खाध्य और खेती में चुनौंतियाँ सतत विकास के लक्ष्य में बाधा

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भारत डोगरा

2030 तक कृषि उत्पादन एवं आय को बढाने और भूख की भयावता को दूर करने के सतत विकास का लक्ष्य प्रशंसनीय है। लेकिन 12 वर्षों में इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारत को बड़े पैमाने पर नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता है। यदि हम सतत विकास लक्ष्यों की अतिरिक्त आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हैं तो उससे पहले हमें छोटे स्तरों से शुरुआत करनी होगी। छोटे उत्पादकों को लाभ पहुँचाने के साथ साथ महिलाओं और स्थानीय लोगों को सशक्त बनाने की ज़रूरत है। कमज़ोर वर्गों तक ज़मीन और सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों के आधार को मजबूत किया जाना चाहिए तथा पर्यावरण संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता पर विशेष ज़ोर देने के साथ स्थिरता को बढ़ावा देना चाहिए। अधिकांश लोग जो भूख, कुपोषण और गरीबी को कम करने के साथ-साथ पर्यावरण की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं, इस दृष्टिकोण के साथ दृढ़ता से सहमत होगे।

यह स्पष्ट है कि भूख को केवल तब ही कम किया जा सकता है जब खाध्य उत्पादन में वृद्धि करने की योजना के साथ छोटे स्तर के किसानों को भी जोड़ा जाए। इसके लिए भूमिहीन किसानों तक भूमि सुधारों और भूमि पुनर्वितरण के माध्यम से लाभ पहुंचाई जा सकती है ताकि वह छोटे किसानों के रूप में उभर सकें। जब90 प्रतिशत खाध्य उत्पादन इन वर्गों के खेतों से होता है तो एक तरफ जहां खाध्य उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि होती है तो वहीँ दूसरी ओर भूख और गरीबी में भी कमी आती है।

दूसरी तरफ यदि भूमि और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर सबसे कमज़ोर वर्गों के अधिकारों की उपेक्षा या उल्लंघन की जाती है, तो इसके बावजूद खेती के उत्पादन में कोई वृद्धि हुई है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इससे गरीबी और भुखमरी की संभावनाएं भी ख़त्म हो जाती हैं। कई अध्ययनों से पता चला है कि उत्पादकता आधार में वृद्धि के मामले में छोटे स्तर के किसानों के खेत सबसे उपयुक्त हैं। जब हम अतिरिक्त कारकों जैसे स्थिरता, पर्यावरण अनुकूल खेती, भूमि उर्वरता का पोषण और मिट्टी उर्वरता का संरक्षण के मामले में बात करते हैं तो छोटे स्तर के किसान व्यक्तिगत रूप से इसकी अधिक देखभाल करते हैं।

हालांकि यह विश्व के विभिन्न हिस्सों में किये गए अध्ययनों पर आधारित है परंतु भारत समेत अन्य विकासशील देशों ने खेती की इन नीतियों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 1951-52 से 1967-68 के बीच चावल, गेंहूं और मक्का का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 1968-69 से 1980-81 की तुलना में अधिक था जबकि इस दौरान रासायनिक उर्वरकों का बहुत कम स्तर पर प्रयोग किया गया था। इसके बावजूद सरकार स्वास्थ्य और पर्यावरणीय खतरों को नज़रअंदाज़ करते हुए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्याधिक प्रयोगों को न सिर्फ बढ़ावा दे रही है बल्कि इन्हें सब्सिडी भी प्रदान कर रही है, जिससे किसानों को भारी आर्थिक बोझ का सामना करना पड़ रहा है।

