नशे की चंगुल में फंसते युवा

कुणाल कुमार

युवा शक्ति का लोहा दुनिया भर में माना जाता है। किसी वर्ग में ही निहित है। भारत की युवाशक्ति ने भी विश्‍व मंच पर अपना लोहा मनवाया है। दुनिया के कई देशों में भारतीय युवा अपने कौशल से उसे सजाने सवांरने का कार्य कर रहे हैं। विश्‍व की महाशक्ति अमेरिका की प्रगति में भी भारतीय युवा शक्ति अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। इसी के बल पर ही हम 2020 तक विश्‍व आर्थिक महाशक्ति बनने और विकास की दौड़ में चीन को पीछे छोड़ने का दम भरते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि युवा ऊर्जावान होते हैं जिनमें समाज परिवर्तन की क्षमता होती है। यदि इसकी क्षमता को उचित दिशा में मोड़ दिया जाए तो कई सृजनात्मक संरचना को बल मिल सकता है। मगर सच्चाई यह भी है कि आज का युवा भारत नशे की चुंगल में फंसता जा रहा है। बड़े-बड़े महानगरों की बात तो छोड़ दें अब तो लखनऊ, पटना, रायपुर, भुवनेश्‍वर जैसे शहरों में भी युवा आबादी शराब और अन्य नशे की लत में जकड़ती जा रही है। ऐसे में हमें विकास के मॉडल पर बात करने से पहले इस विषय पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। कहा भी गया है कि कभी-कभी पांच कदम आगे चलने के लिए दो कदम पीछे भी हटना पड़ता है। विकास की पटरी पर दौड़ते भारत को जरूरत है पक्के इरादे और उन्नति की आकांक्षा रखने वाले युवाओं की, न कि नशे की नकारात्मक उर्जा से संचालित नौजवानों की।

समस्या की जड़ गहरी अवश्‍य है परंतु इसका हल संभव है। सर्वप्रथम हमें यह सोचना होगा कि आखिर हमारे युवाओं में शराब के प्रति रूझान क्यों बढ़ा है। यदि हम इस पर गौर करें तो कई बातें सामने आती हैं। 90 के दशक में भारत में ग्लोबलाइजेशन की शुरूआत ने देश में मुक्त बाजार की संभावनाओं को खोलकर रख दिया। इस बाजारी व्यवस्था ने हमारी अर्थव्यवस्था के साथ साथ समाज के विभिन्न क्षेत्रों को भी प्रभावित किया। वास्तव में बाजार एक लहर के समान होता है जो अपने साथ साथ अपनी संस्कृति भी लाता है। इसमें कोई शक नहीं है कि खुले बाजार की नीति ने हमारी अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विश्‍व अर्थव्यवस्था में भारत एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है। दुनिया ने भारत की श्रम शक्ति और इसके उत्पाद को सराहा है। परंतु दूसरी ओर यह कहने में भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इस बाजारी संस्कृति ने नशे की प्रवृति विशेषकर युवाओं में इसके आकर्षण को बढ़ाने में बहुत अधिक रोल अदा किया है। उदारीकरण अथवा ग्लोबलाइजेशन के तेजी से बढ़ते युग ने भारतीय संस्कृति की जगह मिश्रित संस्कृति को जन्म दिया। इस संस्कृति ने धीरे धीरे संयुक्त परिवार के उस सकंल्पना को नकार दिया जिसमें एक बुजुर्ग की छत्रछाया में पूरा कुनबा सुकून पाता था, इसकी जगह एकल परिवार ने ले ली जहां आजादी के नाम पर माता-पिता और बच्चों के बीच भी दीवार खड़ी हो गई। जहां खुले माहौल में अभिभावकों द्वारा बच्चों पर निगरानी का अभाव साफ देखने को मिलता है। दूसरी ओर इस संस्कृति ने स्वंय युवाओं में दो वर्गों को जन्म दिया जहां उच्चवर्ग के युवा को विरासत में मिला बेहिसाब पैसा उन्हें नशे की ओर खींच रहा है वहीं मध्यमवर्गीय परिवार के युवाओं के सामने नौकरी के सीमित अवसर और उसके खोने पर उनमें बढ़ता हुआ तनाव उन्हें नशा का आदि बना रहा है। बहुत हद तक इसने हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न किया है। नशे के बढ़ते लत के कारण समाज में अपराध और यौन शोषण जैसी बुराईयां भी आम होती जा रही हैं।

