आर्थिक मंदी में चुनावी तड़का

0
97

-प्रमोद भार्गव- economy
भारत में फिलहाल मंदी के आलम पर निर्वाचन का पर्दा डल गया है, लेकिन हकीकत यह है कि मजबूत अर्थव्यवस्था के दावे ढोल में पोल हैं। सरकारी मतदाताओं को लुभाने के दृष्टिगत केंद्र सरकार ने सातवें वेतन आयोग की जो घोषणा की हैं और अंतरिम बजट रोजगार योजनाओं के मद में आगामी वित्तीय वर्श के लिए आवंटन बढ़ाने की बजाय जो कटौती की है उसके प्रत्यक्ष परिणाम चुनाव के बाद केंद्र की गद्दी संभालने वाली नई सरकार को भुगतने होंगे। आम चुनाव के पहले वैश्विक अर्थव्यवस्था के गुब्बारे की हवा निकल जाने के बावजूद केंद्र सरकार ने मंहगाई पर नियंत्रण करने और मंदी की मार से खड़े होने वाले रोजगार संकट से निपटने के उपायों में दूरदर्शिता से काम नहीं लिया। एक के बाद एक घोटालों के मकड़जाल में उलझी सरकार अर्थव्यस्था को गति देने का काम ठीक से नहीं कर पाई। इसलिए फिलहाल तो देश की अर्थव्यस्था में चुनाव में खर्च होने वाले काले धन का तड़का लग जाएगा, लेकिन चुनाव परिणाम के बाद हालात बेहद भयावह निकलने वाले हैं।
मई में केंद्र की सत्ता संभालने वाली नई सरकार के सामने बदहाल आर्थिक स्थिति सबसे बड़ी चुनौती होगी। विश्व बैंक ने इसका संकेत देते हुए जताया है कि दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था होने का भ्रम पाल रही भारत सरकार गौर करें कि आज भी भारत के गांवों में 50 प्रतिशत और शहरों में 38 प्रतिशत आबादी कुपोषण की शिकर है। 80 करोड़ लोगों के पेट के लिए खाद्य सुरक्षा देनी पड़ रही है। जबकि देश में लगभग इतने ही मतदाता है। मसलन हरेक मतदाता भूखा है। बदहाली की इस तस्वीर पर जिज्ञासू प्रतिप्रश्न करते है कि अमेरिका समेत यूरोप के तमाम देशों में आर्थिक मंदी का घटाटोप छा जाने के बाद जो हाहाकार मचा है, वह भारत में क्यों नहीं दिखाई देता ? इसका बहुत सीधा सा जबाव है कि हमारे यहां तीन चौथाई आबादी पहले से ही गरीबी का अभिशाप भोगते हुए जीने-मरने को अभिशप्त है। वह अपने इस हाल का दोष किसी केंद्र व राज्य सरकार पर मढ़ने की बजाए सनातन रूढ़ धार्मिक संस्कारों के चलते भाग्य, भगवान और पूर्वजन्म के कर्मों का देने की इतनी अभ्यस्त हो गई है कि देश के बहुसंख्यक समाज को यह गुमान ही नहीं रहता है कि इस बदहाली के लिए देश की आर्थिक नीतियां और कार्यक्रम भी दोषी हो सकते है ? भारतीयों में आर्थिक बचत की मानसिकता का धार्मिक संस्कारों की तरह जन्मजात होना और आमदनी से कम खर्च करने की प्रवृत्ति भी बदहाल आर्थिक व्यवस्था को काबू में रखने का काम करती है ?