दूसरी ओर जैविक खेती को बहुत कम समर्थन प्राप्त होता है। हालांकि सरकार ने इसे बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत एक विशेष योजना शुरू की है। लेकिन दुर्भाग्यवश पिछले दो वित्तीय वर्षों में पहले से ही इसके बजट में कटौती की जाती रही है। जैविक खेती के लिए उपयुक्त बीज की उपलब्धता बहुत ही सीमित है। महंगा प्रमाणन प्रक्रियाओं पर ज़ोर एक और बाधा है। हालांकि जहाँ पहुंच बहुत ही सीमित है वहां समस्याओं को दूर करने के लिए छोटे छोटे कदम उठाये जा रहे हैं। महिला किसान पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं की अधिक सहयोगी हैं लेकिन निर्णय लेने की प्रक्रिया में ज़्यादातर उनकी भूमिका सीमित ही होती है। इसीलिए टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल खेती के उत्पादन के तरीकों के उद्देश्य को प्राप्त करने में कई तरह की रुकावटें आती हैं और यह समस्या आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों की उच्च तकनीक के कारण होती है जिससे समस्याओं में कई गुणा और अपरिवर्तनीय तरीके से वृद्धि हो सकती है।

खाद्य उत्पादन के संबंध में कमज़ोर वर्गों की मदद करने और उन्हें बढ़ावा देने के उद्देश्य से भूमि सुधार कार्यक्रम विशेष रूप से भूमि पुनर्वितरण से जुड़े घटकों का  हाल के वर्षों में सरकार द्वारा पूरी तरह से उपेक्षा की गई है। जबकि बाहरी बलों द्वारा ज़मीन हथियाने और अधिक से अधिक छोटे किसानों की ज़मीनों के अधिग्रहण की संख्या में लगातार वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ प्रयास किये गए थे, परंतु उसमे अपेक्षाओं से कम सफलता प्राप्त हुई है। दूसरी ओर सरकारी संरक्षण की वजह से औद्योगिक और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के कारण कई छोटे और माध्यम वर्ग के किसान तेज़ी से अपनी ज़मीन खोते जा रहे हैं। इस प्रतिकूल नीतियों के  कारण अच्छी सिंचाई की संभावनाओं के साथ साथ उपजाऊ और गुणवत्ता वाली ज़मीन की उपलब्धता प्रभावित हो रही है। यही कारण है कि धीरे धीरे अब छोटे स्तर के किसान खेती की बजाये किसी स्थिर रोज़गार धंधों की तरफ स्थानांतरित हो रहे हैं। इससे पहले की बहुत देर हो जाये वक़्त आ गया है कि इस विषय की गंभीरता को समझते हुए नीतिगत बदलावों पर ज़ोर दिया जाए।

स्पष्ट रूप से हमें महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव करने और संसाधन आवंटन में सुधार करने की आवश्यकता है ताकि भूख और कुपोषण को ख़त्म करने के लिए पर्यावरण के अनुकूल तरीकों का उपयोग करते हुए ग्रामीण आजीविका में महत्वपूर्ण टिकाऊ सुधारों से संबंधित स्थाई विकास के लक्ष्यों को तैयार किया जा सके। यह ऐसे समय में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब जलवायु परिवर्तन के साथ साथ सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक और राजनितिक स्तर पर अन्य कई बाधाएं विकराल रूप लेने को तैयार हों। हालांकि खेती और अन्य ग्रामीण आजीविका पर जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव व्यापक रूप से रहा है और हाल ही के समय में कई जगहों पर बाढ़ और सूखा की स्थिति का भी सामना किया गया है, इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए पर्याप्त संसाधनों का आवंटन नहीं किया गया है। जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय योजना ‘नेशनल अडॉप्टेशन प्लान’ के लिए पिछले वर्ष आवंटित 110 करोड़ रूपए में इस वर्ष किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गई है। ऐसा ही कुछ मामला जलवायु परिवर्तन कार्य योजना के साथ भी है।

एक उम्मीद की जा सकती है कि आवश्यक नीति परिवर्तन समय पर आ सके ताकि भारत खाद्य, पोषण, खेती और ग्रामीण आजीविका के संदर्भ में सतत विकास लक्ष्यों के करीब पहुँचने के रास्ते पर अच्छी और स्थिर प्रगति कर सके। इस संदर्भ में भारत की आबादी के विशाल आकार को ध्यान में रखते हुए पूरी दुनिया में ग्रामीणक्षेत्रों विशेषकर किसानों की प्रगति से ही भारत की प्रगति देखी जाएगी।

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