चुनाव विश्लेषण : तथ्य जो नज़रअंदाज किये गए

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o092अभी -अभी हमारे गणतंत्र या लोकतंत्र अथवा प्रजातंत्र जो भी कहें , क्योंकि वो बस कहने भर को हमारा है बाद बाकि इसकी आत्मा अर्थात संविधान तो आयातित ही है ना , का कुम्भ समाप्त हुआ है । वैसे तो यह कुम्भ मेला कम अखाडा ज्यादा लगता है पर अखाड़े की धुल मिटटी की जगह यहाँ भ्रष्टाचार के कीचड़ उछाले जाते हैं । आशंकाओं के विपरीत कांग्रेस का २०० सीटों पर जीत कर आना और यूपीए द्वारा बहुमत से सरकार बनाये जाने पर लोग खुश नजर आ रहे है। सालों बाद बहुमत वाली सरकार का भ्रम और जीत की खुशी में जिन तथ्यों को नजरअंदाज किया गया उन पर एक निगाह डालना निहायत ही जरुरी है ।
इस चुनाव में एक महत्वपूर्ण फेरबदल दलितों के मत %में हुआ । अब तक के चुनाव में सर्वाधिक मतदान करने वाले दलित वर्ग का मत % ९० से खिसककर १८ -३० % तक पहुच गया । भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा मतदाता वर्ग के इतने कम वोट के बावजूद भी वोट% हर बार की तरह ५०- ६० % के बीच रहा । और मतदान पर बहुत ज्यादा प्रभाव नही डाल पाया । तो फिर ऐसा क्या हुआ ? दरअसल , इस मत को संतुलित करने का कार्य किया देश के पप्पू वर्ग ने जिसके लिए सरकारी और गैर गैर सरकारी संगठन पिछले २ साल से लगातार प्रचार कर रहे थे । ‘जागो रे ‘ और ‘ पप्पू वोट नही देता ‘ जैसे जुमले बच्चे -बच्चे की जुबान पर चढ़ गया था । पप्पू होने की डर से घंटों कतार में खड़े रहने की चुनौती स्वीकार कर उच्च मध्य वर्ग पहली बार घर से बाहर निकला और इन्होने अपनी सुविधाभोगी आदतों की वजह से मनमोहन सरकार की नीतियों के समर्थन में हाथ का साथ दिया । सरकार के द्वारा गठित एक जांच आयोग के अनुसार आज भी भारत की ८०% आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करने को मजबूर है। और मनमोहन सरकार की विकास की पश्चिमी मॉडल को अपनाने की वजह से छोटे छोटे कस्बों तक बहुराष्ट्रीय कंपनी की पहुच से देश का एक छोटा वर्ग विकास करता रहा जिसमे अधिकतम संख्या मझोले कद वाले पूंजीपतियों की है । अगर पिछले ५ साल के कांग्रेसी कार्यकाल को देखे तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है की देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है जिसका सीधा सीधा प्रभाव लोगों के जनजीवन पर पड़ा । लेकिन पप्पुओं को अपना हित देखना था । बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मोटी रकम उन्हें तभी मिल पाती जब मनमोहन ३०% से भी कम आबादी के लिए बनाये गए आर्थिक नीतियाँ देश में लागु हो और ऐसे में सिवाय कांग्रेस के उनके पास अन्य सशक्त विकल्प मौजूद नही था । दिल्ली , उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पप्पुओं ने बाजी पलटने में महती योगदान दिया ।

दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि कांग्रेस ने मीडिया को बहुत ही बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया। इसके जरिये सरकार के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनने में सफलता हासिल की । चूँकि ये सत्ता में थे और इन्होने इस बात का भरपूर फायदा उठाते हुए सत्ता संसाधनों के जरिये चौकाने वाले परिणाम दिए । । वहीँ बी .जे .