शिक्षा में सोवियत मॉडल खत्म हो

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शंकर शरण

संसद में मानव संसाधन मंत्री ने बताया कि दिसंबर तक नई शिक्षा नीति बनाने की योजना है जिसके लिए राज्यों से तथा निचले स्तर तक विमर्श चल रहा है। किन्तु इसमें ‘नया’ क्या होने वाला है, इसका संकेत नहीं मिला है।

नया शिक्षा दस्तावेज बनाने से पहले यह समीक्षा जरूरी है कि पिछले शिक्षा दस्तावेजों, अनुशंसाओं का क्या हुआ? उनका आद्योपांत विश्लेषण होना चाहिए, ताकि विगत साठ वर्षों का अच्छा-बुरा, सकारात्मक-नकारात्मक, उपयोगी और बेकार की पहचान करने में मदद मिले। अच्छे उद्देश्य पूरे क्यों नहीं हुए? बुरे उद्देश्य, जैसे शिक्षा का राजनीतिकरण, दस्तावेजों में कैसे घुस आए? शिक्षा में सरकार की और समाज की भूमिका क्या और कितनी हो? शिक्षा और रोजगार के बीच बन गए अभिन्न संबंध को कैसे लेना चाहिए? क्या शिक्षा की परिभाषा बदल देने का समय आ गया है?  यदि नहीं, तो शिक्षा का बुनियादी उद्देश्य, जो रोजगार कभी, कहीं, नहीं रहा है, पाने के लिए क्या होना चाहिए? देश में शुद्ध ज्ञान, स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा देने, यानी सांस्कृतिक उत्थान के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या भारतीय भाषाओं के सहज विकास के लिए कुछ किया जा सकता है?

ऐसे अनेक बुनियादी प्रश्नों को पूरी गंभीरता से लेना, और अनुभवी, अग्रणी लोगों की राय जानना आवश्यक है। तभी कोई नया दस्तावेज या पाठ्यचर्या, आदि बने। उसे ऐसा कचरा नहीं होना चाहिए, जिसमें असम्बद्ध विचार, लफ्फाजियाँ और रंग-बिरंगी, अटपटी, अंतर्विरोधी परिकल्पनाएं भरी मिलें। जिनसे न किसी को दिशा मिले, न प्रेरणा। इसीलिए जो यों ही गोदामों, अलमारियों में पड़ी खत्म हो जाएं। जैसा पिछले दस्तावेजों के साथ हो चुका है। अतः नई नीति का नयापन केवल औपचारिक न रहे, वह वास्तविक रूप से प्रेरक बने। इसकी गारंटी का प्रयत्न होना चाहिए। हम न तकनीक-व्यापार में दुनिया से पीछे रहें, न स्वतंत्र बौद्धिक चिन्तन में। अपनी ज्ञान-संस्कृति की अनमोल थाती हमें भूलनी नहीं चाहिए। सदियों से भारत की मुख्य गौरवशाली पहचान यही थी। उसे पुनः स्थापित करना सरल कार्य नहीं है, किन्तु इस से कतराना भी शोभनीय नहीं होगा।  educ

यह सब हो सके, इस के लिए देश की शिक्षा प्रणाली में सोवियत-नेहरूवादी मॉडल की जमी बीमारियाँ पहचाननी और दूर करनी जरूरी है। यह बीमारी सर्वप्रथम इस मान्यता में हैं कि सब कुछ सरकार करेगी। फिर इस में कि किसी वैज्ञानिक, प्रगतिशील, राजनीतिक विचारधारा को फैलाना शिक्षा-नीति का पुनीत उद्देश्य है। साथ ही, इस तरीके में कि विशेष विचारों में पगे लोगों को ही महत्वपूर्ण भार देना चाहिए। तब इस प्रवृत्ति में कि साहित्य, इतिहास, शोध, आदि में पूर्व-निर्धारित निष्कर्षों के अनुरूप सामग्री खोज कर प्रचारित करनी चाहिए। अंततः इस बात में कि घोषित कार्यों को पूरा करने, तथा उनका मूल्यांकन करने में कागजी खानापूरी ही पर्याप्त है।

