नरक के द्वार खोलता है दवा परीक्षण

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संदर्भ :- ड्रग टायल पर स्वास्थ्य अधिकार मंच की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी

drug-trialप्रमोद भार्गव

जिस मनुष्य पर दवा परीक्षण किया जाता है उसके लिए तिल-तिल मरने के द्वार खोल देता है, यह ड्रग टायल ! लेकिन विडंबना देखिए की यही स्थिति दवा परीक्षण कराने वाली कंपनियों और चिकित्सकों को मुनाफे का सौदा, मसलन स्वर्ग के द्वार खोलने वाला साबित होता है। दवा परीक्षण की स्वर्ग-नरक वाली इस पौराणिक अवधारणा से तुलना कर सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने स्वास्थ्य अधिकार मंच, इंदौर की जनहित याचिका पर सख्त टिप्पणी की है। न्यायालय ने केंद्र सरकार को हिदायत दी है कि एक माह के भीतर सभी राज्यों के मुख्य सचिवों की बैठक बुलार्इ जाए। इसमें दवा परीक्षण की मौजूदा कानूनी स्थिति और दवा कंपनियों की निगरानी व्यवस्था पर गंभीरता से विचार किया जाए। जिससे गैरकानूनी दवा परीक्षणों पर अंकुष लगे।

दवाओं के गैर कानूनी तरीकों से होने वाले परीक्षणों पर देश की शीर्ष न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगार्इ है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारों पर कोर्इ असर दिखार्इ नहीं दे रहा है। पिछलें करीब तीन साल से देश के कोने-कोने से चिकित्सीय परीक्षणों के दुष्प्रभाव के चलते लगातार मौतों की खबरें आ रही हैं। गरीब लोगों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। बावजूद परीक्षण में लगी दवा कंपनियों, अस्पतालों और चिकित्सकों के लालच व मनमानियों पर केंद्र व राज्य सरकारें  प्रतिबंध लगाने में नाकाम हैं। मध्यप्रदेश के कर्इ अस्पताल और उनके चिकित्सक गैर कानूनी ढंग से दवा परीक्षण के दोषी भी साबित किए जा चुके हैं बावजूद प्रदेश सरकार कोर्इ स्पष्ट कानून न होने का बहाना करके दोषियों को बख्शती चली आ रही है।

इंसानों पर गैर कानूनी तरीके से दवाओं के नाजायज परीक्षण के मामले पर सुंप्रीम कोर्ट ने सख्त रवैया अपनाते हुए केंद्र और म.प्र. सरकार को पहले भी कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि यदि सरकार अवैध क्लीनिकल ट्रायल पर गंभीर नहीं होती है तो उसे खुद गंभीर कदम उठाना पड़ सकता है, जो भविष्य में सरकार और विभिन्न फार्मा कंपनियों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। कोर्ट ने इस बात पर भी नाराजगी जतार्इ कि बार-बार जानकारी मांगने के बावजूद केंद्र व राज्य सरकारें संतोषजनक उत्तर नहीं दे रहीं हैं। ऐसे में शीर्ष न्यायालय ने दवा परीक्षण के लिए गरीब लोगों को बलि का बकरा बनाए जाने पर चेतावनी दी है कि हम एक लार्इन का दिशा निर्देश देकर तमाम लोगों को प्रभावित करने वाले दवा परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। यह मामला बेहद गंभीर है। इसलिए केन्द्र व राज्य सरकारें उल्लेखित चार बिंदुओं पर तुरंत जबाव दें। ये चार मुददे हैं, 1. 1 जनवरी 2005 से 30 जून 2012 के बीच दवा परीक्षणों के लिए केन्द्र सरकार को मिले आवेदनों की संख्या। 2. दवा परीक्षणों से हुर्इ मौतों (यदि कोर्इ हुर्इ है तो) उनकी संख्या और मौतों की प्रकृति की जानकारी। 3. दवा परीक्षण के गंभीर दुष्प्रभावों, यदि ऐसे दुष्प्रभाव हैं तो उनकी संख्या और उनकी प्रकृति के बारे में जांच प्रतिवेदन। 4. दवा परीक्षण के दुष्प्रभावों के पीडि़तों या उनके परिजनों को कोर्इ मुआवजा दिया गया है या नहीं की जानकारी।

यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि मानवीयता और नैतिकता के सभी तकाजों को ताक पर रखकर देश एवं म.प्र. में दवा परीक्षण के लिए मरीजों के जिस्म को कच्चा माल मानते हुए प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। ये दवा परीक्षण नाजायज तौर से भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों के लिए बने भोपाल मेमोरियल अस्पताल और इन्दौर के यशवंतराव होल्कर सरकारी अस्पताल में किये जा रहे हैं। किशोर और कम उम्र के बच्चो पर भी ये परीक्षण धड़ल्ले से किए जा रहे हैं। ड्रग कंट्रोलर जनरल द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गर्इ जानकारी में बताया गया है कि दवा परीक्षण के दौरान देश भर में चार साल के भीतर 2031 मौतें हुर्इ हैं। इनमें से केवल 22 मृतकों के परिजनों को मुआवजा दिया है। इस सिलसिले में याचिकाकर्ता अमूल्य निधि, चिन्मय मिश्र एवं बैलू जार्ज का कहना है कि दवा परीक्षण में पारदर्शिता का अभाव है। क्योंकि जिन पर परीक्षण किया जाता है उन्हें उनके अधिकारों की जानकारी नहीं है। लिहाजा हम चाहते हैं कि आल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क के सदस्यों को मिलाकर विशेषज्ञों की एक समिति बनार्इ जाए जो देश – विदेश में क्लीनिकल ट्रायल संबंधी प्रावधानों को देखें और दिशा निर्देश तय करने के लिए सिफारिशें करें।

भोपाल गैस पीडि़तों के लिए काम करने वाले संगठन भोपाल ग्रुप फार इंफार्मेशन एण्ड एक्शन ने दावा किया है कि अब तक गैस पीडि़तो ंपर किये परी़क्षण में करीब 10 लोग जान गवां चुके हैं। इसी तरह इंदौर में 869 लाचार व गरीब बाल-गोपालों की देह पर निर्माणाधीन दवाओं का चिकित्सकीय परीक्षण कर उनकी सेहत के साथ खिलवाड़ किया गया। एक दिन के बच्चे पर भी ये दवा परीक्षण किए गए। इस नाजायज कारोबार को अंजाम अस्पताल के करीब आधा दर्जन चिकित्सा विशेषज्ञों ने दो करोड़ रूपए बतौर रिश्वत लेकर किये। हैरानी यहां यह भी है कि ये परीक्षण सर्वाइकल और गुप्तांग कैंसर जैसे रोगों के लिए किए गए, जिनके रोगी भारत में ढूंढने पर भी बमुशिकल मिलते हैं। इस क्लीनिकल ड्रग एवं वेक्सीन ट्रायल का खुलासा एक स्वयंसेवी संस्था ने किया। बाद में इसे विधायक पारस सखलेचा और उमंग सिंघार द्वारा विधानसभा में पूछ्रे गए एक सवाल के जबाव में प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य राज्यमंत्री महेन्द्र हार्डिया ने मंजूर किया कि 869 बच्चों पर दवा का परीक्षण बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने इंदौर के सरकारी महाराजा यशवंतराज चिकित्सालय में किया।

जिन 869 बच्चों पर परीक्षण किए गए उनमें से 866 पर टीका और तीन बच्चों पर दवा का परीक्षण किया गया। ये सभी परीक्षण विश्व स्वास्थ्य संगठन की बजाय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने कराए। ये आंकड़े केवल दो साल के हैं। जबकि प्रदेश में छह साल से आदिवासियों समेत गरीब बच्चों पर दवाओं व टीकों के परीक्षण जारी हैं। इसीलिए षीर्श न्यायालय ने 2005 से जून 2012 के बीच हुए सभी दवा परीक्षणों की जानकारी मध्यप्रदेष सरकार से तलब की है। परीक्षण के दौरान कुछ बच्चों की मौतें भी हुर्इ हैं। लेकिन इन बच्चों का किसी स्वतंत्र पेनल से शव विच्छेदन नहीं कराया गया। इसलिए यह साफ नहीं हो सका कि मौतें परीक्षण के लिए इस्तेमाल दवाओं के दुष्प्रभाव से ही हुर्इं ? इस बावत आरटीआर्इ कार्यकर्ता एवं चिकित्सक डा. आनंद राय का कहना है कि दरअसल ऐसी स्थिति में खुद चिकित्सक नहीं समझ पाते कि प्रयोग में लार्इ जा रही दवा से मरीज को बचाने के लिए कौनसी दवा दी जाए। इसलिए इन प्रयोगों के दौरान रोगी की स्मरणशकित गुम हो जाना, आंखों की रोशनी कम हो जाना और शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता घट जाना आम बात है।

