पानी की कमी के चलते उजड़ते पक्षी अभ्यारण्य

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प्रमोद भार्गव

भारत में पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की चेतावनी परिंदे दे रहे हैं। पानी की जो कमी अब तक मानव आबादियां किया करती थीं,उसे अब देशी-विदेशी पक्षियों की प्रजातियां भी करने लगी हैं। इस पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने के कारण पक्षियों के जीवन चक्र पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही कारण है कि विश्व प्रसिद्ध घना पक्षी अभ्यारण्य के अलावा अन्य अभ्यारण्यों की मनोरम झीलों पर जो परिंदे हर साल हजारों की संख्या में डेरा डाला करते थे,वे इस साल नदारद हैं। विदेशी मेहमान पक्षी तो हजारों किलामीटर की यात्रा कर देश की उथली झीलों,तालाबों,दलदल (वैटलैंड) और नदियों के किनारों पर चार माह बसेरा किया करते थे,उनकी संख्या में आशातीत कमी आई है। बदलती आबोहवा के चलते कई परंपरागत आवास स्थलों पर इन प्रवासी-पक्षियों ने शगुन के लिए भी पड़ाव नहीं डाला। यह स्थिति पर्यावरणविदों के लिए तो चिंताजनक है ही,पर्यटन व्यवसाय की दृष्टि से भी गंभीर चेतावनी है।

केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य, (भरतपुर) देश में एक ऐसा मनोरम स्थल था,जहां प्रवासी पक्षियों का सबसे ज्यादा जमावड़ा होता था। इस कारण यहां देश व दुनिया से सबसे ज्यादा सैलानी पहुंचते थे। लेकिन इस साल तालाब सूखे रह जाने के कारण यहां मातमी सन्नाटा है। नतीजतन परिंदे तो रूठे ही, पर्यटक भी रूठ गए। साइबेरियन सारसों का भी यही प्रमुख ठिकाना हुआ करता था। यह पक्षी अभ्यारण्य 29 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। हरियाली से आच्छादित इस भू-खण्ड के 11 किमी क्षेत्र में उथली झीलें और विभिन्न प्रजातियों के लगभग 45 हजार पेड़ हैं। इन्हीं पेड़ों पर पक्षी घोंसले बनाकर अद्भुत रासलीला का आनंद उठाते थे। इसी काम-क्रीड़ा को देखने सैलानियों का जमावड़ा यहां बना रहता था। प्राकृतिक रूप में केलि-क्रीड़ा व आहार को शिकार बनाने के करतब देखने के लिए यहां एक टॉवर का भी निर्माण किया गया है,जिस पर चढ़कर सैलानी इन पक्षियों के स्वछंद विचरण का आनन्द उठाते थे। जाड़ों की शुरूआत के साथ ही हजारों की संख्या में सैलानी पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता था। पिछले साल इन पक्षियों की संख्या लाखों में थी लेकिन अब हजारों में सिमटकर रह गई। वर्षा के चलते भी सुरहा ताल लबालब नहीं भर पाया। पक्षियों की कमी का एक कारण यह भी है कि तालाब खाली रहने से किसानों ने यहां खेती की शुरूआत कर दी। अब यहां गेहूं, अरहर व सरसों की फसलें लहलहा रही हैं।

दरअसल इस झील में पानी की कमी आते ही पांचना बांध से पानी छोड़कर इसे लबालब भर दिया जाता था। पांचना बांध के अस्तित्व में आने से पहले यहां स्थित झील व तालाबों के लिए पानी का मुख्य स्त्रोत गंभीर नदी हुआ करती थी। लेकिन कुछ समय पूर्व इस नदी को रोककर करौली जिले में पांच नदियों का संगम बनाकर पांचना बांध बना दिया गया। इस बांध से अब घना को पानी दिए जाने की बजाए सिंचाई के लिए पानी दिए जाने की प्राथमिकता राजनीति के स्तर पर बनी रहती है। लिहाजा घना को पानी बमुश्किल अथवा बड़ी जद्दोजहद के बाद ही मिल पाता है।