संक्षेप में, यह सब यहाँ सोवियत मॉडल की शिक्षा की पहचान, परिणाम रहे हैं। इस में स्वयं अपनी पीठ थपथपा कर, कागजी उपलब्धियाँ गिना कर और आपस में एक-दूसरे को सम्मान, पुरस्कार देकर शिक्षा में प्रगति का आश्वासन दिया जाता रहा है। इस गहरे पैठे रोग को पहचानना और दूर करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि गैर-कांग्रेसी, गैर-वामपंथी लोगों में भी उपर्युक्त रोग आ चुके हैं। यदि सावधानी न बरती गई, तो रोग नए कलेवर में बना रह जा सकता है।

अतः नकली शिक्षाशास्त्रियों, कामों, प्रवृत्तियों की पहचान कर उन्हें नमस्कार करना जरूरी है। विगत दशकों में जिन्हें शिक्षाविद मानकर शिक्षा दस्तावेज बनाने से लेकर, सरकारी संस्थाएं चलाने, पाठ्य-चर्या और पाठ्य-पुस्तकें तैयार करवाने आदि कार्य दिए जाते रहे हैं, वे अधिकांश सुयोग्य नहीं रहे हैं। उनमें कई तो सोवियत, नेहरूवादी रोग से ग्रस्त साधारण प्रचारक मात्र थे जो अपनी ही खामख्यालियों को शिक्षा की चिंता मानते थे। इस क्रम में ठीक पिछला संस्करण एक ऐसे कथित शिक्षा-शास्त्री के हाथों संचालित हुआ जो जल्द ही आम आदमी पार्टी के एक कर्णधार बने, और चार कदम भी सधे पैर नहीं चल सके। उनके द्वारा बनवाई गई समाज विज्ञान पाठ्य-पुस्तकों में जो विध्वंस किया गया है, वह किसी सच्चे जानकार के लिए कल्पनातीत होगा। यह हमारी दुरअवस्था का परिचायक है कि बरसों से चल रहे उस विध्वंस को किसी महत्पूर्ण व्यक्ति ने नहीं देखा, न आवाज उठाई। हमारा वैचारिक-राजनैतिक स्तर इतना गिर चुका है कि हम शैक्षिक विध्वंस को पहचानने योग्य भी नहीं बचे हैं। इसकी परख होनी चाहिए, और राजनीतिक एक्टिविस्टों को शिक्षा-शास्त्री मानने की भूल दुहराई नहीं जानी चाहिए।

सोवियत युग का रूसी अनुभव था कि प्रतिभावान छात्र विज्ञान की ओर चले जाते थे, साहित्य, इतिहास, दर्शन, आदि की ओर नहीं। इन विषयों में पार्टी-नियंत्रण था और इसीलिए प्रतिभाओं के विकास का अवसर ही नहीं बचता था। इसीलिए सात दशकों के सोवियत शासन में रूस में कोई बड़ा चिंतक, दार्शनिक, लेखक, इतिहासकार, आदि प्रायः नहीं हुआ। जबकि भौतिकी, रसायन, गणित, इंजीनियरिंग, तकनीकी आदि क्षेत्रों में वैज्ञानिक और आविष्कारक वहाँ नियमित होते रहे। इस का कारण था कि सामाजिक, मानविकी विषयों में मार्क्सवादी विचारधारा का कड़ा पहरा था, जिस से सच्ची प्रतिभाएं उस दिशा में जाने से परहेज करती थीं। जो गईं भी, सो मारी गईं।

