पर्दे में हाथी

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प्रमोद भार्गव

चुनाव आयोग का हाथी और मायावती की मूर्तियों पर पर्दा डालने का फरमान विवेक और औचित्य से परे है। यह संयोग मात्र है कि हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिन्ह है, लेकिन ऐसा नहीं है कि देश का मतदाता हाथी की छवि को सिर्फ इसलिए जानता है कि वह बसपा का चुनाव चिन्ह है ? हाथी भारतीय जनमानस के जन्मजात संस्कारों में है। वह धरती के सबसे बड़े प्राणी के रूप में बालमन में ही पैठ बना लेता है। फिर यह छवि मन की परत पर ऐसी गहरी छप जाती है कि उतारे न तो उतरती है और न ही धुंधलाती है। चूंकि हमारे देश की आबादी का बड़ा हिस्सा देश के आजाद होने से लेकर अब तक निरक्षर बना हुआ है, इसलिए चुनाव चिन्ह के प्रतीक ऐसे लिए जाते हैं, जिनसे जन-जन न केवल भलीभांति परिचित हो बल्कि वह रोजमर्रा के जन-सरोकारों से भी जुड़ा हो। इसीलिए हाथी, हाथ का पंजा, कमल का फूल, साइकिल, लालटेन, हंसिया-हथौड़ा, रेडियो, घड़ी, बिजली का पंखा जैसी आम-फहम चीजें चुनाव चिन्ह के रूप में इस्तेमाल की गई हैं। अब क्या हाथी पर पर्दा डालने मात्र ये यह छवि मतदाता के जहन से उतर जाएगी ? बल्कि आयोग का यह अफलातूनी निर्णय बसपा के प्रतिबद्ध मतदाता के अह्म को ललकारेगा, नतीजतन उनके धु्रवीकरण का ठोस नतीजा भी बनेगा ?

इसमें कोई दो राय नहीं कि निर्वाचन आयोग का कर्त्तव्य स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना है। इसलिए आयोग एक ऐसी संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त संस्था है, जिसके फैसलों को उच्च न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि आयोग मनमानी पर उतर आए और बेसिर-पैर के बेतुके और अव्यावहारिक फैसले लेने लग जाए। आयोग के अधिकारों की क्या गरिमा और महत्ता है, इनकी आदर्श बानगियां हम पूर्व निर्वाचन-आयुक्त टीएन शेषन की कार्य-प्रणालियों में देख सकते हैं। जिनका धांधली करने वाले दलों पर डंडा भी चला, और मतदान प्रक्रिया को भयमुक्त बनाने का ऐसा डंका पीटा कि मतदान बिना किसी हिंसा के निर्विध्न संपन्न होने लगे। बिहार और उत्तर प्रदेश में तो माफिया सरगनाओं का ऐसा दबदवा था कि हिंसा की इबारत लिखे बिना मतदान की पूर्ति ही नहीं होती थी और ज्यादातर दबे-कुचले मतदाताओं के मत का दान फर्जी तौर-तरीकों से कर लिया जाता था। लेकिन अब ऐसे दुर्विनार हालात अपवाद के तौर पर ही सामने आते हैं और देश का दलित व आदिवासी मतदाता बेखौफ, मर्जी के मुताबिक मतदान करता है।

