रयास में सहभागी बनने के लिये सामने आना शुरू हो गए।

जम्मू और कश्मीर सरकार ने राज्य की साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु वर्ष 1950 के दशक में कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की स्थापना की। दूरदर्शन भी इस भाषा के प्रचार और प्रसार में अपना योगदान दे रहा है।

नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी ने 1969 में डोगरी भाषा को मान्यता प्रदान की और डोगरी भाषा के लेखकों तथा कवियों को साहित्य एवं भाषा के विकास में योगदान के लिये वार्षिक पुरस्कार देना शुरू किया। इसने डोगरी को अपने प्रकाशनों में स्थान देकर और अनेक संगोष्ठियों तथा कार्यशालाओं का आयोजन कर अति आवश्यक प्रोत्साहन दिया है।

डोगरी संस्था ने, कश्मीरी की तरह डोगरी को भी प्राथमिक स्तर पर अनिवार्य रूप से लागू किये जाने की मांग की है। उचित पुस्तकों और पाठयक्रम की रचना कर विशेषज्ञों ने इसकी जमीन तैयार कर दी है। कुछ महाविद्यालयों और जम्मू विश्वविद्यालय में डोगरी पढ़ाई जा रही है। इस भाषा में 6 अंकों के शब्दकोष डोगरी-डोगरी और हिंदी-डोगरी में उपलब्ध है। डोगरी लोक कथाओं का संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। लेखकों और कवियों के मार्गदर्शन के लिये केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान मैसूर और डोगरी संस्था के विशेषज्ञों के सहयोग से एक स्टाइल बुक (शैली पुस्तक) का प्रकाशन भी किया जा चुका है। भगवत गीता, टैगोर (रवीन्द्र नाथ टैगोर) की कुछ प्रसिध्द कृतियों और प्रेमचन्द्र की गोदान जैसी अमर साहित्यिक रचनाओं का अनुवाद भी डोगरी भाषा में आ चुका है और इस प्रकार अन्य भाषाओं की महान रचनाओं का डोगरी में अनुवाद की प्रवृत्ति अब गति पकड़ रही है। भाषा विकास का श्रेयात्मक और वृहद प्रयास जारी है। डोगरी में नए-नए शब्दों को समाहित किया जा रहा है, नई प्रवृत्तियों और विषय वस्तुओं को अंगीकर किया जा रहा है।

वर्तमान में, अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की तरह, डोगरी भाषा को भी अनेक चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। वैश्वीकरण, छोटी, बड़ी, स्थानीय–सभी चीजों की तरह भाषाओं और संस्कृतियों को भी निगलता जा रहा है । इस समस्या से निपटने के लिये, इस बात को समझना होगा कि वैश्वीकरण को अपनी शक्ति और पोषण, मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी के लगातार विकसित और बढ रहे साधनों से ही मिलती है ।

भारतीय संविधान में डोगरी के शामिल हो जाने से इसके तीव्र विकास की अनेक संभावनायें खुल गई हैं। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग से डोगरी भाषा के विकास को स्थायी रूप दिया जा सकता है।

डोगरी-आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) समझ

क्षेत्रीय भाषाओं की भावी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उन्हें समर्थ बनाने में सूचना प्रोद्योगिकी के साधनों के विकास के महत्त्व को स्वीकार करते हुए, सूचना प्रौद्योगिकी विभाग ने सभी भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर टूल्स (साधनों) के विकास की पहल की है। इसमें संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाएं शामिल हैं। इस योजना के तहत, हाल ही में, भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग और सी डैक (सी-डीएसी) ने सार्वजनिक उपयोग के लिये डोगरी में सॉफ्टवेयर प्रोग्राम और टूल्स नि:शुल्क जारी किये हैं। विकास और प्रगति के नए क्षितिज को छूने के लिये इन नौ सॉफ्टवेयर पैकेजों में कम्प्यूटर और इंटरनेट के व्यापक उपयोग पर जोर दिया गया है। डोगरी भाषा तीव्र गति से बढ़ रही है और भारतीय साहित्य में अपना ठोस योगदान दे रही है।

-ओ.पी.शर्मा

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