इस साल ये पक्षी ऐसे रूठे कि एक भी सारस ने घना में अपना ठिकाना नहीं बनाया। अन्य प्रजातियों के जो पक्षी आए हैं उनकी संख्या भी पिछले सालों की तुलना में आधी से भी कम रही है। इन खूबसूरत प्रवासी पक्षियों की अनुपास्थिति के कारण ‘टूरिज्म एण्ड वाइल्ड लाइफ सोसायटी ऑफ इण्डिया ने घना पर्यटन कार्यक्रमों को लगभग रद्द कर दिया है। वर्तमान में इस अभ्यारण्य को विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि यदि यहां पानी के पर्याप्त व पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए तो अभ्यारण्य को विश्व धरोहर के मानक श्रेणी से बाहर किया जा सकता है। यदि जलापूर्ति करके घना की वीरानी दूर नहीं की गई तो जो स्थानीय लोग सैलानियों की आमद से अपनी आजीविका चलाते हैं उनकी रोजी-रोटी छिन जाने का खतरा भी बढ़ जाऐगा।

इसी क्षेत्र में गंगा और घाघरा नदियों की मैदानी तलहटियों में भी पक्षियों के झुण्ड आया करते थे,लेकिन अब यह पूरा इलाका पक्षियों की बाट जोहता दिन गिन रहा है। कुछ प्रजातियों के पक्षी आए भी हैं किंतु उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक है। इस क्षेत्र में पक्षियों का शिकार करने के कारण भी संख्या घटी है। दरअसल मांस की विभिन्न किस्मों को खाने के शौकीन,शिकारियों को मुंह मांगे दाम देने को तैयार रहते हैं,इस कारण शिकारियों के क्रूर हाथ पक्षियों को नहीं बख्शते। इस भय के चलते सुरहा तालाब और गंगा व घाघरा नदियों के किनारों पर इक्का-दुक्का साइबेरियन पक्षी डेरा डालते भी हैं तो जल्द उठा भी लेते हैं। यहां मध्य एशिया,रूस,चीन और अफगानिस्तान जैसे देशों से हजारों किमी की यात्रा करके सितम्बर-अक्टूबर में पक्षियों की जमातों का सिलसिला शुरू हो जाता है। किंतु इस बार इनके बसेरे सुने हैं।

भरतपुर के घना पक्षी अभ्यारण्य के बाद शिवपुरी जिले की दिहायला झील प्रवासी पक्षियों के लिए मशहूर थी। यहां आने वाले विदेशी परिंदों की संख्या दो लाख तक दर्ज की गई है। लेकिन इस बार इस झील की सतह पर मातमी सन्नाटा है। यहां सींखपर (पिनटेल) बड़ी संख्या में आते थे। नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी मुंबई के पक्षी विशेषज्ञों द्वारा यहां किए गए शोधों के मुताबिक सींखपर एक प्रकार की बत्तख होती है। इसकी पूंछ सुई जैसी होती है,इसलिए इसे सींखपर कहते हैं। इनके पैरों में डाले गए छल्लों के अध्ययन से पता चला है कि दिहायला में ही नहीं पूरे भारत वर्ष में सींखपर रूस के कैस्पियन सागर और साइबेरिया क्षेत्रों से आते हैं।

