भारत-मोदी को एक समझने की गलती न करें विपक्ष

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  संजय सक्सेना
     कांग्रेस के एक नेता हुआ करते थे देवकांत बरूआ।बरूआ कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। बरूआ की पहचान कांग्रेस के दिग्गज नेता सहित पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा के वफादारों में भी होती थी।बरूआ ने ही आपातकाल के दौरान 1975 में नारा दिया था,‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’।यह नारा उस वक्त इंदिरा गांधी की ताकत को दिखाता था। एक समय इंदिरा को ‘कामराज की कठपुतली’ और ‘गूंगी गुड़िया’ कहा जाता था। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद दुनिया ने उनका एक अलग रूप देखा। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, पूर्व रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना, 1971 का भारत-पाक युद्ध और 1974 का पहला परमाणु परीक्षण… इन फैसलों से इंदिरा ने अपनी ताकत दिखाई। हालांकि 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके निर्वाचन को रद्द कर दिया। इसकेे बाद इंदिरा ने आपातकाल लागू कर दिया। इसी समय आया था ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा।हालांकि,इसके ठीक बाद 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई थी। यहां तक की प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी तक को हार का सामना करना पड़ा था। देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। कांग्रेस ने 1977 की हार के लिए मंथन किया तो इसके कारणों में आपातकाल के साथ ही विमर्श में यह बात भी निकल कर आई कि ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ के नारे का वोटरों के बीच काफी गलत प्रभाव पड़ा था और एक बड़ा वर्ग इससे बेहद नाराज भी था। इसी लिए इस नारे ने भी कांग्रेस की हार में प्रमुख भूमिका निभाई थी।कांग्रेस पर हमला करने के लिए विपक्ष आज भी इस नारे को उसक(कांग्रेस)े खिलाफ जुमले की तरह इस्तेमाल करता है।
   यह सिक्के का एक पहलू है,सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि कांग्रेस नेता ने 1975 में जो नारा(इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’) इंदिरा गांधी के पक्ष में लगाया था ,उसी नारे को अब 2021 में कांग्रेसी प्रधानमंत्री मोदी पर ‘फिट’ करने की कोशिश में लगी हैं। कांग्रेसी ऐसा माहौल बना रहे हैं जैसे ‘मोदी ही भारत हैं,भारत ही मोदी हैं।’कांग्रेसियों द्वारा कई बार ऐसा माहौल बनाया जा चुका है,जहां मोदी से लड़ते-लड़ते कांग्रेसी भारत के विरोध पर उतर आते हैं।पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के समय, कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के मौके पर,नागरिक सुरक्षा काननू(सीएए), चीन से विवाद के वक्त, नये कृषि कानून के विरोध के नाम पर या फिर टी-20 वर्ल्ड कप में पाकिस्तान के हाथों भारत को मिली शिकस्त के समय कांग्रेसी जैसा प्रलाप कर रहें हैं,उससे तो यही लगता है कि मोदी राज में भारत की अंतरराष्ट्रीय पटल पर जब कभी किरकिरी होती है तो कांग्रेसियों को मानों ‘जश्न’ मनाने का मौका मिल जाता है। इसी लिए कांग्रेसी और गांधी परिवार के लोग सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगते हैं। कश्मीर से अस्थायी रूप से जारी धारा-370 हटाये जाने के मोदी सरकार के साहसिक फैसले के खिलाफ ‘मातम’ मनाते हैं। हाल यह है कि किक्रेट के मैदान में भारतीय क्रिकेट टीम को पाकिस्तान के हाथों शिकस्त मिलती है तो कांग्रेसी नेता सोशल मीडिया पर चटकारे लेते हैं। पाकिस्तान से भारतीय किक्रेट टीम को मिली हार के बाद कांग्रेस की नेशनल मीडिया कोऑर्डिनेटर राधिका खेड़ा ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘क्यों भक्तो, आ गया स्वाद? करवा ली बेइज्जती???’ बता दें कि सोशल मीडिया पर मोदी समर्थकों के लिए इस टर्म का इस्तेमाल किया जाता है. लिहाजा, कांग्रेस लीडर ने एक तरह से टीम इंडिया की हार को मोदी से जोड़ने का प्रयास किया. हालांकि, ये बात अलग है कि ये ‘प्रयास’ उन्हें बहुत भारी पड़ा है। वैसे यह भूलना नहीं चाहिए कि जिस ट्वीट को लेकर राधिका खेड़ा ट्रोल हो रही हैं,उस तरह के ट्वीट के ‘जनक’ गांधी परिवार और खासकर राहुल गांधी ही हैं,जिनसे प्रेरणा लेकर ही उनकी पार्टी के अन्य नेता भारत को मोदी समझने की भूल करते जा रहे हैं।  
