भारत में चुनाव और निर्वाचन आयोग ,भाग — 2

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राकेश कुमार आर्य

पांचवीं लोकसभा 
पांचवी लोकसभा में इंदिरा गांधी ने ‘ गरीबी हटाओ ‘ के नाम पर लोगों से वोट मांगे । यहां से राजनीति की दिशा बदल गई ।राजनीतिक दलों ने जनबता को भ्रमित कर वोट मांगने का हथियार नारों को बनाना आरंभ किया । इंदिरा गांधी ने ‘ गरीबी हटाओ ‘ का वायदा किया और उनका यह वादा लोगों के सिर चढ़कर बोलने वाला जादू बन गया । जिसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने जहां चौथी लोकसभा में कांग्रेस को मात्र 283 सीटें दी थी , अब कांग्रेस को उन्होंने फिर से सत्ता में गौरवमयी ढंग से लौटा दिया और उसे 352 सीटें दे दी ।यह वह समय था जब इंदिरा गांधी ने दिसंबर 1971 में पाकिस्तान को परास्त किया था और एक नया देश विश्व के मानचित्र पर बांग्लादेश के नाम से स्थापित कराने में सफलता प्राप्त की थी । इस सफलता का सभी देशवासियों ने स्वागत किया था। यह सफलता इसलिए भी हमारे लिए महत्वपूर्ण थी कि उस समय चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका भी स्पष्ट रूप से पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे । उस समय रूस ने भारत का साथ दिया था। ऐसे में विश्व मंच पर भारत को सम्मान दिलाने में इंदिरा गांधी के योगदान को जब लोगों ने देखा तो वह उनकी ओर स्वभाविक रूप से आकर्षित हुए। इंदिरा गांधी का ‘गरीबी हटाओ ‘ का नारा सफल हो गया और वह सत्तासीन हो गईं । दुख की बात यह रही कि अब इंदिरा गांधी अहंकारी हो चुकी थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को उनके 1971 के चुनाव को चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर अवैध घोषित कर दिया । श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया । उन्होंने त्यागपत्र देने के स्थान पर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। विपक्ष के बड़े-बड़े नेताओं को उन्होंने जेलों में डाल दिया । मार्च 1977 तक उनके द्वारा लगाया गया आपातकाल चलता रहा । मार्च 1977 में जाकर चुनाव आयोजित कराने की घोषणा इंदिरा गांधी ने की । उस समय जनता पार्टी अस्तित्व में आई । जनता पार्टी ने देश के लोगों से वादा किया कि यदि वह इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दें तो देश की कायापलट हम करके दिखाएंगे । उनका चुनावी नारा था – ‘इंदिरा हटाओ- देश बचाओ ।’ यह सही समय था जब हमारे देश के निर्वाचन आयोग को अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए थी । इंदिरा गांधी पर उस समय भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। उन आरोपों के लगने से पहले भी चुनाव आयोग अपने आप समीक्षित कर लेता तो ऐसी स्थिति नहीं आती। इसके उपरांत भी भारत का निर्वाचन आयोग हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा ।जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने भी देश में चुनावी वादों को एक ओर रख कर काम करना आरंभ कर दिया । उसका अपना ही एजेंडा था और जिस एजेंडे पर वह बढ़ती जा रही थी उसे समय रहते चुनाव आयोग रोक सकता था । परन्तु जनता पार्टी की सरकार को चुनाव आयोग ने कुछ भी नहीं कहा। इसके पीछे यह भी कारण हो सकता है कि चुनाव आयोग को ऐसी कोई शक्तियां प्राप्त नहीं थी , परंतु भारत में चुनाव आयोग इतना दुर्बल भी नहीं है कि वह कुछ भी नहीं कर सके ।समय पर यदि कोई अपनी शक्तियों का प्रयोग ना करें तो वह अपने आप ही दुर्बल हो जाता है । भारत के चुनाव आयोग के साथ यही हुआ । उसे अपने आप को मजबूत करने के लिए यह मांग करनी चाहिए थी कि यदि कोई दल सत्ता में आकर अपने चुनावी घोषणापत्र के नारे से विपरीत आचरण करता है तो उसके विरुद्ध कार्यवाही करने का चुनाव आयोग को अधिकार हो। 
