आदर्श ग्राम योजना का स्वप्न

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प्रमोद भार्गव

विकास की दृष्टि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाकई महत्वाकांक्षी हैं। इसलिए वे एक के बाद एक नई-नई योजनाओं को जमीन पर उतारने की पुरजोर कोशिश में लग गए हैं। महात्मा गांधी की जयंती 2 अक्टूबर को उन्होंने समग्र स्वच्छता अभियान की शुरूआत करते हुए खुद झाडू लगाई थी और 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण की जयंती पर ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना‘ की आधारशिला रख दी। चहुंमुखी और समावेशी विकास के लक्ष्य ग्राम,किसान और खेती को समृद्ध बनाए बिना संभव नहीं हैं। शहरीकरण के तमाम उपायों के बावजूद आज भी देश के सात लाख गांवों में 70 फीसदी आबादी रहती है। इसलिए दुनिया भारत को ग्रामों का देश कहती है। ग्राम विकास योजना का यह स्वप्न इसलिए अह्म है,क्योंकि समय के साथ बदलाव तेजी से आ रहे हैं,लिहाजा ऐसे में गांवों में बदलाव की प्रक्रिया तेज नहीं की गई तो गांव पिछड़ जाएंगे। गोया,उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ना समय की मांग है।

सांसद आदर्श ग्राम योजना का श्रीगणेश करते हुए प्रधानमंत्री ने दलगत राजनीति से उपर उठकर सभी सांसदों को 2016 तक एक गांव और 2019 तक महज तीन गांव गोद लेकर उनके समग्र विकास की जिम्मेबारी सौंपी है। एक सांसद के लिए यह लक्ष्य बहुत छोटा है। उनके पास पर्याप्त सांसद निधि होती है। स्थानीय राजनीति के वे नेतृत्वकर्ता होते हैं और प्रशासन उनके मार्गदर्शन में काम करने को बाध्य होता है। अपनी नेतृत्व दक्षता से इस ताने-बाने में समन्वय बिठाकर यदि सांसद लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता जताते हैं तो गांव का चौतरफा विकास आसान हो जाएगा।

अब तक सांसद व विधायक करते यह रहे हैं कि वे अपने कार्यकताओं की सिफारिश पर कार्यों के लिए सांसद निधि से राशि का आवंटन कर देते हैं। इसमें सांसद की कार्यकता को उपकृत करने की मंशा अंतनिर्हित रहती है। नतीजतन सांसद वंटित राशि से वाकई चिन्हित काम मौके पर हुआ अथवा नहीं सच्चाई को जानने की अनदेखी ही करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं,अव्वल तो काम हुआ ही नहीं होगा और वाईदवे हुआ भी होगा तो निर्धारित मापदण्ड और गुणवत्ता के अनुरूप नहीं हुआ होगा। यही वजह है कि पंचायतों के माध्यम से ग्राम विकास पर खरबों रूपए खर्च कर दिए जाने के बावजूद गांवों का समग्र विकास नहीं हुआ। किंतु धन के अटूट प्रवाह ने ग्राम-समाज को भ्रष्ट,अनाचारी और उद्दण्ड बनाने का काम जरूर कर दिया है। शायद ऐसे ही हालात का पूर्वाभास करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘हमारा प्राचीन आदर्श धन-संपत्ति में वृद्धि करने वाली गतिविधियों पर नियंत्रण रखना रहा है।‘ आदर्श गांव बनाने की प्रक्रिया में गांधी के इस सूक्ति वाक्य को भी ध्यान में रखना होगा।

प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर इस योजना की शुरूआत करते वक्त उल्लेख किया है कि ‘यह बहस जारी है कि गांव का विकास उपर से नीचे की और होना चाहिए अथवा नीचे से उपर की ओर ? ‘जब देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई थी,तब इसकी मूल अवधारणा में यह उदेश्य जुड़ा था कि ग्रामीण विकास नीचे से उपर की और हो। इसीलिए ग्राम सभाओं को पंचायत क्षेत्र में विकास कार्य चुनने का अधिकार दिया गया था। वैसे भी संसदीय क्षेत्र इतना बड़ा होता है कि किसी भी सांसद को प्रत्येक गांव की वास्तविक जरूरतों को जनना मुश्किल है। यह इसलिए और भी मुमकिन नहीं है,क्योंकि हमारे ज्यादातर सांसद अपने संसदीय क्षेत्रों में प्रवास यात्राओं पर आते हैं,उनका बांकी समय दिल्ली में बीतता है। संसदीय क्षेत्र में उनके स्थायी निवासी होने से तो कोई वास्ता ही नहीं रह गया है।

राज्यसभा सांसदों की तो और भी बुरी स्थिति है। वह इसलिए,क्योंकि वे राजनीति के पिछले दरवाजे से जोड़-तोड़ बिठाकर संसद में पहुंचते हैं और अक्सर अपना क्षेत्र भी बदलते रहते हैं। जाहिर है,वे राजनीतिक अवसर को भुनाने का काम करते हैं। लिहाजा क्षेत्र के विकास के प्रति उत्तरदायी नहीं रहते। इसलिए पंचयती राज के अस्तिव में आने के तत्काल बाद जो मुख्यमंत्री गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित थे और प्रशासनिक दृष्टि से उदारवादी रूख अपनाना चाहते थे,उन्होंने पंचायती राज के तहत विकास प्रक्रिया का क्रम नीचे से उपर की ओर कर दिया था। यानी कई राज्यों में विकास कार्यों के निर्णय से लेकर जनपद और जिला पंचायतों में सरकारी नौकरियां की नियुक्ति प्रक्रिया में भी पंचायत राज की अह्म भूमिका सामने आने लगी थी। ऐसे राज्यों में कर्नाटक,गुजरात महाराष्ट्र और अविभाजित मध्य प्रदेश प्रमुख रहे हैं।