दवाओं का ऐसा ही प्रयोग भोपाल गैस दुर्घटना के पीडि़तों पर भी भोपाल मेमोरियल अस्पताल में किया गया है। भोपाल ग्रुप फार इंफार्मेशन एण्ड एक्शन समाज सेवी संगठन में सतीनाथ षडंगी और रचना ढिंगरा ने दावा किया है कि केंद्रीय दवा नियंत्रण संगठन नर्इ दिल्ली से प्राप्त जानकारी के अनुसार गैस पीडि़तो ंपर सात दवाओं की जांचों में से मात्र एक पर ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया द्वारा निगरानी रखी गर्इ। तीन गैस पीडि़तों की मृत्यु उनके ऊपर टेलिवैक्सीन दवा की जांच की वजह से हुर्इ, जबकि पांच फानडापरिनक्स और दो टाइगेसाइकलीन दवा के परीक्षण के वजह से मारे गए। इन परीक्षणों के लिए दवा कंपनियों से कुछ अस्पताल के ही चिकित्सकों ने एक करोड़ से अधिक की धन राशि वसूली।

इंदौर के अस्पताल में वर्ष 2010 में ही 44 बालक-बालिकाओं पर सर्वाइकल कैंसर और गुप्तांग कैंसर के लिए वी-503 टीका का परीक्षण किया गया। गुप्तरूप से किए जा रहे इन परीक्षणों का खुलासा एक स्वयंसेवी संस्था के साथ मिलकर इसी अस्पताल के चिकित्सक डा. आनंद राय ने किया तो एक जांच समिति गठित कर मामले को दबाने की कोशिश की गर्इ। इस समिति ने लाचारी जताते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा कि दुनिया में ऐसा कोर्इ कानून नहीं है कि जिसके जरिए दवाओं के ऐसे परीक्षणों पर रोक लगार्इ जो सके। इस आधार पर न तो समिति के सुझावों को अमल में लाया जा सका और न ही परीक्षण के लिए दोषी आधा दर्जन चिकित्सकों के विरूद्ध कोर्इ कार्रवाही की जा सकी। यहां इस सवाल को गौण कर दिया गया कि चिकित्सकों ने दवा कंपनियों से मोटी रकम तो निजी लाभ के लिए ली, लेकिन संसाधन सरकारी अस्पताल के उपयोग में लिए ? क्या अस्पताल के साथ यह धोखाधड़ी नहीं हैं ?

जिन जानलेवा बीमारियों पर इंदौर में दवाओं का परीक्षण किया गया, वे बीमारियां मध्यप्रदेश में तो क्या भारत में ही कम होती हैं। चरित्रहीनता के चलते ये बीमारियां योरोपीय देशों के गोरों में ज्यादा होती हैं। वहां का जलवायु भी इन बीमारियों की मानव शरीर में उत्पत्ति का एक कारण माना जाता है। इसलिए ये प्रयोग अनैतिकता की ऐसी विडंबना हैं कि हम विदेशियों के लिए अपने लोगों की जान लेने में कोर्इ रहम नहीं बरतने की गुंजार्इश छोड़ते हैं। यदि ये परीक्षण टीबी, चिकुनगुनिया, कुपोषण, फेल्सीफेरम और मलेरिया जैसे रोगों पर उपचार की कारगर दवा इजाद करने के लिए किए जाते तो किसी हद तक गुप्त रूप से किए जाने के बावजूद इनके औचित्य को जायज ठहराया जा सकता था। क्योंकि इन्हीं बीमारियों की गिरफ्त में सबसे ज्यादा भारतीय आते हैं और समय पर इलाज नहीं होने के कारण मरते भी बड़ी संख्या में हैं।

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