हिदुत्व के व्यापक विरोध के कारण गनजवी 10 प्रतिशत भारत भी नही जीत पाया था

आनंदपाल के पश्चात उसके पौत्र भीमपाल ने अपने महान पूर्वज राजा जयपाल की वीर और राष्टभक्ति से परिपूर्ण परंपरा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। इस शिशु राजा को पुन: कुछ अन्य राजाओं ने सैन्य सहायता देने का निश्चय किया। अत: एक बार पुन: देशभक्ति का एक रोमांचकारी वातावरण देश में बना। राजा ने झेलम नदी के तट पर बालानाथ की पहाड़ियों में मार्गला घाटी में महमूद का सामना करने के लिए स्थान का निर्धारण किया। यहां इस स्थान पर छापामार युद्घ को अच्छी तरह लड़ा जा सकता था, लेकिन नवयुवक राजा ने ऐसा न करके सीधे सीधे सामना करना ही उचित समझा। देश की इस राष्ट्रीय  सेना के लिए यह पहला अवसर था जब उसे पहाड़ों के बीच ऐसा युद्घ लड़ना पड़ रहा था। फलस्वरूप वीरता पर क्रूरता हावी हो गयी और हम युद्घ हार गये। यह घटना 1014 ई. की है।
राजा भीमपाल ने लुटेरे को मार भगाया
अगले ही वर्ष महमूद ने फिर भीमपाल पर हमला किया। पर इस बार राजा भीमपाल ने इस लुटेरे आक्रांता को पीछे धकेलकर देश से बाहर भगाने में सफलता प्राप्त की। परंतु महमूद गजनवी ने 1018ई. में उस पर फिर आक्रमण किया और इस बार सारे पश्चिम एशिया से छंटे हुए लुटेरों और आततायियों को सम्मिलित कर वह भारत की ओर बढ़ा। महमूद गजनवी के विशाल दल को देखकर तथा अपने साथ इस बार किसी अन्य राजा को न पाकर राजा ने संधि करना ही श्रेयस्कर समझा। महमूद गजनवी और आगे बढ़ा तथा बुलंदशहर के राजा हरदत्त को हराकर मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर खड़े विशाल मंदिर को नष्ट कर दिया गया और भारी मात्रा में लूट का सामान प्राप्त कर लिया गया। प्रो. हबीब कहते हैं कि इस बार लूटते समय मालूम होता है कि ईर्ष्या से महमूद गजनवी का माथा पागल हो गया था।
विदेशी इतिहासकारों की दुरंगी बातें
भारत के विषय में विदेशी इतिहासकारों की बातें नितांत दुरंगी हैं। यदि हमारे रामायण कालीन और महाभारत कालीन पात्रों तथा उनके वैभव और विकास की बातें होने लगें तो ये लोग उन सब बातों को काल्पनिक कहकर उन्हें मूल्यहीन सिद्घ करने का प्रयास करते हैं। परंतु द्रोपदी के पांच पति होने के गप्प को भी सच मानकर हमारी संस्कृति का उपहास उड़ाते हैं। द्रोपदी के तो इस गप्प को सच मानते हैं और राम व कृष्ण आदि के अस्तित्व को ही नकारते हैं। कैसी बिडंबना है?
इसी प्रकार इतिहास बता रहा है कि भारत के सांस्कृतिक वैभव को सोमनाथ से भी पहले मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि को अपमानित करके नष्टï किया गया था। परंतु हमें बता दिया गया कि कृष्ण तो वैसे ही काल्पनिक हैं, इसलिए उनके जन्मस्थल पर खड़े मंदिर के नष्टï होने से अधिक दुखी होने की बात नही है। बीते हुए कल की ऐसी दुखद घटनाओं को तो हमें इसलिए भूलने के लिए कहा जाता है कि बीती ताहि बिसार दे और आगे की सुधि लेहि, वाली बात ध्यान में रखो और आज जो कुछ हो रहा है उसे धर्मनिरपेक्षता छाप सहिष्णुता को अपनाने की बात कहकर भूलने की अपेक्षा की जाती है।
‘शैतानÓ से कोई नही कहता कि तू अपनी शैतानियों को छोड़ और जो अब तक शैतानियां की हैं उन पर प्रायश्चित कर। उसे बिगडै़ल बच्चा समझकर ‘सब सुधर जाएगाÓ वाली स्थिति में रखकर क्षम्य माना जाता है और देश के बहुसंख्यकों को नितांत मर्यादित रहने की शिक्षा दी जाती है। यह तो अच्छी बात है कि हमें नितांत मर्यादित रखा जाए, परंतु यही बात ‘बिगडै़ल बच्चेÓ पर भी लागू होनी चाहिए। वह सदियों से बिगडै़ल है और क्या आने वाली सदियों तक बिगड़ैल ही रहेगा?
