“चुनाव” एक चुनौती…

                 भारत की 17 वीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार आज सर्वत्र अपने पूर्ण यौवन पर जन-जन को आकर्षित कर रहा है। युवा भारत विश्व की महान शक्ति बने ऐसा विमर्श सरल तो नहीं परंतु असंभव भी नहीं। आज राजनीति अनेक वाद-विवादों वाले वायदे और घोषणा पत्रों में अधिक हो रही है। लोकलुभावन और आकर्षक चुनावी घोषणा पत्रों में गंभीरता कम राजनैतिक चालबाज़ी अधिक प्रभावी होती जा रही है। धरातल पर इनके अनुरूप कुछ कार्य होगें ऐसा अब मतदाताओं को विश्वास नही रहा। राजनैतिक कर्मज्ञों के अभाव में देश की राजनीति में सिद्धान्तों का शनें-शनें पतन हो रहा है। परनिंदा व आत्मस्तुति पर नये नये तर्क-वितर्क चुनावी जंग में हथियार बनते जा रहे है। शालीनता व शिष्टाचार की सारी सीमाएं लांघने वाले विवादित बयानों की होड़ ने चुनावी प्रचार को झगड़ालू बना दिया है। विभिन्न नेताओं द्वारा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की स्पर्धा से लोकतांत्रिक मूल्य आहत हो रहें है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी प्रतिद्वंदिता से न तो समाज का कोई भला हो सकता है और न ही देश का विकास।सत्ता पाने के लिए नेताओं की सोच इतनी अधिक आत्मघाती व कुटिल हो गई है कि वे मुस्लिम परस्त बनें रहने के लिए देश के शत्रुओं को भी लाभ देने के मार्ग ढूंढ रहें हैं। जबकि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यवाद के नाम पर मुसलमानों को सामान्य अधिकारों के अतिरिक्त अनेक विशेषाधिकार स्वतंत्रता के बाद से ही निरंतर दिए जाते आ रहें। क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में धर्मनिरपेक्ष संविधान का उल्लंघन उचित होगा ?
चुनाव आयोग के कड़े नियमों का पालन होने से पूर्व की भांति चुनावी प्रचार गलियों व सड़कों पर अब नही दिखता। जगह-जगह विभिन्न उम्मीदवारों के झंडों, पोस्टरों व बैनरों से पटे बाजार व मुख्य मार्ग अब स्मृतियां बन चुकी है। जिस प्रकार पूर्व में चुनावों के समय कार्यकर्ताओं की टोलियां  उम्मीदवारों के प्रचार के लिए अपने-अपने क्षेत्रों में चुनावी वातावरण बनाती थी वह उत्साह भी अब देखने को नही मिलता। इस रिक्तता को भरने के लिए आज के इलेक्ट्रॉनिक युग व समाज के आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व के कारण चुनावी प्रचार की मुख्य भूमिका टीवी समाचार चैनलों ने सम्भाल ली है। चुनावी घोषणाओं के पहले से ही कुछ समाचार चैनलों ने बड़ी-बड़ी राजनैतिक बहस आरम्भ कर दी है। प्रायः जैकेट व कुर्ता धारी विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं की छोटे-बड़े विभिन्न विषयों पर विवादित नोंकछोंक टीवी एंकरों के ज्ञानवर्धन में भी सहयोगी हो रही है। टीवी चैनलों द्वारा ऐसे कार्यक्रमों का निरंतर चलन महत्वपूर्ण विषयों से अपने दर्शकों को अवगत कराने का एक प्रमुख कार्य कर रहा है। आज जब अनेक समाचार पत्र व पत्रिकाएं भी चुनावी समाचारों से भरें रहते है व उनमें भी अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं होती है फिर भी टीवी चैनलों पर लाइव बहस सामान्य जन को अधिक प्रभावित कर रही है। 
आज के अमर्यादित व विवादित चुनावी वातावरण में “भारतीय परिवेश में चुनाव एक चुनौती” पर चिंतन करना श्रेष्ठ जनों का दायित्व है। आदर्श व सिद्धान्तों पर आधारित 