छठी लोकसभा आपातकाल की घोषणा कांग्रेस की नेता श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए महंगा सौदा सिद्ध हुआ । यदि वह अपनी सीट बचाने के लिए उस समय ऐसा न करती और न्यायालय के आदेश अनुसार पद त्याग कर देतीं तो ही अच्छा रहता । 1977 के चुनावों से पहले देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को इंदिरा गांधी के आपातकालीन शासन में समाप्त कर दिया गया था। लोगों के लिए बलात बंध्याकरण अभियान चलाया गया। जिसका अधिकांश देशवासियों ने बुरा माना। इंदिरा गांधी ने ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा देकर देश की सत्ता में अपनी वापसी की थी और देश के लोगों ने उन्हें गरीबी हटाने के नारे से प्रभावित होकर भारी बहुमत दिया था । इंदिरा गांधी जब सत्ता में आई तो उन्होंने गरीबी हटाने के स्थान पर संविधान हटाने की प्रक्रिया को अपना लिया । तब इस असंवैधानिक कृत्य को करने पर उनसे किसी ने भी नहीं पूछा कि तुम ऐसा क्यों कर रही हो ? जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने भी आपातकाल लगाने की प्रक्रिया को तो भविष्य के लिए कठोर बनाया परंतु आपातकाल लगाने वाले दल के बारे में क्या होगा ? – यह जनता पार्टी भी नहीं कर पाई । क्या ही अच्छा होता कि निर्वाचन आयोग को इस समय ऐसे अधिकार दे दिए जाते कि यदि बिना कारण के भविष्य में कोई भी दल देश के लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करेगा या करने की चेष्टा करेगा तो निर्वाचन आयोग ऐसे राजनीतिक दल की मान्यता को समाप्त करने के लिए अधिकृत होगा । 23 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने नए चुनावों की घोषणा की । नए चुनावों की घोषणा होते ही कांग्रेस (ओ ) , जनसंघ ,भारतीय लोक दल और समाजवादी पार्टी ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया । यह बहुत ही साहसिक निर्णय था ।जिसे लेकर उस समय के विपक्ष के बड़े नेताओं ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि वह जनता पार्टी के माध्यम से ‘एक ‘ होकर देश का शासन चलाएंगे । उन्होंने नारा दिया था कि ‘लोकतंत्र होगा या तानाशाही ‘ इस नारे को लोगों ने समझा , पकड़ा और समझ कर जनता पार्टी के नेताओं का साथ देने का मन बनाया । मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी को 298 सीटें मिलीं । कांग्रेस 200 सीटों पर चुनाव हार गई । यहां तक कि इंदिरा गांधी स्वयं और उनके पुत्र संजय गांधी भी अपनी सीट को बचा नहीं पाए और उन्हें लोगों ने अपनी अपनी सीटों से पराजित कर दिया । इसी समय कांग्रेस के बाबू जगजीवन राम कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी नामक दल की स्थापना की । बाबू जगजीवन राम इंदिरा गांधी की सरकार में कृषि सिंचाई मंत्री थे।