….और तब तक हमारा क्या होगा?
कृष्ण जन्म भूमि का कण-कण हमसे यही प्रश्न कर रहा है। हमने कुरूक्षेत्र के कृष्ण की गीता को उनके नाम पर बढ़ाते बढ़ाते इतना भारी कर दिया कि उनकी मूल वाणी ही कहीं विलुप्त हो गयी, उनकी द्वारिका को समुद्र ने विलुप्त कर दिया, उनके मंदिर को महमूद ने विलुप्त कर दिया और उनकी ऐतिहासिकता को विदेशी इतिहासकारों ने विलुप्त कर दिया। हमने विलुप्त के इस अंतहीन क्रम के अतिरिक्त अपने ‘योगीराज कृष्ण को और दिया ही क्या है? स्वयं अपने ही विषय में अनभिज्ञ रहने के आदी हो चुके हैं हम लोग। श्रीकृष्ण को वैसे और दे भी क्या सकते हैं? यदि हम कुछ नही कर सकते हैं तो ेहमारी ओर से हमारे राष्टधर्म का प्रो. हबीब देखिए किन शब्दों में निर्वाह कर रहे हैं :-
महमूद असीम संपत्ति में लोटता था। भारतीय उसके धर्म से घृणा करने लगे। लुटे हुए लोग कभी भी इस्लाम को अच्छी नजर से नही देखेंगे?….जबकि इसने अपने पीछे लुटे मंदिर बर्बाद शहर, और कुचली लाशों की सदा जीवित रहने वाली कहानी को ही छोड़ा है। इससे धर्म के रूप में इस्लाम का नैतिक पतन ही हुआ है, नैतिक स्तर उठने की बात तो दूर रही। उसकी लूट 30,00,000 दिहराम आंकी गयी है।
क्या हिंदू कायर थे
विदेशी आक्रामकों की क्रूरता के सामने भारत की वीरता हारी हुई देखकर अक्सर लोग हिंदुओं को कायर कह देते हैं। अपनों ने हमें ‘कायर मान लिया, उन्होंने ‘काफिर मान लिया, जबकि अंग्रेजों ने हमें ‘टायर्ड (थकी हुई मानसिकता से ग्रस्त) मान लिया और देखिए कि हम इन तीनों पुरस्कारों को ही अपनी पीठ पर लादे फिर रहे हैं। यदि कोई ये हमसे कहे भी कि इन को उतारो, फेंको अथवा छोड़ दो तो हम ऐसा कहने वाले पर ही गुर्राते हैं। शेर सयारों में बहुत दिन रह लिया तो अपने शेरत्व को ही भूल गया है। हिंदू कायर आदि नही था। वह हर स्थान पर और हर वस्तु में नैतिक नियमों की पवित्रता का समर्थक था। व्यापक नरसंहार, स्त्रियों के साथ दानवीय अनाचार और बच्चों तक के साथ अमानवीय अत्याचार भारत की, युद्घ शैली में कभी सम्मिलित नही थे। पूर्णत: वर्जित थे ये अमानवीय कृत्य। मुस्लिम आक्रामकों की युद्घ शैली में पहली बार ऐसे कृत्य देखकर हिंदू इन आक्रामकों के प्रति घृणा से भर गया। यही कारण रहा कि कभी भविष्य में भी ये दोनों विचारधाराएं निकट नही आ सकीं। इसलिए यह भी दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत में किसी हिंदू मुस्लिम नाम की मिश्रित संस्कृति का निर्माण भी नही हुआ। संस्कृति तब निर्मित होती है, जब आपकी नैतिकता और मेरी नैतिकता समान स्तर की हों, तो वे मिलते ही परस्पर घुल मिल जाती हैं। जबकि यहां शिवाजी अपने शत्रु की पुत्रवधू को अपने खेमे में आने पर भी लौटा रहे हैं और वो हमारी बहू बेटियों को लूट का माल समझ रहे हैं। कैसे आप इसे मिश्रित संस्कृति कहेंगे? जैन, बौद्घ, पारसी और सिक्खों ने कभी ऐसा कृत्य नही किया, इसलिए वह हमारी वास्तविक संस्कृति के अंग बन गये और आज तक हैं। यही सोच भारत की संस्कृति के सर्वाधिक निकट है। आप हिंदुओं की देश धर्म के प्रति असीम भक्ति देखिए कि हर बार के आक्रमण के साथ गजनवी हजारों स्त्री पुरूषों व बच्चों को दास बनाकर ले जाता था, उनका फिर एक मेला लगाता था। जिसमें अरब के लोग उन्हें अपनी वासना पूर्ति या अन्य कार्यों के लिए खरीदते थे जो इस पकड़ में आ जाते थे वो आजीवन यातना झेलते थे और जो नही आते थे, वो अपनों के बिछुड़ने  की पीड़ा से कराहते रहते थे-परंतु फिर भी देश धर्म के प्रति श्रद्घा बनाए रखी, असीम यातनाओं को लंबे काल तक झेलना भी कायरता नही शूरवीरता ही होती है।