इस झील का पानी सिंचाई के लिए मुहैया कराने से झील में पानी रूकना बंद क्या हुआ, लिहाजा पक्षी भी रूठने लग गए। शिकार के चलते भी पक्षी भयभीत हुए हैं। वन और राजस्व भूमि के विवाद को लेकर भी इन महकमों में यहां जंग छिडी हुई है। इस कारण भी सोन चिड़िया अभ्यारण्य,करैरा में आने वाली यह झील बरबाद हुई। शिवपुरी के ही चांदपाठा और घसारई तालाब में हजारों की संख्या में प्रवासी परिंदे आते थे लेकिन इस बार दोनों तालाबों से विदेशी परिंदे नदारद हैं। झीलों में बढ़ते जल प्रदूषण के चलते यह स्थिति निर्मित हुई है। चांदपाठा तालाब में इंजन से चलने वाली नौका विहार ने भी पक्षियों के सहज आवास में खलल डाला है। यदि सैलानी पक्षियों का नैसर्गिक आनंद लेना है तो नौकायन बंद करना जरूरी है।

पंजाब में व्यास और सतलज नदियों के मुहाने और नंगल व रोपड़ के दलदली क्षेत्र में भी लाखों की तादात में प्रवासी पक्षी आते थे। इस क्षेत्र को इसी कारण हरिके पक्षी अभ्यारण्य घोषित किया गया। यहां साइबेरिया,अफगानिस्तान,पाकिस्तान और बांग्लादेश से पक्षी आकर ठण्डों में पड़ाव डालते थे। एक समय पक्षियों के आहार,प्रजनन और केलि-क्रीड़ा के लिए यह स्थान जितना अनुकूल व उपयुक्त था उतना ही नदियों में बढ़ते प्रदूषण,भोजन की कमी और चोरी-छिपे शिकार के चलते प्रतिकूल व अनुपयुक्त हो गया। इन वजहों से पंजाब के इन रमणीय स्थलों पर देशी-विदेशी पक्षियों की संख्या तेजी से घट रही है। यहां यह सवाल भी उठने लगे हैं कि इन परिंदों की संख्या इसी क्रम में घटती रही तो एक समय यहां पक्षियों का मधुर शोर एकदम ठहर जाएगा। शोर ठहरा तो पक्षी भी ठहर जाएंगे।

प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डॉ. सालिम अली ने इस दलदली झील के प्राकृतिक महत्व का अनुभव करते हुए यहां आने वाले पक्षियों पर नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के शोधार्थियों से 1982 में अध्ययन भी कराया था। इन अध्ययनों से पता चला था कि ग्रे हेरोन नाम का पक्षी एक हजार सात सौ किमी की दूरी तय करके रूस की बुलकुश झील से पंजाब आया था। बुलकुश के पक्षी विज्ञानियों को इस पक्षी के पैरों में बंधा छल्ला खोलने पर यह जानकारी मिली थी कि यह पक्षी पंजाब की प्रवास-यात्रा से लौटा है। इस दलदली क्षेत्र में 210 प्रकार की पक्षी नस्लों की पहचान की जा चुकी है। परंतु इस बार यहां बमुश्किल 40 प्रजातियों के ही पक्षी आए हैं। दलदल में बढ़ती जलकुंभी भी पक्षियों के सहज आवास में एक बढ़ी बाधा के रूप में उभरी है। प्रवासी पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार लगातार तीसरी मर्तबा भी इन पक्षियों की संख्या कम रही। कई दुर्लभ पक्षियों ने बमुश्किल सप्ताह भर डेरा डाला। वातावरण की अनुकूलता न पाने पर ये पक्षी गोविन्द सागर झील की ओर रूख कर गए।

विशेषज्ञों की यह भी राय है कि भोजन चक्र बिगड़ने से पक्षियों की आमद कम हुई। इसकी प्रमुख वजह बढ़ता औद्योगिक प्रदूषण माना जा रहा है। प्रवासी पक्षियों का मुख्य भोजन छोटी मछलियां या इन से ही मेल खाते जीव-जंतु व कीड़े-मकोड़े हैं। लेकिन औद्योगिक प्रदूषण, सीवेज का पानी,इलेक्ट्रोनिक कचरा और घरेलु प्लास्टिक कचरे के झीलों में जमा होने से आहार की उपलब्धता घटी, नतीजतन पक्षी भी घट गए।

