शिक्षा और दीक्षा

2
1484

विजय कुमार

imagesशिक्षा का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है; पर इसका अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान तथा उससे मिलने वाली भारी-भरकम डिग्रियां ही नहीं है। यद्यपि इनसे ही आजकल व्यक्ति की योग्यता को नापा जाता है। इनसे ही उसे नौकरी मिलती है। इसलिए इनका महत्व भी है; पर शिक्षा का अर्थ केवल डिग्री नहीं है, यह भी सत्य है।

शिक्षा के साथ ही दूसरा महत्वपूर्ण पहलू दीक्षा का जुड़ा है। प्राचीन समय में छात्र अपने गुरु के सान्निध्य में आश्रमों में ही रहकर शिक्षा पाते थे। उनकी वह शिक्षा पुस्तकीय तो होती ही थी; पर इसके साथ उन्हें खेती, पशुपालन, शस्त्र-संचालन तथा समाज व राजनीति की व्यावहारिक शिक्षा भी दी जाती थी।

वे युवक ही आगे चलकर अपनी रुचि, प्रवृत्ति तथा पारिवारिक परिवेश के अनुरूप राजा, राजकर्मी, सैनिक, व्यापारी, वैद्य, वैज्ञानिक, कलाकार, अध्यापक, किसान या संन्यासी बनते थे। अपने गुरु, गुरुपत्नी तथा अन्य आश्रमवासियों के साथ रहकर वे घर-परिवार के संचालन के सूत्र सीखते थे। इस प्रकार आश्रम और गुरुकुल से शिक्षित ये छात्र अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार देश, धर्म, समाज और अपने परिवार की सेवा करते थे।

इन गुरुकुलों में शिक्षा पूरी होने के बाद एक विशेष समारोह होता था, जिसे ‘दीक्षा समारोह’ कहा जाता था। आजकल भी कई बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों में डिग्री वितरण का कार्य बड़े समारोह के साथ होता है। इसमें डिग्री पाने वाले छात्र-छात्राएं तथा डिग्री बांटने वाले अतिथि एक विशेष प्रकार का चोगा और टोपी पहनते हैं। यद्यपि यह अंग्रेजों द्वारा निर्मित मूर्खतापूर्ण परम्परा है, जिसे हम ‘इंडियन्स’ बड़े गर्व के साथ ढो रहे हैं।

इन समारोहों में विशेष स्थान पाने वाले छात्रों को अतिथियों द्वारा डिग्री दी जाती है। बाकी को विद्यालय के कार्यालय से ही उसे प्राप्त करना पड़ता है। छात्र बड़े गर्व से उस डिग्री और चोगे के साथ फोटो खिंचवाते हैं। विद्यालय के प्राचार्य और अतिथि कुछ औपचारिक भाषण देते हैं। इस प्रकार वह ‘दीक्षा समारोह’ सम्पन्न हो जाता है।

पर दीक्षा का अर्थ केवल इतना मात्र नहीं है। कुछ विद्वान इसका अर्थ दिशा $ शिक्षा से लगाते हैं। यों तो छात्र जीवन में कदम-कदम पर शिक्षा के साथ दीक्षा का पाठ भी पढ़ाया जाता है; पर पाठ्यक्रम समाप्त होने पर एक बार छात्र को फिर से याद दिलाया जाता है कि उसे अपनी शिक्षा का उपयोग किस दिशा में करना है। क्योंकि दिशाविहीन शिक्षा उस दुधारी तलवार की तरह है, जो दूसरों के साथ-साथ अपनों को भी मार सकती है।

शिक्षा का उपयोग यदि सही दिशा में हो, तो वह सम्मान दिला सकती है; अन्यथा उससे अपमान और दंड मिलता है।

दो छात्रों ने एक साथ, एक ही शिक्षक से बंदूक चलाना सीखा। एक छात्र सेना में, जबकि दूसरा कुसंग में पड़कर बदमाशों के गिरोह में शामिल हो गया। आगे चलकर देश की सीमा पर लड़ते हुए उस वीर सैनिक ने सैकड़ों शत्रुओं को मारकर अपने देश की रक्षा की। इसके लिए उसे ‘वीर चक्र’ मिला। दूसरी ओर उसके सहपाठी को लूटपाट और हत्या के आरोप में फांसी की सजा दी गयी।

