प्रमोद भार्गव
असम को छोड़ अन्य राज्यों के चुनाव परिणाम वही आए, जैसे आने की उम्मीद थी। लिहाजा परिणाम चौंकाने वाले नहीं कहे जा सकते। पश्चिम बंगाल के परिप्रेक्ष्य में जरूर वामपंथियों को हराकर आम आदमी के हुलिये की प्रतीक ममता बनर्जी ने इतिहास रचा है। हालांकि मतदान की अधिकता ने भी बदलाव के संकेत दे दिए थे। तमिलनाडू और बंगाल में तो इतिहास का सर्वाधिक मतदान हुआ। इसका श्रेय राजनीतिक दलों की बजाय चुनाव आयोग को जाता है। सुरक्षा बलों की तैनाती कर जहां असम और बंगाल में हिंसा व मतदान केंद्र कब्जाने की धटनाएं सामने नहीं आईं, वहीं आयोग ने ऐसा महौल रचा जिससे लोगों ने निडर होकर बढ़-चढ़ कर मतदान में हिस्सा लिया। इन चुनाव नतीजों ने चार बुर्जुगवार दिग्गज राजनीतिज्ञों के भाग्य का भी फैसला कर दिया है, इनमें से तीन, बुध्ददेव भट्टाचार्य, करूणानिधि और अच्युतानंद मिश्र को पराजय का सामना करना पड़ा वहीं तरूण गोगाई असम में तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण कर इतिहास रचेंगे। भारतीय राजनीति की दो दिग्गज महिलाएं ममता बनर्जी और जयललिता मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं। इससे देश की राजनीति और सत्ताा में महिला पदाधिकारियों का ग्राफ बढ़ गया है। लेकिन इनका नेतृत्व महिला सशक्तिकरण में कितना भागीदार होता है, इसके परिणाम अभी काल के गर्भ में हैं। क्योंकि देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ताा का खेल, खेल रही सोनिया गांधी के सत्ताा में जबरदश्त प्रभाव व पकड़ के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा से पारित नहीं हो सका है।
सबसे पहले तो इन चुनाव परिणमों की जो खास भूमिका रही उसके तईं चार में से तीन बुर्जुगवार मंख्यमंत्रियों को जनता ने खारिज कर दिया। इनमें पश्चिम बंगाल के 67 वर्षीय मुयख्मंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य, तलिमनाडू के 86 वर्षीय करूणानिधि हैं। केरल के 75 वर्षिय मुख्यमंत्री तरूण गोगाई जरूर तीसरी पारी खेलने जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं की ये मुख्यमंत्री जीतते तो गोगाई की तरह इतिहास रचते, लेकिन अब ये हार गए हैं इसलिए ये राजनीति के अतीत में कहीं गुम हो जाएंगे। बुध्ददेव को तो खुद हार का सामना करना पड़ा है। किसी मुख्यमंत्री के लिए स्वयं पराजय से रूबरू होना, उसकी राजनीतिक हैसियत का जनविरोधी दस्तावेज है। जिससे एकाएक उबरना आसान नहीं है। वामपंथियों ने बंगाल में गरीबी को अजेंडे में शामिल जरूर किया, लेकिन गरीबी से मुक्ति के कारगर उपाय नहीं किए। इसी तारतम्य में ममता आक्रमक तेवरों के साथ आम आदमी के हुलिए में आदमकद पेश आईं। नतीजतन अवाम ने उन्हें मजबूत वैकल्पिक विपक्ष के रूप में देखा और ताबड़तोड़ समर्थन दिया। ममता ने सिंगूर और नंदीग्राम की हिंसा को इस हद तक भुनाया कि बुध्ददेव, वामपंथ और सरकार की लोकप्रियता चौपट कर उन्हें आपराधिक तत्वों के दर्जे में ला खड़ा किया। इस माहौल को रचने में निर्विवाद रूप से एकांगी योगदान ममता के जुझारू संघर्ष को जाता है। कांग्रेस गठबंधन के रूप में ममता से जुड़ी जरूर थी, लेकिन उसकी भूमिका पतंग