जीव विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि जलीय पारदर्शिता समाप्त होने की वजह भी,पक्षियों की संख्या कम होने का एक कारण है। इस वजह से पक्षियों को भोजन तलाशने में कठिनाई तो होती ही है, समय भी ज्यादा लगता है। कारखानों से निकले पानी के सतलज और व्यास नदियों में मिलने से पारदर्शिता का संकट उत्पन्न हुआ। रोपड़ इंटरनेशनल वैटलैंड ने एनएफएल थर्मल प्लांट और सीमंट फेक्ट्री से निकले प्रदूषित पानी के सतलज में मिलने को खतरनाक बताया है। इस जल की शुद्धि के लिए हाल ही में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सतलज की सफाई के लिए दो सौ करोड़ की एक योजना मंजूर की है। लेकिन इस धन राशि से क्या नतीजे निकलेंगे यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है।

पूरे देश में मांस के शौकीनों की बढ़ती संख्या ने भी प्रवासी पक्षियों को संकट में डाला है। इन पक्षियों का मांस बेहद मंहगा बिकता है,लिहाजा शिकारियों को दाम भी अच्छे मिलते हैं। जिंदा और मरे पक्षियों का कारोबार इधर खूब फल-फूल रहा है। इन पक्षियों को पकड़ने के कई तरीके अपनाए जाते हैं। शिकारी झील क्षेत्रों में बेहोशी की दवा दानों में मिलाकर डाल देते हैं। इसे खाने से पक्षियों के बेहोश होते ही शिकारी इन्हें पकड़ लेते हैं। नशीली दवा खाने से बेहोश या दम तोड़ चुके पक्षी को खाने से मानव स्वास्थ्य पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। क्योंकि नमक डले पानी से मांस का शोधन करने से दवा का असर एकदम खत्म हो जाता है। यदि बेहोश चिड़िया को नमक मिले पानी में डूबो दिया जाए तो पक्षी की बेहोशी टूट जाती है और कुछ ही देर में वह वह मूर्छा-मुक्त हो जाता है।

इन पक्षियों को थोक में पकड़ने के लिए शिकारी रात के सन्नाटे का भी लाभ उठाते हैं। शिकारी एक ओर जाल पकड़कर बैठ जाते हैं और दूसरी तरफ से थाली व खाली कनस्तर बजाकर शोर करते हैं। इस आतंकित ध्वनि प्रदूषण से पक्षी ध्वनि की विपरीत दिशा में सीधी उड़ान भरते हैं और जाल में उलझ जाते हैं। शिकार पर न वन अमले का कोई अंकुश है और न ही पुलिस का। नतीजतन शिकार की तादात निरंतर बड़ रही है। यदि प्रदूषण और शिकार से मुक्ति के उपाय नहीं तलाशे गए तो तय है कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब प्रवासी पक्षी मनोरम भारतीय झीलों से हमेशा के लिए रूठ जाएं ?यहां की शीतल हरियाली स्निग्ध सुगंध,और पोषक आहार की बहुलता देशी-विदेशी पक्षियों के ठहरने,प्रजनन करने और स्वछंद उड़ान भरने के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करती है। साइबेरिया में जब सिंतबर-अक्टूबर से रक्त जमा देने वाली सर्दी शुरू होती है,तब तापमान शून्य से 40 डिग्री नीचे चला जाता है। चारों ओर बर्फ का साम्राज्य छा जाता है। ऐसे प्रतिकूल समय में दुर्लभ सारस व विभिन्न नस्लों के बहूरंगी पक्षी भारत व एशिया के अनुकूल ठिकानों की ओर समूहों में उड़ान भरते हैं। और करीब पांच हजार किमी की दूरी तय कर मनोरम झीलों में अस्थायी ठौर बनाते हैं।