यह घटना बताती है कि शिक्षा तो दोनों की एक ही समान थी; पर बाद में दोनों की दिशा अलग-अलग हो गयी। अपनी शिक्षा का देश की रक्षा में उपयोग करने वाले को पुरस्कार मिला, जबकि उसका दुरुपयोग करने वाले को प्राणदंड। इसलिए केवल शिक्षा ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ दीक्षा का भी उतना ही महत्व है।

यदि दिशा सही हो, तो कई बार साधारण और उपेक्षित समझी जाने वाली चीजों से भी चमत्कार हो सकता है। ऐसी एक घटना हमें मेवाड़ के इतिहास में मिलती है।

चित्तौड़ में महाराणा प्रताप के समय में ही प्रताप नामक एक क्षत्रिय बालक था। उसकी रुचि शस्त्र-विद्या के बदले संगीत में थी। वह घूम-घूमकर अपने गीत-संगीत से युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करता था। उसके साथियों ने कई बार उसे भी सेना में भर्ती होने को कहा; पर वह सदा संगीत में ही डूबा रहता था। जब एक बार लोगों ने उसे कायर तक कह दिया, तो उसने कहा कि कला से भी देश की सेवा हो सकती है और समय आने पर मैं इसे सिद्ध कर दिखाऊंगा।

एक बार जब वह शाम को वापस लौट रहा था, तो मुगलों ने उसे पकड़ लिया। वे किले पर ही हमला करने जा रहे थे। मुगलों ने उससे कहा कि वह ऐसा गीत बजाये, जिसे अंदर के लोग मित्रदल समझकर द्वार खोल दें; पर प्रताप ने ऐसी धुन बजाई कि अंदर से तीरों की वर्षा होने लगी, जिससे बड़ी संख्या में शत्रु सैनिक मारे गये।

इससे नाराज होकर मुगल सेनापति ने पूछा कि तुम क्या बजा रहे हो ? युवक ने सगर्व उत्तर दिया, ‘‘मैं अपने साथियों को बता रहा हूं कि द्वार पर शत्रु आया है। इतने बाण मारो कि कोई वापस न जा सके।’’ सेनापति ने क्रोधित होकर उसका सिर काट दिया।

अगले दिन किले के रक्षकों को प्रताप का शव मिला। वे समझ गये कि उसने कला के माध्यम से देश-रक्षा का अपना कर्तव्य निभाया है। प्रताप को सम्मान देने के लिए स्वयं महाराणा प्रताप ने उसके शव को अग्नि में समर्पित किया।

इन दिनों भारत में भ्रष्टाचार और आंतकवाद महामारी की तरह फैल चुके हैं। कुछ लोग गरीबी को भ्रष्टाचार का कारण बताते हैं; पर अनुभव तो इसके बिल्कुल विपरीत ही है। अरबों-खरबों रुपये के भ्रष्टाचार और दलाली के आरोप जिन लोगों पर लग रहे हैं, वे सब अत्यधिक सम्पन्न और बड़ी-बड़ी डिग्रियां लिये हुए हैं। इसी प्रकार आतंकवाद के आरोप में जो मुस्लिम युवक पकड़े जा रहे हैं, उनमें से अधिकांश शिक्षित ही हैं।

यहां प्रश्न उठता है कि शिक्षित होते हुए भी वे गलत काम क्यों कर रहे हैं ? कारण बहुत स्पष्ट है कि उन्होंने शिक्षा तो अच्छी प्राप्त की; पर उनकी दिशा गलत हो गयी। इस कारण उनकी वह योग्यता देश और समाज को लाभ पहुंचाने की बजाय हानि पहुंचा रही है।

जहां तक शिक्षा की बात है, तो उसके लिए किताब, कॉपी, चॉक, श्यामपट, प्रयोगशाला आदि की आवश्यकता होती है; पर दीक्षा के लिए तो शिक्षक का आचार-व्यवहार ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