जब पंचायती राज की प्रभावशाली भूमिका प्रकट हुई तो सांसद और विधायकों को लगा कि उनका महत्व नगण्य हो रहा है। नतीजतन विधायिका और पंचायती राज में जबरदस्त जंग छिड़ गया। विधायिका का आरोप था कि पंचायती राज को पर्याप्त अधिकार दे दिए जाने से सांसद और विधायकों के कार्य-क्षेत्र में सीधी कटौती हुई है और इनकी भूमिका संसद व विधानसभाओं में बैठे रहकर कानून मिर्माता के नुमाइंदे तक सिमट कर रह गई है। प्रशासन में उनका हस्तक्षेप लगभग समाप्त हो गया है। लिहाजा उपर से पंचायती राज के पर कतरना शुरू हो गए और विकास प्रक्रिया का क्रम फिर से बिगड़ने लग गया। हालांकि यह विरोध नैतिक व तार्किक कतई नहीं था। प्रजातंत्र की जिस प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के माध्यम से विधायिका को जो अधिकार मिलते हैं,उसी प्रणाली से पंचायती राज का वजूद जुड़ा है। दरअसल समावेशी लोकतंत्र अह्म के टकराव से नहीं,उदार मानसिकता से चलता है। विकास प्रक्रिया नीचे से चले इसीलिए प्रशासनिक सुधार आयोग ने ग्राम पंचायतों को और अधिक स्वायत्त एवं अधिकार संपन्न बनाने की सिफारिश केंद्र सरकार को की है। प्रधानमंत्री स्थायी रूप से विकास की प्रक्रिया यदि संविधान की सबसे छोटी इकाई ग्राम सभा से शुरू करना चाहते हैं तो आयोग की सिफारिशों पर भी अमल करें ?

गांव के समग्र विकास के हमारे पास दो गांव आदर्श ग्रामों के प्रतिदर्श हैं। एक गांव अन्ना हजारे की प्रेरणा से विकसित रालेगन सिद्धी है और दूसरा गुजरात का आधुनिकता से संपन्न गांव पुंसरी हैं। रालेगांव ऐसा गांव है,जहां पूरी आबादी शिक्षित होने के साथ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। पुरूष हो या महिला कोई भी बेरोजगार नहीं है। अन्ना हजारे के प्रयत्नों से जो कुल्हाड़ी बंदी,नसबंदी,नशाबंदी,घासचराई बंदी,श्र्रमदान,शिक्षा और जल संरक्षण की मुहिमें शुरू हुई तो न केवल रालेगांव बल्कि आस पास के साढ़े तीन सौ ग्रामों ने क्रांतिकारी व अप्रत्याशित विकास की राह पकड़ ली। आज अकेले रालेगांव से करोड़ो रूपए की प्याज का निर्यात होता है। अकाल अथवा सूखा जैसी अपात स्थिति से निपटने के लिए ‘अनाज-बैंक‘ खोल दिया गया है। इस विकास में किसी सांसद,विधायक अथवा नौकरशाह का कोई योगदान नहीं रहा। बावजूद यह भारत का ऐसा अनूठा आदर्श गांव है,जिसका दूसरा कोई उदाहरण नहीं है।

दूसरा विकसित गांव पुसंरी माना जा रहा है। जिसका योजना की शुरूआत करते हुए प्रधानमंत्री ने भी जिक्र किया है। यहां गली-गली में सीसीटीवी कैमरे हैं। सामुदायिक रेडियो है। उम्दा सफाई व्यवस्था है। आरओ-जल की सुविधा है। दूध का धंधा करने वाले पशुपालकों के लिए बस सेवा है। लेकिन सभी लोगों के पास रोजगार नहीं है। मसलन वे रालेगांव के लोगों की तरह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं। सभी लोग शिक्षित तो क्या साक्षर भी नहीं हैं। नशाबंदी पूरे गुजरात में लागू है,इसलिए पुंसरी में भी है। चुकी यह गांव प्रौद्योगिकी तकनीक से जुड़ा है,इसलिए इसे मौजूदा सोच व परिप्रेक्ष्य में विकसित माना जा रहा है। तकनीक से जुड़ा विकास,ऐसा विकास है,जो हमेशा अधूरा रहता है। क्योंकि तकनीक की एक उम्र होती है। इसके बाद वह बेकार हो जाती है और उसे दोबारा स्थापित करने के लिए फिर से बड़ी धनराशि की जरूरत पड़ती है। जिसके लिए सरकार की ओर मुंह ताकना पड़ता है। अब सोचना हमारे सांसदों को है कि वह कैसा विकास चाहते हैं,स्थायी अथवा अस्थायी। बहरहाल एक-एक करके ही सही देश के सांसद और विधायक गांव गोद लेकर उसके विकास की ठान लें तो गांवों के कायाकल्प का वातावरण बनना शुरू हो जाएगा और फिर गांव आप से आप विकसित होने लग जाएंगे।

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