भारतीय मूल्यों के अनुरूप चुनावों में राष्ट्र रक्षार्थ जन जन को सक्रिय करना होगा। प्राचीन काल से भारत की धरती ओजस्वी आचार्यों व ऋषि-मुनियों के सामर्थ्य से गौरवान्वित होती रही है। परंतु दासता काल के लगभग 900-1000 वर्षों की अवधि ने धर्मान्ध आक्रांताओं के अत्याचारों से मुक्ति के पश्चात स्वतंत्र भारत में सत्तालोलुप मानसिकता ने हमें आदर्शहीनता में जकड़ दिया। परिणामस्वरूप चारित्रिक व नैतिक पतन होने से अनेक राक्षसी प्रवृतियां बलवती होती रहीं। आज देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था सुदृढ़ समाज व राष्ट्र के निर्माण के लिए ब्रिटिश संविधान के ही प्रारूप पर आधारित बनें भारतीय संविधान के अनुरूप कार्यरत है। इसी के अंतर्गत देश की सर्वोच्च संस्था “लोकसभा” के सदस्यों का चुनाव अत्यधिक महत्व का विषय है। तदानुसार समस्त वयस्क भारतीय नागरिकों को इस चुनावी प्रक्रिया में मताधिकारी बनाया हुआ है। ऐसे में समाज को राष्ट्र के प्रति जागरूक करके उसकी सक्रियता का लाभ देश को कैसे मिलें यह प्रश्न अपने आप में जटिल बना हुआ है ? 
मुख्यतः स्वतंत्रता के पश्चात बनी परिस्थितियों ने देशवासियों में ऐसा कोई बीजारोपण नही किया जिससे उनमें राष्ट्र के प्रति कोई कर्तव्य या दायित्व का भाव जागता। तत्कालीन नेताओं ने ऐसी कोई भूमिका नही निभायी जिससे नागरिकों में समाज व देश के प्रति कोई सकारात्मक सोच विकसित होती। लेकिन यह अवश्य हुआ कि स्वार्थ के वशीभूत सत्ता सुख व लोभी-लालची मानसिकता निरंतर फलीभूत होती रही। राष्ट्रीय संसाधनों की लूट को बड़े सुनियोजित ढंग से चलाने के लिए कुछ भ्रष्ट नेताओं की नकारात्मक मानसिकता ने समाज को अपराधी व भ्रष्टाचारी बना दिया। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद व आतंकवाद जैसी निरंतर बढ़ती समस्याओं व अन्य सामाजिक संगठनों के कारण राजकोष पर बढ़ता बोझ भी नेताओं की दूषित कार्यशैली का दुष्परिणाम है। सामान्यतः यह भी देखा जा रहा है कि क्षेत्र,जाति व सम्प्रदाय/धर्म को आधार मान कर छोटे-छोटे राजनैतिक व सामाजिक संगठनों का गठन बढ़ रहा है। जबकि इन संगठनों में समस्त समाज व राष्ट्र के हितों की सर्वव्यापी सोच बन ही नही पाती। परिणामस्वरूप इनके नेता राष्ट्रीय राजनीति को अपने स्वार्थो के लिए प्रभावित करते है। यह आम धारणा है कि राजनीति में सेवा कम परंतु मेवा का स्वाद अधिक मिलता है। साथ ही यह भी दुःखद है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेता भी राजनीति को ढाल बना कर अपना बचाव करने में सफल होते रहे हैं। 
अधिक विस्तार में न जाते हुए इन विपरीत परिस्थितियों में आज यह परम् आवश्यक है कि राष्ट्र निर्माण के लिए राजनीति को पावन व पवित्र करा जाय।
क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था ने राजनीति को केवल बाहुबलियों व धनबलियों का खेल बना दिया है। जिससे चरित्रवान, समर्पित,योग्य व सेवा भाव वाले देशभक्तों का अभाव बना हुआ है। समर्थ व मेघावी युवा पीढी वर्तमान राजनीति में चालबाजों के षडयंत्रों को समझे बिना ही डर्टी पॉलिटिक्स के भ्रम में इससे दूर होती जा रही है। वह इसको निकृष्ट कार्य मानने की भूल कर रही है। उच्च अध्ययन प्राप्त युवा डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक व सिविल सर्विस आदि के प्रति अधिक उत्साहित हो रहे हैं। परिणामस्वरूप कम बुद्धिमान परंतु चालबाज चमचे व चाटुकार प्रवृति वाले, विरासत में मिलने वाली नेतागिरी, जातियों के बल व धर्म के आधार पर अयोग्य लोग राजनीति में स्वार्थ पूर्ति हेतु सक्रिय हो गये हैं। छोटे-बड़े आपराधिक तत्वों को भी राजनैतिक शरण में जाना ही पड़ता है। जिससे राजनीतिज्ञ कर्मज्ञों का अभाव देश की प्रमुख समस्या बन चुकी है।
राजनीति स्वार्थियों व अपराधियों के लिए नही बल्कि समाज का मार्गदर्शन करके व्यवस्थाओं को सुचारू बनाना,नागरिक हितों को ध्यान में रखना, सामाजिक व राष्ट्रीय सुरक्षा आदि के लिए समर्पित होनी चाहिये। भारतीय परिवेश में चुनाव की चुनौती को स्वीकार करने के लिए योगीराज श्रीकृष्ण व आचार्य चाणक्य जैसे महापुरुषों के राजनैतिक सिद्धान्तों को अपनाना होगा। अतः समस्त मतदाताओं को इस लोकतांत्रिक पर्व की महत्ता को समझ कर चुनावों में अपने मताधिकार का सदुपयोग करके राष्ट्र निर्माण में भागीदार बनना चाहिये।    

विनोद कुमार सर्वोदय

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