यदि कोई शिक्षक समयपालन की मर्यादा पर घंटा भर भाषण दे या इस बारे में पुस्तक से कोई पाठ पढ़ाये; पर वह स्वयं समय का पालन न करे, तो उसका पढ़ाया हुआ पाठ व्यर्थ है। इसीलिए पुराने समय में शिक्षक को ‘आचार्य’ अर्थात अपने आचरण से सिखाने वाला कहा जाता था। आचार्य का आचरण केवल विद्यालय समय में ही नहीं, तो दिन भर छात्रों के सामने रहता है। इसलिए वे हर समय उनसे कुछ न कुछ सीखते रहते हैं।

आजकल सब ओर पैसे की होड़ लगी है। शिक्षक भी चाहता है कि उसके घर में भौतिक सुविधा देने वाले सब उपकरण हों। इसलिए वह ट्यूशन से लेकर दलाली तक, ऐसा हर काम कर रहा है, जिससे कुछ पैसे मिल सकें। कई अध्यापक तो अपने छात्रों को ही इसका माध्यम बना लेते हैं। ऐसे में छात्र उनसे क्या सीखेंगे, यह समझना कठिन नहीं है। इसलिए शिक्षा के साथ ही शिक्षक और आचार्य के बारे में भी विचार करना आवश्यक है।

निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि शिक्षा का विषय एकांगी नहीं है। अध्यापकों द्वारा विद्यालय में छात्रों को चार-छह घंटे पढ़ा देना ही शिक्षा नहीं है। हमें शिक्षक और विद्यालय के वातावरण के बारे में भी गंभीरता से सोचना होगा। बच्चे की पहली पाठशाला अर्थात उसके घर का वातावरण भी ठीक होना आवश्यक है। यदि सब ठीक से चले, तब ही शिक्षा की दिशा अर्थात दीक्षा ठीक होगी।

अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा और दीक्षा के इस समन्वय को गहराई से समझा। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में मंदिर, मठ और धर्मशालाओं में चलने वाली छोटी-छोटी पाठशालाओं ने बहुत योगदान दिया था। अतः 1857 से निबटकर उन्होंने इस समन्वय को तोड़ने का षड्यन्त्र रचा। इसमें लार्ड मैकाले ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मैकाले जिस अंग्रेजी शिक्षा को भारत में लाये, उससे नयी पीढ़ी के सोचने की दिशा ही बदल गयी। पहले देश, धर्म, समाज के बाद मैं और मेरा परिवार के बारे में विचार होता था; पर अब देश, धर्म और समाज की सेवा गौण हो गयी। चरित्र और अनुशासन की बात करना पिछड़ेपन का प्रतीक मान लिया गया। परिणाम यह है कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी हम मानसिक रूप से गुलाम ही हैं।

यों तो भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ जमाने में अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; पर मैकाले के योगदान को सर्वाधिक मूल्यवान माना गया। अतः उसे मृत्यु के बाद उस चर्च में दफनाया गया, जहां केवल राजवंश के सदस्य ही दफनाये जाते हैं। इसके बाद भी हम आज तक उस षड्यन्त्र को समझ नहीं सके और मैकाले के भूत को अपने कंधे पर लादे घूम रहे हैं।

गौतम बुद्ध शिष्यों को दीक्षा देते समय ‘अप्प दीपो भव’ (स्वयं दीपक बनो) का उपदेश देते थे। अंधकार में दूर जलता हुआ छोटा सा दीपक भी यात्री को सही दिशा बता देता है; पर यदि अपने अभिभावक, शिक्षक और आचार्यों से प्राप्त ज्ञान तथा संस्कारों से व्यक्ति स्वयं ही दीपक बन जाए, तो वह जीवन भर अपने साथ-साथ दूसरों को भी ठीक राह दिखा सकता है।

इसलिए शिक्षा और दीक्षा में सही समन्वय स्थापित करना, वर्तमान शिक्षा जगत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here