भारत में भयावह हालात दिखाई नहीं देने का एक मजबूत कारण वह पीढ़ी है, जिसने छठे-सातवें दशक में परिवार नियोजन अपनाकर जनसंख्या वृद्धि पर विराम लगाया था। सरकारी नौकरियों और वयापार उद्योग धंधों से जुड़ी इस पीढ़ी की उम्र 50 से 65 साल के बीच है। इसी पीढ़ी की संतानों ने आर्थिक सुधारों का सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष लाभ उठाया है। अब यदि मंदी की मार के कारण इस युवा पीढ़ी को नौकरी से बेदखल किया भी जा रहा है तो वक्त की मार को इस बेरोजगारी का आधार मानते हुए अभिभावकों ने आगोश में लेकर दुलार लिया। माता-पिता की इस दुलारता ने भी आर्थिक मंदी की भयावहता पर पर्दा डालने का काम किया। वरना अर्जुनसेन गुप्ता तो पहले ही कह चुके हैं कि देश के 84 लाख लोग प्रतिदिन 20 रूपये से कम आय में और सात करोड़ तीस लाख लोग 9 रुपये प्रतिदिन की आय से गुजारा करने के लिए अभिशप्त हैं।
आर्थिक मंदी पर पर्दा डाले रखने के लिए आम चुनाव एक बड़ा आर्थिक पैकेज लेकर आए हैं। हमारे यहां काले धन की अर्थव्यस्था का अपना विशेष दबदबा तो है ही उसके अपने ढंग के सरोकार भी है। ऐसे आंकड़े अनेक मर्तबा आ चुके हैं कि भष्टाचार और काले धन का पैसा अगर देश के विकास में सीधे लगा दिए जाए तो न हमें दूसरे देशों और विश्व बैंक से कर्ज लेने की जरूरत रह जाएगी और न ही ढांचागत विकास के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और प्रवासी भारतीयों के समक्ष लाचारी का हाथ बढ़ाने की आवश्यकता रह जाएगी।
आम चुनाव हों अथवा विधानसभा सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल और बड़ी संख्या में खड़े हाने वाले निर्दलीय प्रत्याशी बेतहाशा काला धन खर्च करते हैं। निर्वाचन आयोग का डंडा न चले तो इस धन के बाहर आने में और भी आशातीत इजाफा हो ? यह धन लोगों को सीधे परोक्ष-अपरोक्ष रूपों में मिलता है। अंस्थागत उद्यमी भी इससे इतना लाभ कमाते हैं कि उनकी सामाजिक हैसियत बढ़ाने में भी इस अर्थ की भूमिका अंतर्निहित हो जाती है। इसलिए हमें तात्कालिक परिदृष्य में भले ही लगे कि चुनाव विकास को प्रभावित और प्रशासकीय कार्यक्षमताओं को बाधित करते हैं। वैसे भी इस स्थगित दुनिया में विकास एक भ्रम है। आज भी चूहे उसी तकनीक और तर्ज पर बिल बनाते हैं, जैसे हजार साल पहले बनाते थे।
वर्तमान भारत सरकार ने इस मंदी से उबरने के लिए किसी दूरदृश्टि से काम लेने की बजाय आत्मघाती कदम ही उठाये हैं,जिनके दुश्परिणम नई सरकार को भुगतने होंगे। निजी क्षेत्र को राहत देने के लिए पांच लाख करोड़ की विभिन्न करों में छूटें दी गईं। यही नहीं, दूसरों को आईना दिखाने वाली सरकार ने वोट की राजनीति करने का परिचय देते हुए बेतहाशा वेतन-भत्ते बढ़ा दिए। खाने पीने में असर्मथ पेंशनधारियों को लाभ दिया गया। मजबूरन राज्य सरकारों को भी केंद्र का अनुसरण करना पड़ा। इस आर्थिक मंदी के दौर में उपरोक्त कदम उठाने से एक बार युवा और उनके अभिभावक फिर से सरकारी नौकरियों में आर्थिक सुरक्षा और रौब रूतबा देखने लगे हैं। इन सिफारिशों ने बुनियादी तौर से सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों में असमानता बढ़ाने का काम तो किया ही है, आम आदमी के कल्याण की योजनाओं पर भी ये कदम कुठाराघात साबित होने जा रहे हैं। क्योंकि इन रियायतों से अतिरिक्त बोझ किसानों की ऋण माफी, सरकारी अनुदान कॉरपोरेट जगत को आर्थिक पैकेज और निर्वाचन खर्च की देनदारियां सामने आएंगी तो सरकार महंगाई पर काबू नहीं रख पाएगी। इससे उबरने के लिए सरकार के पास शराब की बिक्री बढ़ाने और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों का बोझ जनता पर लादने के फौरी उपाय ही सामने होंगे, जो आमजन को संकट में और गहरे उतारने का काम करेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here