इन चुनावों ने स्पष्ट कर दिया कि यदि अपने मौलिक चुनावी घोषणा पत्र से अलग जाकर कोई सरकार कार्य करेगी और लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करेगी तो देश के मतदाता ऐसे शासक को धूल चटाने से चूकेंगे नहीं । देश के इस मनोभाव को उस समय समझना चाहिए था और समझ कर इंदिरा गांधी के शिकंजे में फंसे हुए पंगु और नपुंसक बने चुनाव आयोग को जनता पार्टी शक्तिशाली कर देती तो यह स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए बहुत ही उचित निर्णय होता। वैसे भी जब जनता पार्टी के नेता लोगों के सामने मंचों से यह कह रहे थे कि ‘लोकतंत्र होगा या तानाशाही ‘ और लोगों ने उनकी बातों से प्रभावित होकर यह निर्णय दे दिया था कि देश में लोकतंत्र ही होगा तो लोकतंत्र की रक्षा के लिए उन्हें चुनाव आयोग के हाथों को मजबूत करना ही चाहिए था। पर वह स्वयं ही दुर्बल थे। उन्हें सत्ता चलाने का कोई अनुभव नहीं था । उन्होंने अभी तक विपक्ष में बैठकर केवल लड़ना सीखा था । यद्यपि कई लोग उनमें ऐसे थे जो सत्ताधारी दल के बड़े नेता रहे थे , परंतु अधिकतर विपक्ष में बैठकर लड़ने वाले लोग थे । लड़ने की यह प्रवृत्ति एक संस्कार बनकर उनके भीतर बैठ गई थी ।अतः सत्ता मिलते ही उनका यह लड़ने का संस्कार उन पर हावी हो गया ,फलस्वरूप जनता पार्टी सरकार गिर गई।
सातवीं लोकसभा ‘इंदिरा हटाओ – देश बचाओ ‘ – का नारा देकर या देश में ‘लोकतंत्र होगा या तानाशाही ‘ – जैसा चुनाव अभियान चलाकर जो लोग सत्ता में आए थे उनकी अधिक समय तक परस्पर पटी नहीं । कुछ समय उपरांत ही उनके मतभेद इतने बढ़ गए कि पूरी सरकार ही कलह का पर्यायवाची बन कर रह गई । चरण सिंह और जगजीवन राम दोनों का 36 का आंकड़ा हो गया । इसी प्रकार चरण सिंह और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का अहंकार भी परस्पर भिड़ गया। ये सरकार में रहकर आयोग बनाते रहे और श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध प्रतिशोध की राजनीति करते रहे । यह जितना ही प्रतिशोध की राजनीति करते जा रहे थे जनता में इंदिरा गांधी के प्रति उतनी ही सहानुभूति बढ़ती जा रही थी । श्रीमती गांधी ने अपने आप को जनता के समक्ष असहाय और बेचारी सिद्ध करने में कोई कमी नहीं छोड़ी । देश की जनता उनके प्रति सहानुभूति से भरने लगी और जिन लोगों को देश की सत्ता सौंप दी गई थी उनके नित्य प्रति के नाटकों से जनता दुखी हो उठी। सरकार में बैठे अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया । उन्होंने अपने भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किया । प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने विश्वास मत खो दिया तो उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया । उनके त्यागपत्र देने के पश्चात चौधरी चरण सिंह ने जून 1979 में प्रधानमंत्री पद का दायित्व संभाला । कांग्रेस की इंदिरा गांधी ने संसद में चौधरी चरण सिंह को समर्थन देने की घोषणा की और जब सही समय आया तो वह अपने दिए हुए वचन से पीछे हट गईं ।जनवरी 1980 में चौधरी चरण सिंह ने चुनाव की घोषणा कर दी । वह संसद का सामना नहीं कर पाए । इस प्रकार राजनीतिक अस्थिरता को और बढ़ा कर श्रीमती इंदिरा गांधी ने जनता को भ्रमित कर अपने पक्ष में आदेश ले लिया । नए चुनाव में कांग्रेस ने 351 सीटें जीती । जनता पार्टी को मात्र 32 सीट मिलीं।