हमें आधुनिकता के नाम पर गंदगी को कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए। आज हमारे युवाओं पर हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का दबाब है। जाहिर है सीमित विकल्प होने के कारण हर युवा सफल नहीं हो सकता है ऐसे में वह अपने तनावों से उबरने के लिए नशा का ही सहारा लेता है। सरकार को सोचना होगा कि इससे कैसे उभरा जाए। कठिनाई तो यह है कि सरकार एक तरफ शराब को गलत मानती है वहीं दूसरी तरफ इसी विभाग से उसे सबसे ज्यादा आय भी प्राप्त होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार केवल राजधानी दिल्ली में ही पिछले वर्ष अप्रैल से दिसंबर माह के दौरान दिल्ली सरकार को शराब की बिक्री से 1,707 करोड़ रूपए की आमदनी हुई। जो 2000-01 के मुकाबले चार गुणा अधिक है। बाजारी व्यवस्था का यह मूलमंत्र है कि वह हर चीज में फायदा खोजता है। उसका कारोबार देश हित से भी बढ़कर हो जाता है। इस संस्कृति के लिए युवा वर्ग भी केवल एक उपभोक्ता है। व्यवसाय समाज की आवश्‍यकता की पूर्ति से ज्यादा नई जरूरतों को गढ़ने का कार्य करती है। ऐसे ही जरूरतों को बाजार की संस्कृति ने युवाओं के बीच पैदा किया जिसका नाम है नशा।

वस्तुत: उदाकरीकरण के बाद से हमारे देश में युवाओं के बीच शराब की खपत और भी ज्यादा हो गई है। बड़े बड़े अभिनेता, अभिनेत्री, मॉडल, गायक की नशाखोरी की खबरें और इनसे उठने वाले गर्द-गुबार युवाओं में नशे के प्रति खास आकर्षण पैदा करता है। ऐसे में हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि इस ओर विशेष ध्यान दें। विशेषज्ञों का मानना है कि युवा शक्ति की उर्जा का सकारात्मक कार्यों में उपयोग सरकार और समाज दोनों की ही सामूहिक जिम्मेदारी है। यदि हमें प्रगतिशील भारत की कल्पना को साकार करना है तो युवाओं में नशे की आदत पर काबू पाना अत्यंत आवश्‍यक है। तभी हम विकास की दौड़ में चीन को पीछे छोड़ने में कामयाब हो सकेंगे। (चरखा फीचर्स)

1 COMMENT

  1. कुणाल कुमार जी आप लोगोगों की याददास्त बहुत कमजोर है.मैं मानता हूँ कि आर्थिक उदार वाद ने कुछ लोगों की आमदनी बढाई है,पर इस नशे की आदत का पूर्ण दोष उसपर नहीं थोपा जा सकता और न संयुक्त परिवार का विघटन नबे के दशक में आरम्भ हुआ है.पीने और पिलाने की आदत या परिवार विधटन का आरम्भ पञ्च वर्षीय योजना के आरम्भ के साथ ही हो गया था. प्रथम पञ्च वर्षीय योजना के साथ ही विदेशी कर्ज की बहुतायत हो गयी थी और उसी के साथ आरम्भ हुआ था बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार ,परिवार का विघटन और नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों का ह्रास.ह हम लोगों के आदत है किजब यथा स्थिति बदलती है तो लगता है कि सारा दोष उसी में निहित है और पुरानी बातों को विस्मृत कर जाते हैं.इसी लिए मैं इस पूर्ण नैतिक पतन के पनपाने का दोष उस पीढी के सर मढ़ता हूँ जो आजादी के बाद जवान हुई थी.उन्होंने भ्रष्टाचार ,पारिवारिक विघटन और नैतिक ह्रास का जो विरवा रोपा था वह बढ़ते बढ़ते अब इतना बड़ा हो गया है.आज हमारे पास कोई आदर्श नहीं रह गया है जिसका हम अनुसरण या अनुकरण कर सके,अत बादकी किसी एक पीढी के माथे यह दोष नहीं मढ़ा जा सकता याकिसी आर्थिक परिवर्तन को भी इसके लिए दोषी नही ठहराया जा सकता.आज समाज में कितने वुजुर्ग है जो अनुकरणीय हैं?
    ऐसे भारत की युवा शक्ति सचमुच में इस विनाश कारी आदतों से छुटकारा पा ले तो वह कुछ भी करने में समर्थ है,पर आज जो लोग समाज में कुछ प्रभाव रखतें हैं उनका रूप भी तो वैसा ही है जिससे कोई प्रेरणा नहीं मिलती.

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