काफी हद तक हमारे देश में भी वही हुआ है। अपनी पीठ स्वयं थपथपाने वाले ‘एमिनेंट हिस्टोरियन’ जैसे लफ्फाजों के अलावा उन विषयों में कुछ दिखाने लायक हमारे पास नहीं है। सामाजिक, मानविकी विषयों में रेगिस्तान फैल गया है। इस लज्जास्पद दुरअवस्था को बदलने का उपाय गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। यह तभी हो सकता है, जब स्कूली से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक राजनीतिक प्रचार के कीटाणुओं का नाश किया जाए। विगत दशकों में शैक्षिक दस्तावेजों, पाठ्यक्रमों, पाठ्य-चर्याओं, पाठ्यपुस्तकों तथा समाज विज्ञान एवं मानविकी विषयों के अध्ययन-अध्यापन, शोध, विमर्श, आदि में विशिष्ट राजनीतिक प्रेरणा, निर्देश, दबाव, आदि विभिन्न रूपों में लगातार बढ़ते गए हैं। इन का पूर्ण खात्मा आवश्यक है, ताकि शिक्षा, चिन्तन, शोध को सचमुच स्वतंत्र बनाया जा सके।

यूजीसी, यूपीएससी तथा एलबीएस नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन, जैसे सभी महत्वपूर्ण प्रशिक्षण संस्थानों के पाठ्य-निर्देशों, सामग्रियों की तदनुरूप समीक्षा भी जरूरी है। क्योंकि इन जगहों को भी विचारधारा-ग्रस्त बनाया गया है। इसके बिना सोवियत मॉडल मुकम्मिल न होता। अतएव, महत्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाओं, प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों के सिलेबस आदि भी इस तरह से गढ़े मिलते हैं कि हरेक प्रतियोगी परीक्षार्थी, और भावी प्रशासक को वामपंथी, हिन्दू-विरोधी पाठों से लैस होना ही पड़े। विशेष प्रकार के लेखक, पुस्तक, पाठ, प्रश्न, समस्याओं का चयन या उपेक्षा द्वारा युवा प्रशासकों, नीति-निर्माताओं को उसी राजनीतिक झुकाव में ढालने का खुला और सफल यत्न होता रहा है। उन में भी सुधार होना चाहिए ताकि देश-हित, सामाजिक एकता और न्याय भावना के अनुरूप नई पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जा सके।

उपर्युक्त बिन्दुओं से ही जुड़ा एक जरूरी कार्य यह भी है कि समाज विज्ञान शिक्षा में जारी भारत संबंधी उस तमाम प्रस्थापनाओं की कड़ी विद्वत-समीक्षा की जाए, जिनसे यहाँ भेद-भाव, दुराव वाली राजनीतियों को बल पँहुचाया जाता रहा है। जैसे, ‘आर्य-द्रविड़’, ‘पूर्वोत्तर नस्ल’, ‘ब्राह्मणवाद’, ‘अगली-पिछली जातियों का संघर्ष’, ‘वर्ग संघर्ष’, ‘साम्राज्यवाद-विरोध’, आदि। इनमें से कई अवधारणाएं मुख्यतः काल्पनिक और राजनीतिक हैं, जिनका शिक्षा से उतना संबंध नहीं, जितना एक भारत-विरोधी राजनीति को बल पहुँचाने से। कई विश्वविद्लय विभागों और उनके सिलेबस आदि के सरसरी परीक्षण से भी यह सरलता से दिख जाता है। इस में धोखा-धड़ी यह भी है कि उच्च-शिक्षा के लिए दिए जाते राजकीय बजट के धन से समाज के लिए विषैले राजनीतिक विचारों का प्रचार चलाया जाता रहा है।

अतः उनकी कड़ाई से जाँच होनी चाहिए और परिणामों को खुले रूप में सबके सामने लाना चाहिए। तदनुरूप जिन प्रस्थापनाओं में मनमानियाँ, अतिरंजनाएं या निराधार तत्व पाए जाएं, उन की सटीक आलोचनाओं को भी शिक्षा और शोध में उतना ही महत्व देकर बताया जाए। यह देश-हित के सबसे जरूरी कार्यों में से एक है।

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