कन्नौज के अपघाती शासक को दण्ड
कन्नौज का दुर्भाग्य रहा है कि वहां कई जयचंदों ने जन्म लिया है। महमूद गजनवी के काल में कन्नौज के शासक ने उसके सामने फटाफट आत्मसमर्पण कर दिया था और अपनी प्रजा पर असीम अत्याचारों को मूक होकर देखता रह गया था। यह बात कालिंजर और ग्वालियर के राजाओं को अच्छी नही लगी थी। इन राजाओं ने मिलकर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और प्रजा पीड़क राजा से कन्नौज की प्रजा को मुक्ति दिलाकर अपने राजधर्म का पालन किया। इन दोनों राजाओं की राष्ट्रीय  भावना यहीं तक सीमित नही रही उन्होंने महमूद के आक्रमण को रोकने के लिए राजा भीमपाल और उसके पिता त्रिलोचन पाल की सहायता करने का भी निश्चय किया। 1019 ई. के शीतकाल में महमूद ने पंजाब की ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई। दुर्भाग्य रहा इस देश का कि त्रिलोचन पाल की सेना युद्घ से पहले ही बिखर गयी। उसकी सेना की ये स्थिति देखकर सहायक राजाओं का भी मनोबल टूट गया। तब महमूद गजनवी को इस सेना का जो कुछ भी माल पल्ले पड़ा उसे ही लेकर वह चला गया। हमारी अहिंसा परमो धर्म: की नीति हमारे लिए घातक सिद्घ हुई। फिर भी अलबरूनी ने भीमपाल राजा के वंश के विषय में लिखा है:-वे उच्च विचार और सभ्य आचार के महान व्यक्ति थे। अपनी महानता के कारण वे अच्छे और सच्चे  कामों को करने में कभी भी पीछे नही हटे। अंतिम जीवित उत्तराधिकारी भीमपाल अजमेर के राय के पास चले गये। वहां 1029 ई. में उनका देहांत हो गया।
शत्रु के मुंह से भी प्रशंसा निकलना किसी के व्यक्तित्व की महानता को नमन करना ही होता है। हमें स्मरण रखना होगा कि अवरोध की निर्बल पड़ती परंपरा के कारण महमूद गजनवी ने लाहौर को हमसे छीनकर वहां मुस्लिम शासक की नियुक्ति कर दी थी। यह राज्य पंजाब के कल्लूर शासकों की राजधानी रहा था। महमूद ने भारत की धरती पर लूटमार और आक्रमण तो कई किये थे, पर शासन स्थापित करने का उसका ये कार्य पहला ही था। सन 1022 में महमूद ने ग्वालियर और कालिंजर पर आक्रमण किया। यहां से वह कुछ लूट का माल लेकर लौट गया।
वीर सेल्यूक हिंदू जाति
वृहत्तर भारत अत्यंत विस्तृत था। आज हम जिस भारत को देखते हैं वह तो उस समय के महाभारत का अत्यंत लघु रूप है। महमूद गजनवी के समय समरकंद (समरखण्ड) के पास एक वीर हिंदू सेल्यूक जाति रहती थी। इसके योद्घाओं की उस समय धाक थी। उनके आसपास से गजनवी कई बार निकलकर भारत की ओर आया, परंतु उनसे कभी युद्घ का खतरा मोल नही लिया। ये लोग भी अपने देश धर्म के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे और उन्हें यह पसंद नही था कि कोई उनके देशधर्म को किसी प्रकार से क्षति पहुंचाए। महमूद भी इन लोगों से सीधे टकराने और उन्हें समाप्त करने से बचता था। एक बार उसने इन लोगों को अपने मूल स्थान से उठाकर अन्यत्र बसाने का निश्चय किया।  