यह फैसला न तो सोच-विचार कर लिया लगता है और न ही अपने सहयोगियों से सलाह-मश्विरा कर लिया लगता है। इसलिए इसे तुगलकी फरमान तक कहा जा रहा है। दरअसल मायावती के राज में उत्तरप्रदेश में इतनी मूर्तियां लगाई गई हैं कि न तो उन्हें तय समय में ढंकना संभव है और न ही करीब दो माह तक ढंके रखना मुमकिन है ? क्योंकि तमाम सरकारी उद्यानों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर हाथियों और मायावती की आदमकद मूर्तियां विराजमान हैं। इनकी ऊंचाई 10 से 15 फीट है। इसके अलावा तमाम मंदिरों और ऐतिहासिक इमारतों के दरवाजों पर भी आजू-बाजू में हाथी प्रतीकात्मक रूप में बतौर स्वागत में खडे़ हैं। नोएडा के दलित प्रेरणा स्थल पर तो हाथियों की पूरी एक श्रृंखला है। लिहाजा कहां-कहां और किस-किस मूर्ति को ढंकेगे ? पर्दे में ढंकने के बाद भी हाथी की छवि की पर्देदारी हो नहीं पा रही है। क्योंकि मायावती द्वारा रोपित मूर्तियों की सूंड ऊपर उठी है। ऐसे में सूंड पर जो कपड़ा लपेटा जा रहा है, उससे सूंड की पर्दानशीं सिर्फ सूंड का रंग बदलने का काम कर रही है। यही स्थिति हाथी के पैरों के साथ है। इस पर्देदारी से इतना भ्रम जरूर पैदा कर सकते हैं कि हाथी प्रस्तर-प्रतिमा की बजाय कपड़े का बना दिखने लग जाए। किंतु इससे हाथी की पहचान नमुमकिन हो जाएगी ऐसा कतई नहीं है।

यह फैसला इसलिए भी हास्यास्पद व अतार्किक है कि अब चुनाव आयोग हाथ के पंजे, कमल का फूल, साइकिल और लालटेन के साथ क्या सुलूक करने जा रहा है ? पंजा तो इंसान के शरीर का अभिन्न अंग है। उसे शरीर से जुदा करके क्या मतदाता मतदान स्थल तक जा पाएंगे ? और मतदान केंद्रों पर मतदान कराने वाले दल के शरीरों में भी तो पंजा नत्थी है। उसे अलग रखने या छिपाए रखने के क्या उपाय हैं ? क्या लोग हाथ में कपड़ा लपेट लें या मौजे पहन लें ? परंतु, क्या इससे पंजे की छवि लुप्त हो जाएगी ?

कमल के फूल पर भी कैसे पर्दा डालेंगे ? वह तो फूल-मालाओं की हर दुकान पर उपलब्ध है। फिर कमल तो इन्हीं दिनों तलाबों में पूरे निखार के साथ खिलता है, तो क्या पांचों राज्यों के तालाबों को कपड़े से ढकेंगे ? उस साइकिल का भी क्या होगा, जो गांव की पगडंडियों से लेकर शहर की सड़कों तक गरीब व जरूरतमंद के यातायात का सबसे आसान साधन है। क्या कपड़े की खोली ओढ़कर आदमी साइकिल चलाए या चुनाव संपन्न न होने तक साइकिल घर से बाहर ही निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए ?

लालटेन भी गरीब अंधकार को रोशनी में बदलने का सबसे आसान और सर्वसुलभ साधन है। रावड़ी देवी जैसी निरक्षर इसी लालटेन के बूते बिहार जैसे राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। अब क्या लालटेन के उजाले को कपड़े की खोली में ढंककर लोग इस्तेमाल करें ? बहरहाल आयोग का फैसला ऐसा होना चाहिए जो तार्किक तो हो ही, न्यायसंगत भी लगे। यह फैसला दोनों ही स्तरों पर खरा नहीं उतरता। इसलिए अच्छा है उच्च न्यायालय कोई फैसला ले इससे पहले खुद आयोग इस पर पुनर्विचार करे ? क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बसपा के राज्यसभा सांसद सतीश चंद्र मिश्रा ने याचिका तो दायर कर ही दी है। आयोग हंसी का पात्र बनने की बजाए ऐसे फैसले ले जिससे कालेधन, बल प्रयोग और सरकारी मशीनरी की मनमानी पर अंकुश लगे। लोगों को भयमुक्त वातावरण में मतदान करने का अवसर मिले। भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश है। देश की निर्वाचन प्रक्रिया से जुड़े अनेक अधिकारी व नेता तमाम देशों में निष्पक्ष चुनाव कराने का पाठ पढ़ाने जाते हैं। अब क्या वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौर से गुजर रहे देशों को यह पाठ पढ़ाएंगे के अपने ही देश के नेताओं की प्रतिमाओं और चुनाव चिन्ह से जुड़े प्रतीकों को ढंककर चुनाव कराएं ?

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