दहेजः कानून ही नहीं, कारगर सामाजिक प्रयास भी हैं जरूरी

केवल कृष्ण पनगोत्रा

कुछ साल पहले पंजाब के साथ लगते जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक महिला सुनीता (काल्पनिक नाम) ने अपने ही पड़ोस में रहने वाली एक महिला गीता (काल्पनिक नाम) की हत्या कर दी थी। कारण कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं था, जमीन-जायदाद का झगड़ा भी नहीं था। कारण यह था कि सुनीता को अपनी बेटी की शादी में दहेज के लिए गहनों की दरकार थी। सुनीता को मालूम था कि गीता के पास सोने के इतने जेवर हैं जिनसे बेटी के लिए जरूरत के गहने बनाए जा सकते हैं। दोनों पड़ोसी थीं, इसलिए सुनीता गीता के घर की कई चीजों की जानकारी रखती थी। 

दहेज के लिए होने वाली यह एक अजीब घटना थी। न बेटी ससुराल गई, न सास-ससुर, न देवर-ननद और न ही पति से बात-तकरार। फिर भी एक हत्या दहेज के लिए कर दी गई। दहेज विरोधी कानून की कोई भी धारा सीधे तौर पर यहां लागू नहीं होती लेकिन बुनियादी कारण तो दहेज ही था।

दहेज के इतिहास का पहला पन्ना यकीनन उसी समय से खुल जाता है जब मनुष्य ने समाज के रूप में रहना सीखा होगा। दहेज का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। जैसे-जैसे मनुष्य का सामाजिक विकास होता गया ,दहेज के साथ कई दूसरे आयाम भी जुड़ते गए। विश्व में कोई भी सामाजिक समूह या धर्म शायद ही दहेज से अछूता हो।

सामाजिक बुराई और विधि-विधानः

प्राचीन भारत में जनता दहेज के प्रति उदार थी। लोभ जैसी दृष्टि शायद ही तब रही होगी। लेकिन कालांतर में जैसे-जैसे दहेज के नकारात्मक परिणाम सामने आने लगे, इस पर समाज में चर्चा भी शुरु हुई। कहीं इसके लाभ तो कहीं हानियों पर भी मंथन होने लगा। मघ्यकालीन भारत तक दहेज का मारक स्वरूप सामने नहीं आया था। आम धारणा यही थी कि बेटे तो मां-बाप की जमीन-जायदाद के सदैव वारिस रहने वाले हैं लेकिन बेटियों का घर से खाली हाथ जाना मां-बाप को अपराध की भांति लगता था। दहेज तब तक ससुराल में दुल्हन की आर्थिक हैसियत का पैमाना नहीं था बल्कि माता-पिता का एक नैतिक कर्त्तव्य माना जाता था। दहेज आर्थिक हैसियत के अनुसार दिया जाता जिसका बेटी के ससुराल में शायद ही कोई ऐसा जिक्र होता जिससे कि लड़की को ससुराल में किसी प्रकार की कमतरीं का आभास होता। 

यहां यह भी माना जा सकता है कि मघ्यकालीन भारत में सामाजिक और नैतिक मूल्यों में उतनी गिरावट नहीं थी जितनी कि आधुनिक दौर में देखी जा रही है। आधुनिक भारत में दहेज के प्रति आम लोगों का नजरिया और मानसिकता बदलने लगी। दहेज के कारण लैंगिक असमानता सामने आने लगी। महिलाओं के परिवारिक और सामाजिक स्वाभिमान में कमी देखी जाने लगी। अर्थव्यवस्था में परिवर्तन से समाज में पूंजी, अर्थलाभ और आम जीवन में लोभ की वृत्ति का समावेश होने लगा। सेवाभाव, नैतिक और सामाजिक मूल्यों और धारणाओं में सतत कमी देखी जाने लगी। देखते ही देखते एक छोटी सी सामाजिक बुराई समूचे देश पर हावी हो गई। 

अग्रेजीं राज ने भी देश पर हावी होती इस बुराई को महसूस किया और भारत में अपराध संबंधी विधान में काफी बदलाव किए। भारतीय दंड संहिता, 1860 में धारा 304-बी जोड़कर दहेज मृत्यु को एक दंडनीय अपराध माना गया। स्वतंत्रा के बाद 1961 में ‘दहेज निषेध अधिनियम’ लाया गया। 1983 में ‘वैवाहिक क्रूरता’ के मद्देनजर दंड संहिता 1860 में संशोधन करके 498-ए को जोड़ा गया।

