सिद्धार्थ शंकर गौतम
१२ दिसंबर को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने को कहा कि वे सड़क किनारे रात गुजारने को मजबूर लोगों के ठंड से बचाव की पर्याप्त व्यवस्था करें| न्यायलय का यह आदेश था कि इस वर्ष कोई भी ठंड से मरना नहीं चाहिए| राज्य सरकारें फुटपाथ पर गुजर करने वालों के लिए सर्वसुविधायुक्त रैन बसेरे बनाए ताकि कड़कड़ाती से किसी की जान न जाए| दरअसल फुटपाथ पर रहने वालों की ठंड में मौत मामले में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्तीस (पी.यू.सी.एल) ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी| इस पर न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, पंजाब, उत्तराखंड और महाराष्ट्र के मुख्य सचिवों को पर्याप्त संख्या में रैन बसेरे बनाने का आदेश दिया है| न्यायलय ने राज्य सरकारों से ३ जनवरी तक हलफनामा दायर कर निर्माण-व्यवस्था की स्थिति बताने को कहा है| न्यायलय का यह भी कहना है कि जब तक स्थायी रैन बसेरों का निर्माण हो, तब तक अस्थायी रैन बसेरों की व्यवस्था करना राज्य सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए| न्यायमूर्तिद्वय का यह भी कहना है कि संबंधित राज्यों के मुख्य सचिव स्वयं रैन बसेरों की निर्माण प्रक्रिया पर नज़र रखेंगे| इस मामले की अगली सुनवाई ९ जनवरी को होना है|
मगर देखने में आ रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की राज्य सरकारें जमकर धज्जियां उड़ा रही हैं| राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली हो या देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश या सुशासन का दावा करने वाला बिहार, कमोबेश सभी राज्यों में फुटपाथ पर रात गुजारने वाले जस की तस स्थिति में हैं| हाँ; प्रशासन ने फुटपाथ पर रात गुजारने वाले निराश्रितों के लिए अलाव की व्यवस्था ज़रूर की है मगर कड़कड़ाती ठंड में यह नाकाफी साबित हो रहा है| दिल्ली सरकार की ओर से दिल्ली हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीशएके सिकरी और न्यायमूर्ति राजीव सहाय की खंडपीठ के समक्ष दावा किया गया है कि राजधानी क्षेत्र के सभी ६४ स्थायी एवं ५४ अस्थायी रैन बसेरे सुचारू रूप से चल रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि दिल्ली में ४२ रैन बसेरे ही स्थायी रूप से चल रहे हैं| यानी २२ स्थायी रैन बसेरे या तो बंद हो चुके हैं या सरकारी कागजों पर चल रहे हैं| जब स्थायी रैन बसेरों का यह हाल है तो अस्थायी रैन बसेरों की बात करना बेमानी होगा| राजस्थान में न्यायलय के मानकों के अनुसार ९५ स्थायी रैन बसेरों की सख्त आवश्यकता है लेकिन राज्य सरकार ने फिलहाल पहले चरण में ५० स्थायी रैन बसेरों के निर्माण की अनुमति दी है| सुशासन का दावा करने वाली बिहार सरकार भी ४८ स्थायी रैन बसेरों में से मात्र ४ स्थायी रैन बसेरों का निर्माण करवा पाई है| वहीं उत्तर प्रदेश में जहां १३९ स्थायी रैन बसेरे चाहिए वहां सिर्फ ३८ स्थायी रैन बसेरों का निर्माण हुआ है जबकि १२ रैन बसेरे अस्थायी रूप से चल रहे हैं| हरियाणा में ५१ में से मात्र २ स्थायी रैन बसेरे रहने लायक हैं| सबसे विकट स्थिति जम्मू-कश्मीर की है जहां राज्य सरकार ने दावा किया है कि उनके राज्य में कोई भी बेघर नहीं है इसलिए उन्हें रैन बसेरे बनाने की आवश्यकता नहीं है| जम्मू-कश्मीर सरकार के इस दावे पर यकीन करना नामुमकिन सा है| बाकी राज्यों की स्थिति भी कोई ख़ास अच्छी नहीं है| फुटपाथ पर रहने वाले निराश्रित अब तक खुले आसमान के नीच रहने हेतु बाध्य हैं|
