लहार का संदेश साफ है। संदेश यह कि कांग्रेस एकजुट होने का प्रयास कर रही है। कितनी हो पाती है यह एकता, चुनाव आते-आते यह एकता कितनी और मजबूत होगी, इसका पूर्वानुमान आज सौ फीसदी लगाना विगत अनुभवों के चलते थोड़ा कठिन है पर हां, कांग्रेस यह मान रही है कि अभी नहीं तो कभी नहीं की परिस्थितियां बन रही हैं। नीचे से कार्यकर्ताओं का भी दबाव है कि पार्टी के दिग्गज एक साथ कदमताल करें। लहार में यह कवायद पूरे मन से करने के प्रयास दिखाई दिए।
जाहिर है इस कवायद में पार्टी के अंदर लहार से विधायक डॉ. गोविंद सिंह का कद बढ़ा है, वहीं यह संदेश भी गया है कि सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का अपना एक आकर्षण है। कांग्रेस की राजनीति में ये दोनों नेता अब तक धुर विरोधी रहे हैं, लहार में अब ये ईमानदारी से, मन से कितने एक हुए हैं इसकी प्रतीक्षा करने के लिए थोड़ा समय देना होगा और इसमें बेशक फिर से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह की निर्णायक भूमिका होगी कि वे डॉ. सिंह के कान में क्या कहते हैं। वहीं कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ हों या सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया हों या अरुण यादव क्या सिंधिया को अपना नेता मध्यप्रदेश के संघर्ष में मानेंगे, यह देखने वाली बात होगी। अलबत्ता स्वयं श्री सिंधिया ‘महाराज’ की छवि को समय की नजाकत देखकर तोड़ने की पुरजोर कोशिश में हैं और वे इसमें कुछ हद तक सफल भी हुए हैं।
उल्लेखनीय है कि 2018 का रण अब ज्यादा दूर नहीं है। 2018 के चुनाव में शिवराज सिंह के सामने चुनौतियां गहरी हैं। 15 साल की सरकार के चलते सरकार विरोधी लहर से इनकार नहीं किया जा सकता।चार साल तब तक केन्द्र की सरकार को भी हो चुके होंगे। अधिकांश स्थानों पर, स्थानीय निकायों में भी सत्तारूढ़ दल ही हैं। जाहिर है मंत्री नौकरशाह एवं जनप्रतिनिधियों की नाराजगी जनता के सामने त्रि स्तरीय होगी। अब तक ‘शिवराज’ प्रदेश की जनता के सामने एक ब्राण्ड था, आज भी है पर विगत निकट के इतिहास में इस छवि पर भी खरोंचें आई हैं। संगठन के सामने, स्वयं मुख्यमंत्री के सामने इसे ठीक करना भी एक चुनौती है। संगठन के स्तर पर भी सत्ता के चलते जिला स्तर पर गतिशीलता में ठहराव है। इतनी विषमताओं के बावजूद प्रदेश की जनता कांग्रेस को अब भी विकल्प नहीं मान रही है। वह जानती है कि पांच दशक में प्रदेश को बर्बादी की कगार पर लाने वाली यह कांग्रेस ही है। जनता यह भी जानती है कि एकता की यह नौटंकी वक्त की जरुरत है।
अत: कांग्रेस को वह शांति से खामोशी से देख रही है। वह देख रही है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह एकता सम्मेलन में भी कटाक्ष करने से बाज नहीं आए। यही नहीं मंच पर बैठे सभी को अगला मुख्यमंत्री बताकर और खुद को रेस से बाहर कर वे इस आंतरिक संघर्ष को और हवा दे गए। लिखना प्रासंगिक होगा कि मध्यप्रदेश के चुनाव के संदर्भ में दिग्विजय सिंह महत्वपूर्ण कारक फिर होने वाले हैं। जनता की निगाह में वे पहले से ही खारिज हैं। कांग्रेस भी उनसे कहीं-कहीं किनारा करती है पर यह भी एक सच है कि उनके बगैर कांग्रेस का पार लगना भी मुश्किल है। कारण वे ही ऐसे एकमात्र नेता हैं जिनकी ब्लॉक स्तर तक संगठनात्मक पकड़ है। शेष दिग्गज नेताओं में श्री कमलनाथ का क्षेत्र विशेष में प्रभाव है। अरुण यादव प्रदेश अध्यक्ष के रूप में असफल हो चुके हैं। पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुरेश पचौरी के दिन अब वो रहे नहीं। श्री कांतिलाल भूरिया आदिवासी वोट बैंक के लिए ठीक हैं, पर शेष मध्यप्रदेश से वे कटे हुए हैं। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह अपने पिता अर्जुन सिंह की राजनीतिक विरासत को कायम रख नहीं पाए हैं। ले देकर एक श्री सिंधिया हैं जिनका पूरे प्रदेश में जनमानस में एक स्वाभाविक आकर्षण है पर उनके पास कार्यकर्ता नहीं हैं। जो हैं वे ऐसे हैं कि लहार में उनके भाषण के बाद ही सभा स्थल से चल दिए। महाराज भक्तों ने ऐसा करके क्या संदेश दिया वे जाने जाहिर है, एकता प्रसंग की स्क्रिप्ट लिखते समय राजनीतिक संपादन की या तो कमी रह गई या फिर किरदार अपनी-अपनी एकल प्रस्तुति का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं।
जाहिर है कांग्रेस आने वाले समय में एकता के मंचीय प्रदर्शन और भी कर सकती है। भोपाल, खलघाट के बाद ये लहार हाल ही के राजनीतिक घटनाक्रम में यह तीसरी प्रस्तुति है। प्रतीक्षा करनी होगी मंच से हवा में हाथ खड़े कर फोटो सेशन करने वाले ये नेता मंच से उतरकर किस दिशा में जाते हैं पर एक बात तय है कि भाजपा अब बिलकुल बेखबर न रहे।