जिससे उसका इस्लामी राज्य पूर्णत: मुस्लिम माना जाए। इसी सोच के वशीभूत होकर महमूद ने सेल्यूकों को परशियन के चरागाहों में जा बसने को कहा। उस समय तो सेल्यूकों ने उसका प्रस्ताव स्वीकार  कर लिया परंतु गजनवी के मरने के पश्चात इन्हीं सेल्यूकों ने उसका साम्राज्य छिन्न भिन्न करने में विशेष योगदान देकर पिछले पापों का प्रतिशोध लिया था। जब ये लोग महमूद के समय में स्थान परिवर्तन कर नदी पार कर रहे थे तो कहा जाता है कि इन्हें नदी में ही डुबोकर मारने का परामर्श गजनवी को उसके सैन्याधिकारियों ने दिया था। परंतु महमूद का इनकी वीरता से ऐसा करने का साहस नही हुआ था। निश्चित ही  इन सेल्यकों के योगदान पर अभी भी विशेष शोध की आवश्यकता है।
सोमनाथ पर आक्रमण
सोमनाथ का मंदिर उस समय के सर्वाधिक संपन्न मंदिरों में गिना जाता था। कहा जाता है कि इस मंदिर के पास जितनी धन संपदा उस समय थी उसका सौवां भाग भी किसी राजा के पास नही था। अत: ऐसे धन संपदा संपन्न मंदिर पर महमूद जैसे लुटेरे की दृष्टिï ना पड़े ऐसा कैसे संभव था? इसलिए उसने अक्टूबर 1025ई. में इस मंदिर पर आक्रमण करने के आशय से गजनवी से प्रस्थान किया। जनवरी 1026 में उसने मंदिर पर आक्रमण किया। मंदिर में दो सौ मन सोने की एक जंजीर थी। मंदिर के प्रांगण में स्थित पाषाण स्तंभ भी स्वर्णावेष्टिïत थे। 3000 ऊंटों पर व हजारों घोड़ों और हाथियों पर मंदिर का खजाना लादकर ले जाया गया था।
उस समय के लिए कहा जाता है कि सारे  राजस्थान के राजपूत राजाओं ने वापस लौटते महमूद को घेरने की योजना बनाई थी, लेकिन उसने मार्ग परिवर्तन कर लिया और दूसरी ओर से निकल गया। तब रास्ते में उसे जाटों ने मुलतान में घेरने का प्रयास किया था, लेकिन वह जाटों से भी बच गया था। गजनवी पहुंचकर वह मुलतान के जाटों से प्रतिशोध लेने पुन: आया। जाटों को बड़ी यातनाएं दी गयीं और उनकी पत्नियों को मुस्लिम लुटेरे अपने साथ ले गये। सोमनाथ के मंदिर का पूर्णत: विध्वंस मचा दिया गया था।
महमूद ने कितना भारत जीता
अब हम 1030 की बात कर रहे हैं। 30 अप्रैल को इसी वर्ष महमूद मृत्यु का ग्रास बना। वह उस समय 63 वर्ष का था। मूलत: वह लुटेरा था, परंतु फिर भी उसने भारत के पश्चिम में एक इस्लामिक साम्राज्य खड़ा कर लिया था। यह साम्राज्य कुछ अफगानिस्तान में तो कुछ पाकिस्तान में और कुछ आज के पंजाब के क्षेत्र से मिलकर बना था। उस समय के भारत का यह लगभग 10 प्रतिशत भाग ही होगा। शेष 90 प्रतिशत भारत तो तब भी स्वतंत्र था। 1030 में हम 10 प्रतिशत की हानि झेल रहे थे जबकि सन 712 ई. से मुस्लिम आक्रांता हमारे भूभाग को हड़पना चाह रहे थे। 318 वर्ष में उन्हें 10 प्रतिशत की अस्थायी सफलता मिली। जबकि हम संघर्ष के 318 वर्षों में अपने 90 प्रतिशत भूभाग को बचाए रखने में सफल रहे। दुर्भाग्य है इस देश का कि जो 318 वर्षों में 10 प्रतिशत सफल हुए उन्हें तो शत प्रतिशत अंक दिये गये और जिन्होंने मात्र 10 प्रतिशत ही विदेशी शत्रु को सफल होने दिया उन्हें पूर्णत: असफल मानकर शून्य अंक दिये गये। कितना बड़ा छल, कितना बड़ा प्रपंच, और कितना बड़ा झूठ है ये? जिसे हम सदियों से ढोते आ रहे हैं। इसी छल के कारण हमारे भीतर यह धारणा बैठा दी गयी कि मौहम्मद बिन कासिम यहां आया और उसने आते ही भारत को हथकड़ी बेड़ी लगायी और पराधीनता की कारावास में डाल दिया और अगले 1235 वर्ष तक यह देश पराधीनता की कारावास में पड़ा सड़ता रहा। अपने पुरूषार्थ और पौरूष पर अपने आप ही पानी फेरने का ऐसा अपघात किसी अन्य देश में होता नही देखा जाता। सचमुच हमें इतिहास बोध नही है, यदि इतिहास बोध होता तो हम अब तक अपना वास्तविक इतिहास लिख डालते।