में पुंछल्ले से ज्यादा नहीं गिनी जा सकती। कालांतर में भी कांग्रेस की भूमिका इसी रूप में बनी रहेगी। रेल भवन से राइटर्स बिल्डिंग का सफर तय करने वाली तेज तर्रार इस नेत्री से कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद पालने की जरूरत नहीं है। क्योंकि ममता के पीछे चली आंधी ने तय कर दिया है कि मां, माटी और मानुष का नारा देकर लाल गढ़ पर झण्डा फहराने वाली इस राजनेत्री में ‘नेता’ बनाम ‘ममता’ के बीच न तो कोई दूरी है, न फर्क है और न ही कुटिलता है। इन्हीं वजहों से वे आम आदमी की प्रतीक हैं। सिद्धार्थ शंकर रे के समय कांग्रेस का नेतृत्व जहां प्रतिबध्दता का बोध कराता था, वहीं ममता सर्वहारा का बोध दे रही हैं। जिसमें अपेक्षाकृत ज्यादा संवेदनशीलता है। यहां ममता की जीवटता को दाद देने होगी। पूरे 34 साल उन्होंने वामपंथ से संघर्ष किया। उन्हें तोड़ने के लिए उन पर कातिलाना हमले भी हुए। किंतु वे पीछे नहीं हटीं। बल्कि दुनिया के नक्शे से जिस वामपंथ का सफाया हो चुका था, वह अंगद के पांव की तरह बंगाल में डटे रहकर वाममार्गियों के लिए एक उत्प्रेरक मिशाल का काम कर रहा था। इस काम को ममता के संकल्प और मजबूत इच्छाबल ने आखिरकार धूल चटा ही दी। लेकिन इस प्रचंड जीत के बाद अब ममता को अपने राजनैतिक हठ के परिदृश्य को थोड़ा लचीला बनाने की जरूरत है। ममता वामदलों से संवादहीनता बनाए हुए हैं। जैसे वामपंथी कोई फिरंगी हुक्मरान हों। विपक्ष से संवाद कायम किए बिना स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का विकास नमुमकिन है? शांति, सद्भाव और भाईचारे के लिए भी प्रतिपक्ष से बोलचाल जरूरी है।
बुध्ददेव से ज्यादा संकट में तमिलनाडू के निर्वतमान होने जा रहे मुख्यमंत्री करूणानिधि हैं। क्योंकि यहां करूणा और जयललिता के बीच जो टकराव है, उसका धरातल केवल राजनीतिक हदों में सीमित नहीं है, वह व्यक्तिगत शत्रुता और कटुता की हद में भी है। करूणा की सत्ताा तो तहस-नहस हो ही गई, उनका वंशवादी जो अतिरिक्त मोह था, उस पर भी जनता ने करारा तमाचा जड़ा है। ये विपरीत हालात उनके परिवार की अंदरूनी लड़ाई को सड़क पर भी ला सकते हैं। इधर उनकी बेटी कनिमोझी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में इतनी घिर गईं हैं कि उन्हें कभी भी जेल के सींखचों के पीछे जाना पड़ सकता है। इस कारण निश्चित रूप से द्रमुक सकते में है और उसे केंद्रीय सत्ता (संप्रग) से सरंक्षण व सुरक्षा की जरूरत है। क्योंकि अन्नाद्रमुक जरा सी गुंजाइश मिलते ही, बुर्जुग करूणनिधि और उनके वंशजों को अपमानित करने से चुकने वाली नहीं है। यह एक ऐसी वजह भी है जिसके चलते करूणा का कुटुम्ब मजबूरीवश एक बना रहे। वैसे भी जयललिता से लड़ाई के लिए इस कुटुम्ब को अब सक्रिय राजनीति के आचरण प्रदर्शन में बने रहने की जरूरत है। द्रमुक की इस लाचारी से कांग्रेस जरूर भविष्य में लाभान्वित होती रहेगी। क्योंकि अब करूणानिधि गठबंधन की मजबूरी के चलते मोलभाव की स्थिति में नहीं हैं। कांग्रेस के पास जयललिता के 19 सांसदों का ऐसा मजबूत विकल्प मौजूद है जो गठबंधन का हिस्सा बनने को तत्पर है। बहरहाल द्रमुक की कमजोरी कांग्रेस को मजबूती