पी का प्रचार प्रबंधन बेहद ही खोखला साबित हुआ। बी जे पी द्वारा बंद कमरे में ऑनलाइन गतिविधयों द्वारा प्रचार कर जीत सुनिश्चित करने की योजना को अंतत: ऑफ़ लाइन होना पड़ा। जमीन से जुडी पार्टी के कार्यकर्ताओं की घटती भागीदारी ने पार्टी को अच्छा नुक्सान पहुँचाया । चुनाव अभियान में बाहर से आयात किए गए लोगों ने लुटिया डूबने का ही काम किया । किसी तरह कैडरों ने अपना वोट तो डाल दिया पर लोगों से वोट जुटाने की अपनी जिम्मेदारियों को नजरअंदाज कर दिया । प्रचार के लिए प्रसून जोशी की जिस यूटोपिया नाम की कंपनी को ठेका दिया गया था उसने अपने नाम के अनुरूप ही परिणाम भी दिए ।सीधे-साधे मनमोहन और युवा के नारों ने भी कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाई। अगर इन पर गौर किया जाए तो यह चुनाव मनमोहन बनाम आडवाणी कम राहुल बनाम आडवाणी ज्यादा लग रहा था । इस चुनाव को बी जे पी की हार के बजाय कांग्रेस की जीत के तौर पर देखना ज्यादा बेहतर होगा । इस चुनाव में पहली बार मीडिया की मुख्यधारा का बाजारू चरित्र खुलकर सामने आया और इसने तयशुदा पैकेज पर विज्ञापन को ख़बर बनाकर बेचने की मुहीम चलायी । मीडिया पर पैनी नजर रखने वाले प्रभाष जोशी लिखते है कि चुनाव की ख़बरों का काला धंधा अख़बारों ने कोई छुपते छुपाते नही किया बल्कि खुलेआम किया और बिना किसी शर्म और झिझक के । न तो इन्हे पैसे लेने में शर्म आई न ही ख़बर बेचने में लज्जा महसूस हुई । कई समाचारपत्रों ने तो बाकायदा चुनाव कवरेज के रेट कार्ड भी छपा रखे थे ।भिन्न-भिन्न ख़बरों के लिए अलग-अलग तयशुदा राशियां ली गई । मसलन ,प्रचार अभियान के लिए ८ गुना १२ के रंगीन कवरेज के लिए ६ सादे के ४ हजार ८०० रूपये , जनसंपर्क के उतने ही कवरेज के ३० और २४ हजार ,समर्थको की अपील ९ गुना १२ के ५ और ७ हजार , जनसभा रैली के १० गुना १६ के ३० हजार , प्रायोजित साक्षात्कार ७ गुना १२ के as और ८ हजार, मांग पर विशेष कवरेज २५ गुना १६ के २५ और २० हजार, विशेष फीचर इन्नोवेशन ५१\३३ के मोल भाव से दाम तय होंगे , चुनाव चिन्ह के साथ वोट देने की अपील ८ गुना १२ के १८ से १४ हजार, प्रमुख मुद्दों पर बयान और प्रतिक्रिया के अलग, फोटो फीचर आदि के अलग , दीगर बात ये है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी इस से अछूती नही रही । ये तो हुई चुनाव प्रचार के दौरान मीडिया कवरेज की बात लेकिन चुनाव परिणामों की घोषणा में जैसे ही कांग्रेस के बहुमत पाने की बात सामने आई मीडिया ने चीख चीख कर राहुल के युवा फैक्टर का गुणगान करना शुरू कर दिया। परिणामो के सामने आते ही ग्राफिक्स के जरिये यह दिखाना शुरू कर दिया की राहुल गाँधी जहा जहा प्रचार के लिए अपना चरण रखा वहां कांग्रेस को जीत हासिल हुआ । इस वाकये से यह स्पष्ट हो जाता है कि चुनाव प्रचार से चुनाव परिणाम आने तक वर्तमान “प्रायोजित मीडिया” ने अपने नाम के अनुरूप कार्य करते हुए व्यक्तिगत महिमामंडन कर राहुल गाँधी को जन नेता साबित करने में कोई कसार नही छोड़ा । कुछ लोग तो यह भी कहते है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के चुनावी केम्पेन हेतु तथाकथित स्वघोषित नैतिकतावादी पत्रकारों ने ४० करोड़ की मांग की जिसमे ८ करोड़ रूपये ही उन्हें मिले । पूरे पैसे न देने का खामियाजा भाजपा को अपनी जनाधार वाली सीटें गंवाकर चुकानी पड़ी । इस तरह के अनेक किस्से या यूँ कहें कि ख़बरों के पीछे की ख़बर उभरकर सामने आयेगी । नैतिकता के ठेकेदारों यह चरित्र वाकई लोकतान्त्रिक ढाँचे के लिए खतरा बनकर सामने आया है । लोकतंत्र के वाच डॉग की भूमिका निर्वाह करने वाले चौथे स्तम्भ का यूँ भरभराकर गिरना