डकैतों का वंदन राष्ट्रघात है
राजा जब अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण करता है तो ऐसे आक्रमण राजनीतिक उद्देश्य से किये जाते हैं, जिनके प्रतिशोध में कई बार आपकी ओर से भी आक्रमण हो सकता है। जहां युद्घों का ऐसा आदान प्रदान होता है वहां युद्घों से होने वाली क्षति भी क्षम्य होती है। परंतु जहां लूट और नरसंहार आक्रमण का एक मात्र उद्देश्य हो वहां ऐसे आक्रमण को लूट व नरसंहार की घटना मानकर आक्रांता को डकैत अथवा मानवता का हत्यारा कहना ही उचित होता है।
भारत ने कभी सिकंदर के यूनान पर आक्रमण नही किया भारत ने कभी गजनवी या गोरी के देश पर भी चढ़ाई नही की, इसलिए इनको लुटेरा ही कहा जाएगा। परंतु इन्हें महान कहकर हमें पढ़ाया गया है। जो हीरो थे और वास्तव में महान थे वे तो जीरो हो गये और जो जीरो थे वो हीरो या महान कहकर प्रस्तुत किये गये। छल व कपट का ऐसा ताना बाना भारतीय इतिहास पर चढ़ाया गया कि आज तक वह उतारे से भी उतर नही रहा है। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार और क्रूरता कभी सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित कराने में सहायक नही हो सकते और ना ही इन कार्यों को कभी महान माना जा सकता है, तो फिर भारतीय इतिहास में ऐसा क्यों पढ़़़ाया जा रहा है?mehmood gajnavi
Previous articleभारतीय राज्य पुनर्गठन –एक दृष्टि
Next articleऔटिज़्म
राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

3 COMMENTS

  1. राकेश कुमार आर्य जैसे इतिहासकार इस देश की सच्ची निधि हैं..मैंने उनकी किताबें भी पढी हैं. इतिहास पर उनकी अतर्दृष्टि कमाल की है. उनको राष्ट्रीय सम्मान मिलना चाहिए.

  2. Indians need to know the true history but since independence the anti India ,pro Muslim Congress has been in power and ruling with the same policy of divide and rule now they have divided every community for votes to win the elections ,so truth will not be taught unless and until Congress and Nehru- Gandhi dynasty is destroyed ,now there is opportunity to hang the Congress politically to free India.

  3. पराभव का इतिहास पढ़ने के पीछे वास्तव में देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत का शिक्साह विभाग हिंदुत्व विरोधियों के हाथ में रहना था.वैसे तो कुछ लेखकों ने जवाहरलाल नेहरु जी के दादाजी का नाम गंगाधर नेहरु एक छद्म नाम होना बताया है और लिखा साईं की वो वास्तव में बहादुरशाह ज़फर के समय दिल्ली का कोतवाल था.अतः नेहरूजी का प्रारंभ से ही हिंदुत्व विरोध स्पष्ट हो जाता है.और मौलाना आजाद प्रारंभिक वर्षों में देश के शिक्षा मंत्री रहे थे. अतः उनसे हिन्दू पराक्रम से सम्बंधित इतिहास को पाठ्यक्रम में शामिल करने की आशा व्यर्थ थी.आशा की जाये की भविष्य में हिंदुत्व के अधर पर आने वाली सर्कार इस ओर ठोस कदम उठाएगी.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here