यहां पर देखने वाली बात यह है कि जब जनता पार्टी का गठन हुआ था और उसने देश की जनता से अपने चुनावी घोषणा पत्र के माध्यम से जो वायदा किया था उसे वह नहीं निभा पाई । इसी प्रकार चौधरी चरण सिंह की सरकार को चलाने का वायदा कांग्रेस ने किया । परंतु सही समय पर कांग्रेस वायदे से पीछे हट गई । इन दोनों परिस्थितियों में भारत के चुनाव आयोग को इतना शक्ति संपन्न होना चाहिए था कि वह देश को राजनीतिक अस्थिरता से बचाने के लिए राजनीतिक दलों को इस बात के लिए प्रेरित औऱ बाध्य करता कि वह अपने दिए हुए वचन के अनुसार सरकार चलाएंगे या सरकार चलने देंगे । हमारी व्यवस्था न तो जनता पार्टी को तोड़ने वाले नेताओं के विरुद्ध कुछ कर पायी और ना ही चौधरी चरण सिंह की सरकार को बलि का बकरा बनाने वाली इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस के विरुद्ध कुछ कर पायी। ऐसा लगा कि जैसे राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ जो भी कानून बनाते हैं वह उनके लिए नहीं होता , सारी नैतिकता और कानून के राज की बात केवल जनसाधारण के लिए होती हैं । यह लोकतंत्र की चादर को चाहे जैसे तार-तार करें , जैसे उसका दुरुपयोग करें, वह सब इनकी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है । देश को अनचाहे चुनावों में धकेलना इनका कुसंस्कार बन गया । फ़लस्वरूप कांग्रेस की इंदिरा गांधी ने देश को चुनावों की ओर बड़ी सहजता से धकेल दिया और जनता को भ्रमित कर सत्ता अपने लिए प्राप्त कर ली । सत्ता प्राप्त करते ही वह दूध की धुली हुई देवी बनकर देश में पूजी जाने लगीं । निर्वाचन आयोग असहाय बना देखता रह गया । उसने अपने आप को केवल इतने तक सीमित कर लिया कि वह चुनाव करवाता है , इसके बाद कुछ नहीं जानता कि कौन क्या कर रहा है और किसे क्या नहीं करना चाहिए? लोकतांत्रिक संस्थानों को इतना असहाय और दुर्बल कर देना लोकतंत्र की जीत नहीं लोकतंत्र की पराजय है । व्यवस्था में कहीं ना कहीं भारी छिद्र हैं और उन छिद्रों की हम यदि उपेक्षा कर रहे हैं या करते रहे हैं तो इसे स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित नहीं कहा जा सकता।
आठवीं लोकसभा इंदिरा गांधी ने अपना दूसरा कार्यकाल कुछ विशेष कार्यों के साथ संपन्न किया । जिनमें एशियाई खेलों का आयोजन – 1982 ,निर्गुट शिखर सम्मेलन और पंजाब के अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर पर सैनिक कार्यवाही सम्मिलित है । 1984 में 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी की हत्या उन्हीं के अंग रक्षकों के द्वारा कर दी गई ।प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण मंदिर में भेजी गई सेना की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप यह जघन्य अपराध किया गया था । तब कांग्रेस को सत्ता में लौटने का एक स्वर्णिम अवसर भी उपलब्ध हो गया। इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात लोगों में सहानुभूति की लहर फैल गई । फलस्वरूप कांग्रेस सहानुभूति की लहर पर चढ़कर सत्ता में अभूतपूर्व बहुमत लेकर लौट आई। कांग्रेस के युवा नेता राजीव गांधी ने ‘कांग्रेस लाओ- देश बचाओ ‘ का नारा दिया और उसी नारे के आधार पर लोगों ने उनको प्रचंड बहुमत देकर सत्ता शीर्ष तक पहुंचा दिया । ‘ कांग्रेस लाओ -देश बचाओ ‘ – में देश के लोगों के प्रति कांग्रेस का बहुत बड़ा वायदा छुपा हुआ था । सारा का सारा चुनावी घोषणा पत्र इस नारे में समाहित हो कर रह गया ।लोगों को लगा कि यदि कांग्रेस को सत्ता में नहीं लाया गया तो जैसे देश धरती से उठकर आसमान में चला जाएगा । अतः कांग्रेस को लाना आवश्यक है । वास्तव में यह राजनीतिक लाभ लेने के लिए कांग्रेस की ओर से किया गया एक ऐसा कार्य था जिसका कहीं हिसाब-किताब तो लेना देना नहीं होता परंतु इसे अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जब अपना लिया जाए तभी अच्छा है । इसी को राजनीति में ‘मूर्ख बनाओ- मौज उड़ाओ ‘ की नीति कहते हैं और लोकतंत्र में राजनीति इसी बिंदु पर चलती है । फलस्वरूप कांग्रेस अपने उद्देश्य में सफल हो गई ।