हरदोई जिले में तीन पक्षी विहार हैं, नवाबगंज, लाखबहोशी और सांडी। नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी मुंबई के सदस्य और पक्षी विशेषज्ञ डॉ. केके रस्तोगी का दावा है कि इन पक्षी विहारों में प्रवासी परिंदों की संख्या आधी से कम रह गई है। 224 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इस विहार की परिधि में दो दर्जन गांव है। इसकी उथली झील कमल,जलकुंभी, शैवाल, नारगुजरिया के झाड़-झंखाड़ों से ढकी रहती है। इन पर बनाए घरौदों में टफ्टेड पोचर्ड,कॉमनटील,गाडर्बाल,ग्रीनलैंड, वाइपर,वाइट स्ट्रोक, टेंड प्रेस्टिड, पंचर्डटील, छोटा लालसर विजन,ओपन विलस्टार,कामनडक,विसिलिंग टील आदि पक्षी करीब चार माह तक डेरा डाले रहकर समय गुजारते हैं।

डॉ. रस्तोगी ने इस बार इन पक्षी विहारों की सैर करने के बाद नेचुरल हिस्ट्री मुंबई के लिए जो रिपोर्ट तैयार की है उसमें खुलासा किया है कि इस मर्तबा केवल 35 प्रजातियों के सैलानी पक्षी देखने में आए हैं। इनमें भी साइबेरिया से आए पक्षियों की संख्या बमुश्किल चार-पांच है। इसके पूर्व दो सौ प्रजातियों के पक्षी यहां बसेरा करने आते थे। अपनी रपट में डॉ. रस्तोगी ने बताया है कि पूरी झील में एक हजार से ज्यादा परिंदे नहीं हैं। इनमें सबसे ज्यादा छह सौ की संख्या में टफ्टेड पोचर्ड हैं। रपट में सारस पांच और मार्श हैरियर की संख्या दो बताई गई है। रपट में खुलासा किया है कि कम पानी और घास के चलते आहार की कमी हुई है, जिसकी वजह से परिंदों ने मुंह मोड़ा हुआ है। जलवायु परिवर्तन से आए मौसम में बदलाव ने भी मेहमान पक्षियों की संख्या घटाई है। सांडी पक्षी विहार में इस साल 17.270 विदेशी पक्षी आए, जबकि पिछले साल इनकी संख्या 25625 थी। पक्षियों की आमद में यह गिरावट जलवायु परिवर्तन का संकेत है। उत्तर प्रदेश के ही बलिया जिले का सुरहा ताल मेहमान पक्षियों का आसान ठिकाना रहा करता था। किंतु अब इस तालाब से भी पक्षियों ने किनारा कर लिया है।

इधर देश की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी समुद्री चिल्का झील भी प्रदूषित हो रही है। इस कारण इसे देशी-विदेशी पक्षी बसेरा नहीं बना रहे। नतीजतन सैलानियों की आमद थम गई है। यहां के पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए आजीविका का संकट बड़ गया है। लिहाजा चिल्का विकास प्राधिकरण झील के पानी की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए प्रयत्नशील हुई है। जल,वनस्पति और झील को आवास,आहार एवं प्रजन्न का स्थल बनाने वाले जीव-जंतुओं पर शोध की तैयारी भी की जा रही है। यह शोध ‘आर्द्रभूमि शोध एवं प्रक्षिण केंद्र करेगा। इसके तहत झील में जलपाफी एवंज जीव -जतुओ पर अध्ययन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साथ मिलकर किया जाएगा। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में सीआईएफआरआई के साथ विश्व बैंक के सहयोग से चल रहे एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना के तहत मछली पारिस्थितिकी और विभिन्न तथ्यों के बारे में अध्ययन किया जाएगा। बहरहाल आधुनिकी विकास झीलों,तालाबों और नदियों के लिए प्रदूषण का ऐसा कारण बन गया है,जिससे इंसान तो इंसान पक्षी रूठने लगे है।

 

 

 

 

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