शिक्षण संस्थान और राजनीतिक विचारधारा

दुलीचंद कालीरमन

 किसी भी देश का भविष्य उसके शिक्षण संस्थानों में तैयार होता है. जिस प्रकार की पाठ्य सामग्री तथा परिवेश हम विद्यार्थियों को उपलब्ध कराते हैं वैसी ही विचारधारा तथा जीवन दृष्टि उनकी बनती है. इसलिए शिक्षा नीति व शिक्षण संस्थानों विशेषकर विश्वविद्यालयों का परिवेश इस प्रकार का हो कि विद्यार्थी स्वयं, समाज व देशकाल का तथ्यात्मक विश्लेषण करके अपने विचार और जीवन दृष्टि विकसित कर सकें. 

पिछले कई सालों से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल के जादवपुर विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय लगातार नकारात्मक खबरों की वजह से चर्चा में बने रहे हैं,  जिस कारण देश  के आम नागरिक  के मन में अपने बच्चों को इन विश्वविद्यालय में प्रवेश को लेकर प्रश्न चिन्ह लग गया है,

 यह परिस्थितियां क्यों निर्माण हुई?  इसका विश्लेषण भी समाज को करना होगा. दरअसल कोई भी राजनीतिक विचारधारा ‘युवा-कंधों’ पर सवार होकर आती है. इसलिए हर विचारधारा अपना पहला शिकार या प्रयोग युवा मन को ही बनाती है. युवा मन आदर्शवादी होता है. अभी उसका सांसारिक चालबाजीयो से वास्ता नहीं पड़ा होता. इसलिए कभी उन्हें धर्म के नाम पर, कभी ‘सर्वहारा-क्रांति’ के नाम पर इस हद तक बरगला दिया जाता है कि उनके लिए  राजनीतिक विचारधारा प्राथमिक उद्देश्य बन जाती है तथा मुख्य उद्देश्य  शिक्षा कहीं पीछे छूट जाती है.

 बीते कई महीनों से विभिन्न मुद्दों को लेकर देश के कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों का माहौल तनावपूर्ण रहा है. इसकी पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा.  पिछली शताब्दी के तीस और चालीस के दशक में समाज अंग्रेजो के खिलाफ लामबंद हो चुका था. महात्मा गांधी  का इस जन-जागरण में विशेष योगदान था. युवाओं के बीच सोवियत क्रांति के बाद ‘मार्क्सवादी-विचारधारा’ का रुझान भी बढ़ना शुरू हो चुका था. जिसमें से भगतसिंह जैसे कई क्रांतिकारी निकले. आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु भी समाजवादी विचारधारा से प्रेरित थे. यह जगजाहिर है कि गुटनिरपेक्षता की बातें करते हुए भी उनका रुझान तत्कालीन सोवियत संघ की तरफ ही था. 

एक षड्यंत्र के तहत धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वामपंथी विचारधारा से प्रेरित विद्वानों को विश्वविद्यालयों तथा पाठ्यक्रम निर्माण समितियों में जगह दी गई. जिससे भारतीय संस्कृति को भी मार्क्स के चश्मे से देखा जाने लगा. हर उस चीज के खिलाफ लिखा या नकारात्मक दृष्टिकोण बनाने का प्रयास किया गया  जो भारतीय संस्कृति तथा हिंदू दर्शन को गौरवान्वित करती थी.

 अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में इस्लामी विचारधारा से प्रेरित छात्र पढ़ते रहे. केंद्र में ज्यादातर सरकार कांग्रेस पार्टी की ही रही और उन सरकारों में अधिकतर प्रधानमंत्री नेहरू-गांधी परिवार से ही रहे. वैचारिक स्तर पर उनका वामपंथ या इस्लाम से कोई विरोध नहीं था. तब तक इस्लामिक कट्टरता का प्रभाव भी आम भारतीय मुसलमान पर नहीं पड़ा था. अगर थोड़ा बहुत प्रभाव था तो वह इतना मुखर नहीं था. केवल कश्मीर में अलगाववाद को लेकर आतंकित घटनाएं हो रही थी या फिर मुंबई जैसे महानगरों में अंडरवर्ल्ड तथा इस्लामी विचारधारा मिलकरआतंकी घटनाओं में बदल रही थी.

दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय तथा जादवपुर विश्वविद्यालय में वामपंथ नक्सलवादी पौध तैयार करता रहा. जो भारतीय सुरक्षाबलों व अगड़ी जातियों  के विरुद्ध दंडकारण्य, आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखंड एवं उत्तर पूर्व  में  सशस्त्र संघर्ष  करते रहे. लेकिन कांग्रेस की यथास्थितिवादी कार्यप्रणाली ने इस  नक्सलवादी विचारधारा पर कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की. इसलिए वामपंथ और कांग्रेस की छद्म-धर्मनिरपेक्षता में कभी वैचारिक  मतभेद नहीं हुआ.

 सोवियत संघ के विघटन के बाद वामपंथ एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में दुनिया में असफल साबित हो गया.

भारत में  भी  इसकी जड़ें कमजोर होती चली गई. लेकिन जो वामपंथी प्राध्यापक शिक्षण-संस्थानों में अपनी जड़ें जमाए बैठे थे, वह गरीबी, अशिक्षा, जातिगत-असमानता का नारा लगाकर  भारत के अलग-अलग कोनों से आए भोले भाले विद्यार्थियों को अपने चंगुल में ले लेते हैं. इन विश्वविद्यालय में माहौल इस प्रकार का बन चुका है कि वहां पर एक सामान्य छात्र तब तक अपना रिसर्च नहीं कर पाएगा जब तक वह संबंधित अध्यापक की विचारधारा में नहीं रंगा जाता.

2014 में  केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार आने के बाद स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हुआ. वामपंथी विचारधारा के पैर इन विश्वविद्यालयों से भी उखड़ने शुरू हो चुके हैं. वामपंथ  की उल्टी गिनती शुरू  हो चुकी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र इकाई ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’  भी इन विश्वविद्यालयों में अपनी जड़े जमाने की कोशिश कर रही है. खुद को कमजोर होता देख वामपंथी-विचारधारा ने कट्टर इस्लामी  जिहादी विचारधारा से हाथ मिला लिया है. क्योंकि वामपंथी और इस्लामी दोनों ही विचारधारा के प्रेरणा स्त्रोत इस  भारत-भूमि से नहीं जुड़े हैं.इसलिए वहां कभी “हर घर से अफजल निकलेगा”  के नारे लगाकर  आतंकी अफजल गुरु की बरसी मनाई जाती है तो कभी “भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह-इंशाल्लाह’ का शोर सुनाई देता है. ऐसी विचारधारा को कोई भी भारतीय स्वीकार नहीं कर सकता.

  कांग्रेस पार्टी 2014 से ही सत्ता से बाहर है. यह स्थिति उसके लिए असहनीय है. गांधी परिवार के किसी सदस्य को विपक्ष अपना नेता मानने को तैयार नहीं है. नरेंद्र मोदी के  ‘राजनीतिक-कद’ का कोई भी नेता विपक्ष के पास नहीं है  जो उसे चुनौती दे सके. कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को विपक्ष अपरिपक्व मानता है. जबकि अन्य विपक्षी दलों का अखिल भारतीय विस्तार नहीं है. 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अभी तक वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व था. लेकिन समय के साथ-साथ दक्षिणपंथी विचारधारा का वर्चस्व शिक्षण संस्थानों में अपनी जड़े जमा रहा है. यही बात वामपंथी ‘क्रांति-वीरों’ को हजम नहीं हो रही है. इसी बात का फायदा विपक्षी राजनीतिक पार्टियां उठा रही हैं तथा विद्यार्थियों के कंधे पर बंदूक रखकर वे अपनी राजनीतिक निशाना लगाने की जुगत में है.

यह समय की मांग है कि छात्र हितों को ध्यान में रखते हुए सभी राजनीतिक विचारधारा और दलों को शिक्षण संस्थानों में परिवेश को सकारात्मक बनाने की दिशा में अपने प्रयास करने चाहिए. विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा न बनाकर  बेहतर शिक्षण एवं अनुसंधान  की दिशा में  बढ़ना चाहिए. 

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