इस समय एक आश्चर्यजनक घटना भी घटित हुई । तेलुगू देशम जैसी पार्टी जो एक प्रांतीय स्तर पर अपनी राजनीति कर रही थी । उसे लोगों ने 30 सीटें देकर प्रमुख विपक्षी दल बना दिया । ऐसा अभी तक के इतिहास में नहीं हुआ कि जब एक क्षेत्रीय स्तर की पार्टी को लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल का दायित्व मिल गया हो ।यहां पर यह तथ्य विशेष रूप से विवेचनीय है कि लोकतंत्र में सारा कुछ राजनीतिक दलों की इच्छा पर ही छोड़ दिया जाता है, वह जब चाहे चुनाव करा लें। जब अपने अनुकूल उनको लगता हो तब वह जनता का मूर्ख बना कर अपना उल्लू सीधा करलें । अच्छी बात तो यह होगी कि देश की परिस्थितियां चुनाव के योग्य है या नहीं ,या देश में ऐसी परिस्थिति तो नहीं है जिससे देश के जनमानस की सुकोमल भावनाओं का तात्कालिक लाभ कोई दल विशेष उठा सकता है आदि विषयों को देखने का दायित्व हमारे देश के निर्वाचन आयोग को होना चाहिए ।यदि वह ऐसा पाता है कि देश की परिस्थितियां किसी एक दल को लाभ पहुंचाने वाली बन गई हैं और तात्कालिक घटना से प्रभावित होकर लोग किसी दल विशेष को सत्ता का प्रचंड बहुमत दे सकते हैं तो ऐसी परिस्थिति को टालने की शक्ति हमारे निर्वाचन आयोग के पास होनी चाहिए । इससे राजनीतिक दल किसी घटना विशेष से उपजी सहानुभूति की लहर का अनुचित लाभ नहीं पा सकेंगे और जब कुछ देर रुक कर लोगों का विवेक अपने स्थान पर लौट आएगा तो उस समय चुनाव होने पर पूर्ण पारदर्शी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाकर संपन्न होने वाले चुनावों में एक वास्तविक लोकतांत्रिक जनादेश प्राप्त हो सकेगा । जिसे प्राप्त कराया जाना लोकतंत्र में निर्वाचन आयोग का सबसे पवित्र उद्देश्य होना चाहिए।
नौवीं लोकसभा 9 वी लोकसभा के आने तक हमारे राजनीतिज्ञों का स्तर बहुत गिर चुका था । उनका राजनीतिक चिंतन बहुत ही अधिक स्वार्थ प्रेरित हो चुका था और वायदा करना और करके मुकर जाना उनके राजनीतिक चरित्र का एक आवश्यक अंग बन चुका था । उन्हें हर स्थिति परिस्थिति में अपनी सत्ता प्रिय होने लगी ।इससे अलग उन्हें कुछ भी प्रिय नहीं रहा। राजनीति ऐसे मकड़जाल में जा फंसी जहां से निकलने के लिए वह आज तक प्रयास कर रही है ,पर जितना ही अधिक निकलने का प्रयास करती है हम देखते हैं कि उतनी हीं अधिक फँसती जाती है ।जाति, धर्म ,संप्रदाय 9 वीं लोकसभा के समय देश की राजनीति में पूर्णतया हावी हो चुके थे । चुनावी नारों और वायदों में भी इनकी झलक स्पष्ट झलक दिखाई देने लगी । कांग्रेस ने राजीव गांधी के नेतृत्व में 1984 में जो बहुमत प्राप्त किया था वह अपने उस प्रचण्ड बहुमत को अब खोने की स्थिति में आ चुकी थी । इसका कारण यह था कि कांग्रेस के नेता राजीव गांधी के साथ ही काम करने वाले उनके कैबिनेट मंत्री वी पी सिंह ने अपने ही प्रधानमंत्री के विरुद्ध ऐसा राजनीतिक दुष्प्रचार किया कि देश में राजीव गांधी की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह उठने लगे । इसी समय पंजाब का आतंकवाद, लिट्टे और श्रीलंका सरकार के बीच का संघर्ष ,बोफोर्स कांड, जैसे कुछ मुद्दे इतनी गहराई से गरमाये कि उनके बहाव में राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत से बनी सरकार ही बह गई । वी पी सिंह ने आरिफ मोहम्मद खान और अरुण नेहरू के साथ मिलकर जन मोर्चा का गठन किया और इलाहाबाद से फिर लोकसभा में प्रवेश करने में सफलता प्राप्त की । इससे पूर्व राजीव गांधी उन्हें अपने मंत्रिमंडल से निष्कासित कर चुके थे । तब उन्होंने स्वयं हीं लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था । 