देती रहेगी। जयललिता को मतदाताओं ने 85 फीसदी सीटों पर जीत दिलाई है। दो मर्तबा मुख्यमंत्री रह चुकी जयललिता को यह जीत दंभ के आचरण में भी ढाल सकती है। वैसे भी उनका रवैया तानाशाही प्रवृत्तिा का प्रतीक रहा है। इसलिए करूणा-कुटुंब के हाल, बदतर बनाने के प्रति तो वे सचेत रहेंगी ही, अपने ही गठबंधन के सहयोगी दलों से जयललिता किनाराकशीं कर जाएं तो इससे भी हैरान होने की जरूरत नहीं है। हालांकि इस सब के बावजूद तमिलनाडू में अन्नाद्रमुक और द्रमुक के अलावा कोई तीसरी विकल्प उभरता दिखाई नहीं दिया। पुड्डुचेरी में भी अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर पूर्व मुख्यमंत्री एन रंगास्वामी सरकार बनाने जा रहे हैं।
केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंद मिश्र भी 87 साल के दिग्गज वामपंथी नेता हैं। यहां कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूनाइटेड डेमोक्रेडिट फ्रंट ने सीपीएम के नेतृत्व वाली लेफ्ट डेमोक्रेडिट फ्रंट को मामूली अंतर से पराजित कर दिया है। मिश्र ने 68 सीटों पर जीत हासिल कर यह तो जताया है कि उनकी उम्र भले ही बढ़ गई हो, उनके जोश का उबाल अभी ठंडा नहीं पड़ा है। यदि मिश्र और पोलित ब्यूरो के सदस्य विजयन से उनका टकराव नहीं बना रहता तो वे यूडीएफ गठबंधन को जीत के करीब नहीं पहुंचने देते। यहां कांग्रेस की दुविधा यह है कि उसके पास कोई ऐसा मजबूत राजनीतिक चेहरा नहीं है जिसे मुख्यमंत्री की कमान सौंप दी जाए। मुख्यमंत्री का कोई प्रबल दावेदार भी नहीं है। चूंकि राहुल गांधी केरल में प्रचार की मुहिम का हिस्सा थे, इस नाते उम्मीद की जाती है कि उनकी पसंद के व्यक्ति को केरल की जिम्मेवारी सौंप दी जाऐगी। इनमें रमेश चेन्नीथला संभावित नाम है। मुख्यमंत्री कोई भी बने हालिया चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि मजबूत विपक्ष केवल केरल में होगा। बांकी अन्य राज्यों में सशक्त विपक्ष का अभाव सत्ताापक्ष को मनमानी करने पर विवश कर सकता है।
तरूण गोगाई ने हेटट्रिक मारकर सबकों चौंकाया है। अब वे शीला दीक्षित, नीतिशकुमार और नरेन्द्र मोदी की कतार में हैं। वैसे भी उन्हें असम की राजनीति का किंगमेकर माना जाता है। बीती सदी के 70 से 90 के दशक तक उन्होंने केंद्र की राजनीति में हाथ आजमाए। 6 मर्तबा सांसद और एक बार केंद्रीय मंत्री भी रहे। 1996 से राज्य की राजनीति में दखल दिया। 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री बने और तीसरी बार भी अपनी स्वच्छ व ईमानदार छवि के बूते जीत का परचम फहराया। असम ही एक ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस की स्वतंत्र साख को बट्टा नहीं लगा। इन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया है कि अब मतदाता घोटले, भ्रष्टाचार को बरदाशत करने वाला नहीं है। उत्तर-प्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र सरकारों को इस जनादेश से सबक लेने की जरूरत है कि वे जबरिया भूमि अधिग्रहण के प्रपंचों से दूर हो जाएं, वरना उनका हश्र भी पश्चिम बंगाल जैसा हो सकता है।
कोई इन्हें बताये अच्युतानंद मिश्र पत्रकार हैं, मुख्यमंत्री नहीं। जय हो।