      यह सिलसिला 2014 से मोदी के पीएम बनने से शुरू हुआ था जो आज तक जारी है और 2024 के लोकसभा चुनाव तक जारी ही रहेगा, इसको लेकर किसी में कोई संदेह नहीं है।क्योंकि मोदी विरोधी विमर्श खड़ा करने वालों की आतुरता लगातार बढ़ती जा रही है। यह लोग मोदी फोबिया के चलते देशहित में भी कुछ सुनने को ही तैयार नहीं हैं।गांधी परिवार को लगता है कि मोदी की इमेज को खंडित करके वह कांग्रेस के सुनहरे दिन वापस ला सकते हैं,लेकिन यह फिलहाल तो सपने जैसा ही लग रहा है। चुनावी रण्नीतिकार प्रशांत किशोर(पीके)ने इसको लेकर सटीक भविष्यवाणी की है।प्रशांत का कहना है कि भाजपा आने वाले कई दशकों तक भारतीय राजनीति में ताकतवर बनी रहेगी।वहीं राहुल के संबंध में प्रशांत का कहना था कि वह(राहुल गांधी) पीएम मोदी को सत्ता से हटाने के भ्रम में न रहें,जबकि राहुल गांधी कहते रहते हैं कि मोदी की सत्ता खत्म होना समय की बात है।
     भारतीय राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताया जाता है। एक तरफ कहा जाता है कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता है तो दूसरी ओर आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई होती है तो इसे सांप्रदायिकता से जोड़ दिया जाता है।वहीं जब कोई हिन्दू देशद्रोह के मामले में पकड़ा जाता है तो उसकी जाति बताई जाती है। इसी तरह से अपराध के किसी मामले में आरोपित यदि मुसलमान होता है, तो उसे साजिश के तहत फंसाये जाने की बात होने लगती है।उसे कोर्ट में ट्रायल से पहले ही बेगुनाह साबित कर दिया जाता है। आरोपित कोई हिंदू है तो उसे अदालत के फैसले से पहले ही अपराधी घोषित कर दिया जाता है।सबसे खास बात यह है कि मोदी के नाम पर भारत की छवि को चोट पहुंचाने की साजिश में नेता ही नहीं कई गणमान्य हस्तियां भी बढ़-चढ़कर लाबिंग करती हैं। इसी लिए कोई कहता है कि भारत अब रहने लायक नहीं रहा तो किसी को हिन्दुस्तान में डर लगता है।कोई व्यक्ति या कानून अच्छा है या बुरा, यह इस आधार पर तय होता है कि उसके तहत कार्रवाई किस पर हो रही है? सुशांत राजपूत के मामले में यह नहीं कहा गया कि एनडीपीएस एक्ट में खराबी है। जब एक पिता शाहरूख खान अपनेे बेटे के बारे में टीवी इंटरव्यू में कहता है कि वह चाहता है कि बेटा बड़ा होकर नशे का अनुभव ले, तो नतीजा तो यही होना था।बात यहीं तक सीमित नहीं है जब अपने स्टारडम को भुनाते हुए जब शाहरूख खान खतरनाक और जानलेवा पान मसाले का विज्ञापन करते हुए लोगों को इसे खाने के लिए  प्रोत्साहित करते हैं तो फिर बेटे पर इसका प्रभाव कैसे नहीं पड़ता होगा।इसी के चलते वह चार कदम आगे निकल गया। यहां एक और दिलचस्प बात का जिक्र करना जरूर है। आर्यन खान को बचाने में वरिष्ठ अधिक्ता मुकुल रोहतगी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसे कल तक भाजपा का एजेंट बताया जाता था।आर्यन खान की जमानत के लिए सुनवाई के समय जिस तरह से रोहतगी ने दलीले दी यानी शब्दों के बाण चलाए उससे शाहरूख के चाहने वाले लहालोट हुए जा रहे थे,आर्यन को जमानत मिलने से मुकेश रोहतगी के ‘माथे’ पर लगा साम्प्रदायिक का दाग भी धुल गया।
   हालात यह है कि  देश की सर्वाेच्च अदालतों तक को कुछ खास केसों में फैसला लेने में काफी कुछ सोचना पड़ता है। इसी के चलते कभी वह सीएए का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई आदेश नहीं पारित कर पाती है तो कभी किसान आंदोलन को लेकर मूकदर्शक बनी रहती है। अब न्यायपालिका को निशाने पर लेने में किसी को गुरेज नहीं होता है। हाल है कि कोर्ट के दरवाजे भले ही आम हिन्दुस्तानी के लिए रात में नहीं खुले,लेकिन यदि आतंकियों/अपराधियों को सजा से बचाने की कोशिश करने वालों के लिए आधी रात को कोर्ट बैठने से इंकार कर देती है तो मोदी विरोधी लोगों की नजरों में उसकी(कोर्ट की) प्रतिष्ठा गिर जाती है।न्यायपालिका के फैसले इस वर्ग को तभी स्वीकार होते हैं, जब वह इनके मन मुताबिक हो। मन मुताबिक की परिभाषा बहुत सरल है। वह केन्द्र की मोदी सरकार, प्रदेश की भाजपा सरकारों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ होना चाहिए। चुनाव आयोग भाजपा के खिलाफ हो तो निष्पक्ष है। जनादेश भाजपा के खिलाफ है तो जनतंत्र को मजबूत करता है और पक्ष में हो तो जनतंत्र ही खतरे में है। व्यक्ति और संस्था छोड़िए, इस पूर्वाग्रह से मशीन भी नहीं बची है। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से भाजपा विरोधी वोट निकलें तो ठीक, अन्यथा मोदी सरकार ने उसे हैक करवाया। तर्क एक ही है कि भाजपा कैसे जीत सकती है? 

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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