11 अक्टूबर 1988 को वी पी सिंह ने जनमोर्चा ,जनता पार्टी, लोक दल और कांग्रेस ( एस )को एक साथ लेकर जनता दल बनाया । जनता दल को डीएमके , तेलुगू देशम पार्टी ,असम गण परिषद ने विश्वास दिलाया कि वह उसके साथ मिलकर कार्य करेंगे । तब इन सब नेताओं ने और राजनीतिक दलों ने मिलकर राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया । 5 पार्टियों ने मिलकर नेशनल फ्रंट बनाया । इसे भाजपा ,मार्क्सवादी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई के साथ मिलकर 1989 के चुनावी मैदान में उतारा। 525 सीटों के लिए चुनाव 22 और 26 नवंबर को दो चरणों में संपन्न हुआ। राष्ट्रीय मोर्चा ने भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई । जनता दल ने 143 भाकपा ने 30 सीटें प्राप्त कीं। जबकि अन्य दलों ने 59 सीटें प्राप्त कीं। कांग्रेस अभी भी 197 लोकसभा सीट प्राप्त करने वाली बड़ी पार्टी थी । जब कांग्रेस के नेता राजीव गांधी ने सरकार बनाने से इंकार कर दिया तो वी पी सिंह देश के दसवें बने । उन्होंने प्रधानमंत्री पड़ की शपथ 2 दिसंबर 1989 को ली । उन्होंने 10 नवंबर 1990 तक देश के प्रधानमंत्री पद के दायित्व का निर्वाह किया । इसी समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा निकालनी आरम्भ की तो उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार में रोक दिया और गिरफ्तार कर लिया । भाजपा ने इस बात से खिन्न होकर राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया , जिसके फलस्वरूप सरकार गिर गई । इसके पश्चात 64 सांसदों के साथ चंद्रशेखर ने देश के प्रधानमंत्री के पद की शपथ ली। 10 नवंबर 1990 से 6 मार्च 1991 तक चंद्रशेखर ने देश के प्रधानमंत्री के पदीय दायित्वों का निर्वाह किया । कांग्रेस ने उनकी सरकार को पहले तो बाहर से समर्थन दिया और फिर यह कहकर उनकी सरकार गिरा दी कि वह कांग्रेस के बड़े नेताओं की जासूसी करा रहे थे।राजनीति का यह गिरा हुआ स्तर था ।जिसमें कोई भी नेता अपने वचन और वायदे से बंधा हुआ नहीं था । सब अपने स्वार्थों की राजनीति कर रहे थे और देश संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा था । देश के राजनीतिक मूल्यों में अप्रत्याशित गिरावट देखी गई । इसका कारण यह था कि देश के नेताओं पर लगाम लगाने वाला कोई लोकतांत्रिक संस्थान देश में नहीं था और ना आज भी है। इन्होंने अपने आप को कानून से ऊपर मान लिया और इनसे ऐसी किसी व्यवस्था की आशा नहीं की जा सकती जो इन पर लगाम लगाने वाली हो ,क्योंकि कानून बनाने वाले यह स्वयं हैं । ऐसे में कोई भी व्यक्ति यह नहीं कर सकता कि वह अपने ऊपर किसी को अंकुश के रूप में स्थापित कर दे । यही कारण है कि भारत के निर्वाचन आयोग को ऐसी शक्तियों से संपन्न नहीं किया गया है जिनसे वह देश के राजनीतिक दलों पर अंकुश का काम कर सके। यहां तक कि देश की न्यायपालिका को भी इस क्षेत्र में सीमित अधिकार ही दिए गए है।

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