यह कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि एक ओर जहां भारत में सर्वाधित संख्या गरीबों की है जिन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती वहीं हमारे ही द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि ६१ लाख रुपये सालाना (प्रति सांसद) से अपनी जेब भर रहे हैं| ५० हज़ार रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह, ४० हज़ार रुपये चुनाव क्षेत्र भत्ता, ४० हज़ार रुपये ऑफिस एवं स्टेशनरी भत्ता तथा १८० दिनों के लिए २००० रुपये का दैनिक भत्ता| इसके अतिरिक्त आम-जनता जहां महंगाई के बोझ तले दबी जा रही है वहीं हमारे माननीय संसद परिसर की सस्ती कैंटीन सेवा का लुफ्त ले रहे हैं| सुविधाएँ और भी हैं जिनका जिक्र करना अभी ज़रूरी नहीं| देश के ७०० सांसदों के अनुपात में भारत में गरीबों की संख्या ४२ करोड़ है जो २६ अफ़्रीकी देशों के गरीबों से एक करोड़ ज्यादा है| दिसंबर २००९ को सुरेश तेंदुलकर की रिपोर्ट में दावा किया गया कि भारत में गरीबी का प्रतिशत ३७ है जो लगातार बढ़ता जा रहा है| ऐसे में जब हमारे प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष कहते हैं कि ३२ रुपये कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं; तो शर्म आती है ऐसी राजनीतिक व्यवस्था पर| सरकारें स्वयं के खजाने को तो जमकर भर्ती जा रही हैं मगर गरीबों की फिर्क कोई नहीं कर रहा| उनमें भी ऐसे गरीबों की संख्या अधिक है जो खुले आसमान के नीचे जीवन-यापन करने हेतु बाध्य हैं|
हर साल ठंड से फुटपाथ पर रहने वाले सैकड़ों निराश्रितों की असमय मौत हो जाती है| लगभग सभी संबंधित राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में बड़े शहरों में रेलवे स्टेशन और बस स्टेंडों पर रैन बसेरों की व्यवस्था की थी और प्रशासनिक दबाव की वजह से इनका संचालन भी सुचारू रूप से शुरू हुआ था मगर समय के साथ ही इनकी पहचान करना भी मुश्किल हो गया| जो थोड़े बहुत रैन बसेरे ठीक-ठाक थे उनमें असामाजिक तत्वों ने कब्ज़ा जमा लिया| खैर यह तो पुरानी बात हुई मगर सर्वोच्च न्यायलय के आदेश के बावजूद भी राज्यों सरकारों ने रैन बसेरों की बसाहट में जो अरुचि दिखाई है वह स्तब्ध करने वाली है| ऐसा प्रतीत होता है कि संबंधित राज्य सरकारों को इन निराश्रितों की फ़िक्र ही नहीं है| वैसे न्यायलय ने इस बार स्थायी रैन बसेरों को लेकर जिस प्रकार की सख्ती दिखलाई है; उससे तो लगता है कि राज्य सरकारें इस बार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं पाएंगी| और फिर, सभी संबंधित सरकारों की यह नैतिक जवाबदेही तो बनती है कि वे समाज के सबसे पिछड़े वर्ग की मूलभूत आवश्यकताओं की अनदेखी न करे| अब जबकि ठंड ने तीखे तेवर दिखाना शुरू कर दिए हैं तो खुले आसमान के नीचे जिंदगी बसर करने वाले एक बार फिर सरकार का मुंह ताक रहे हैं कि शायद इस बार सरकार की नींद टूटे तो उसे हमारी भी सुध आए| फिलहाल तो उन्हें ऐसे ही ठंड में खुले आसमान के नीचे रहना पड़ रहा है जिसकी शायद उन्हें आदद भी हो गई है|
वैरी गुड. ङाटूळाटीण.