समाज में गिरते मानवीय मूल्यों की प्रवृत्ति से दंड संहिता की धारा 498-ए का दुरुपयोग भी होने लगा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो को यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो 498-ए का 98 प्रतिशत मामलों में दुरुपयोग भी किया गया है। 498-ए की सर्वाेच्च न्यायालय तक समीक्षा हो चुकी है और माननीय न्यायालय ने इसके दुरुपयोग को स्वीकार भी किया है। 

बाजारवाद का मारक पहलूः

दहेज की बुराई देश के कई क्षेत्रों में कम तो हुई है मगर समूल खात्मे के लिए फिर्फ कानून ही काफी नहीं हैं। जब समाज बाजार के शिकंजे में है और नैतिक-सामाजिक मूल्यों में सतत गिरावट दर्ज की जा रही हो तो भारतीय संदर्भ में कानूनी शिकंजे भी ढीले पड़ जाते हैं। समाज बाजारवाद की मानसिकता का शिकार है। यही मानसिकता दहेज संबंधी कानूनों के आड़े आ रही है। दिखावे की बाजारू अपसंस्कृति के कारण दहेज की पुरातन रीति आज के दौर में मारक रूप ले चुकी है। समाज के हर वर्ग की आर्थिक लिहाज से एक वर्गीय सीमा होती है। बाजर के आकर्षण के वशीभूत हर कोई अपनी वर्गीय आर्थिक सीमा रेखा को पार करने की दिखावटी होड़ में फंसा है। 

कभी-कभी सरकार तक को बाजार और पूंजी के आगे घुटने टेकने पड़े हैं। फरवरी 2017 में दिल्ली सरकार ने एक गेस्ट कंट्रोल आर्डर जारी किया। इसकी एक मिसाल जम्मू-कश्मीर राज्य में भी मिलती है। राज्य में मुफ्ती मुहम्मद सैयद के शासनकाल के दौरान बारात में मेहमानों की संख्या को रोकने के लिए गेस्ट कंट्रोल आर्डर लाया गया था। मगर सामाजिक हैसियत की मानसिकता और बाजार के आगे सरकार को लाचारी के सिवा कुछ हासिल नहीं हो सका। जब सरकार और कानून बेअसर लगने लगें ऐसे हालात में उस कुर्बानी की जरूरत पड़ती है जो सामाजिक और आर्थिक हैसियत की परवाह न करे। 

क्या किया जाए ?:

जब तक सामाजिक जागरूकता, नैतिक और सामाजिक मूल्यों को आज का मनुष्य ग्रहण नहीं कर लेता। जब तक समाज पर अर्थव्यवस्था और बाजारवाद के दुष्प्रभाव को समझ नहीं लेता, तब तक समाज के हाथ में कानून की ताकत किसी काम की नहीं। यहां यह बता देना भी जरूरी है कि दहेज को लेकर बनाए गए कानूनों और समाज के बीच कहीं आज का गलाकाट अर्थशास्त्र भी शामिल है। अजीब हालत है कि 498-ए को दहेज संबंधी क्रूरता से बचाने हेतु जिन महिलाओं के लिए बनाया गया उनके हाथों ही कानून का दुरुपयोग हुआ। सर्वोच्च न्यायालय तक को नए सिरे से व्यवस्था देनी पड़ी। स्पष्ट लग रहा है कि दहेज की कुरीति से लड़ने के लिए सरकारी प्रयासों के साथ-साथ परिवारिक और सामाजिक प्रयासों पर भी जोर दिया जाए। 

बेशक शिक्षा के विस्तार और जागरूकता के चलते युवा वर्ग समाज में फैली दुर्भाग्यपूर्ण परंपराओं का विरोध कर रहे हैं। लेकिन बाजार की शक्ति ने जो चलन पैदा किए हैं उनसे युवाओं के हौसले पस्त भी हो रहे हैं। ऐसे में समाज, खासकर सामाजिक संगठनों का यह दायित्व बनता है कि दहेज का विरोध करने वाले युवाओं और उनके मां-बाप को सम्मान दिया जाए। परिवार और समाज के ऐसे लोगों को हो सके तो ईनाम व सम्मान पत्र दे कर समाज में उनका मान बढ़ाया जाए। कुरीति का विरोध ही कुरीति को हतोत्साहित करता है। ऐसे लोगों को समाज में शाबासी मिलनी चाहिए जो कुरीतियों से लड़ने का हौसला दिखाएं। जब तक ऐसे क्रांतिकारी लोगों का समाज मिलकर सम्मान नहीं करता, बेटियां दहेज और लोभ की बलि चढ़ती रहेंगी। 

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