दुखद है । बाजार के इस नंगे नाच में कुछ लोग ऐसे भी है खनक रास न आई और शायद उन्हीं लोगो के बदौलत मीडिया का यह घिनौना रूप आम लोगों के सामने आ सका । प्रभात ख़बर के हरिवंश नारायण ने तो बाकायदा मुख्य पृष्ट पर इस खेल का पर्दाफाश किया और इससे बचने के लिए helpline number भी जारी किया । ऐसे लोगों से थोडी बहुत आशा बची हुयी है लेकिन चुनाव का यह कुम्भ संपन्न होने के हप्ते २ हप्ते बाद भी इन चीजों की चर्चा बड़े पैमाने पर अभी भी नजर नहीं आती है । ऐसा लगता है कि देश के बौद्धिक वर्ग में एक बहुत बड़ा शून्य कायम हो गया है । आज के इस भौतिकवादी युग में सारे मूल्य आज बालू के भीत पर खड़े नजर आते है । आज के दौर में इंसान की कीमत और इंसानियत का मोल वस्तु की तुलना में गौण हो गया है। मुझे एक वाकया याद आता है । हमारे एक मित्र को एक महानगरीय पार्टी में शामिल होने का आमंत्रण मिला और उन्हें दरवाजे पर सिर्फ़ इस लिए रोक दिया गया क्योंकि उनके पास काला जूता नहीं था । पूछने पर जवाब यह दिया गया कि आपके पास काले जूते नहीं होने से ड्रेस कोड का उल्लंघन होता है ! इससे बड़ी विडंबना क्या होगी ! आदमी से ज्यादा जूतों को महत्त्व दिया गया। अंतत हमारे उक्त मित्र सड़क पर कूड़ा चुन रहे एक आदमी से जूता बदलकर पार्टी में शरीक हुए।
बहरहाल मुद्दे पर लौटते हुए प्रभाष जोशी तो मीडिया के इस गैर लोकतान्त्रिक मुनाफाखोरी को जनता के साथ धोखाधडी बताते हुए कहते है कि इन्होनें समाचार पत्र का काम छोड़ कर छापे खाने का काम किया है । जिसकी वजह से इनका रजिस्ट्रेशन रद्द कर इनको प्रिंटिंग प्रेस का पंजीयन देना चाहिए । इसी तरह जिस उम्मीदवार की जितनी खबरें छपी है उसको विज्ञापन की दर से उनके चुनाव खर्च में जोड़ा जाना चाहिए। कानून न हो तो अगली संसद को बनाना चाहिए पर इन्हीं मीडिया की बदौलत जीत कर सांसद में आए जन प्रतिनिधि से ऐसी कानून की उम्मीद करना बेकार है !
अंत में इस चुनाव की एक अभूतपूर्व पहलु की चर्चा करना जायज समझता हूँ। विदेशी ताकतों का सीधा हस्तक्षेप बार इस चुनाव में देखने को मिला हालाँकि इस तथ्य की सबूतों के साथ पुष्टि नहीं की जा सकती । जानकारों के मुताबिक अमेरिकी राजदूत डेविड मलफोर्ड ने सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के लिए जोड़ तोड़ की राजनीति में अहम् भूमिका निभाई । तथाकथित अमेरिकी हस्तक्षेप का नमूना २००८ परमाणु डील के मसले पर वामपंथियों द्बारा साथ छोड़ देने से अल्पमत में आई संप्रग सरकार के शक्ति प्रदर्शन के दौरान भी देखने को मिला था जब सपा के अमर सिंह को अमेरिका बुलाया गया । अब वहां जाते ही कौन सी अमेरिकी घुट्टी पिलाई गई जो वापस आते ही अमर ने परमाणु करार को देशहित में मानते हुए मनमोहन सरकार को समर्थन देने का फ़ैसला कर लिया । अस्तु, चुनाव के दौरान जानबूझ कर दबाये गए इन तथ्यों के आधार पर चुनाव परिणामो को जनता का स्पष्ट जनादेश मानना शायद बेमानी होगी । देखते रहिये आगे आगे होता है क्या ? जिस दिन जनता को जन्नत की हकीकत मालुम होगी इस सरकार का जनाजा करोडो कन्धों पर निकाला जाएगा। ऐसा मैं नही भारतीय लोकतंत्र का पिछला अनुभव कहता है । जब ४०० से ज्यादा सीट लाने वाली राजीव गाँधी की सरकार को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ सकता है तो तब की तुलना में अपनी आधी ताकत रखने वाली वर्तमान सरकार के स्थायित्व की गारंटी कौन लेगा ?

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