ईमेल संस्कृति के आर-पार

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

प्रवक्ता डॉट कॉम ने बहस चलाकर अच्छा काम किया है। मैं इधर-उधर की बातें न करके पहले सिर्फ उस फिनोमिना के बारे में कहना चाहता हूँ। जो पंकज और उनके जैसे लेखकों और युवाओं में घुस आया है। यह नव्य उदार संस्कृति का प्लास्टिक पोलीथीन फिनोमिना है। यह ईमेल संस्कृति है। इसमें सारवान कुछ भी नहीं है।

ये एक व्यक्ति के विचार नहीं हैं बल्कि यह एक फिनोमिना है। एक प्रवृत्ति है। पहले मैं यही सोच रहा था कि पाठकों की राय पर प्रतिक्रिया नहीं दूँगा। लेकिन इधर कुछ असभ्यता ज्यादा हो रही है। इसलिए बोलना जरूरी है। मैं बहुत सोच समझकर लिख रहा हूँ कि पंकजजी ने अपने लेख में जो कुछ लिखा है और उनके पक्ष में जिस तरह की टिप्पणियां लोगों ने लिखी हैं। वे सबकी सब वेब संस्कृति के सभ्य विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकतीं। हां, वे वेब संस्कृति के असभ्य विमर्श का हिस्सा जरूर हैं। जैसे पोर्नोग्राफी है। उन्हें व्यक्ति या व्यक्तियों की राय के रूप में न देखकर एक फिनोमिना के रूप में देखें तो बेहतर होगा। सवाल यह है वेब पर दीनदयाल उपाध्याय (विचार-विमर्श की परेपरा) के लेख हैं और पोर्नोग्राफी भी है, हम किस परंपरा में जाना चाहते हैं ?

मेरी समस्या पंकजजी नहीं हैं। वह फिनोमिना है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। वह असभ्य भाषा है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। यह हिन्दी की इज्जत को मिट्टी में मिलाने वाली भाषा है। यह भाषा इस बात की द्योतक है कि हिन्दी का युवाओं में अपकर्ष हो रहा है। यह इस बात का भी संकेत है कि हिन्दी में ऐसे युवाओं का समूह पैदा हो गया है जो विचारों में गंभीरता के साथ अवगाहन करने से भाग रहा है। वह विचार विमर्श को ईमेल कल्चर में तब्दील कर रहा है।

विचार-विमर्श को ईमेल संस्कृति में तब्दील करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। ईमेल संस्कृति की विशेषता है पढ़ा और नष्ट किया। यही पोलिथीन प्लास्टिक फिनोमिना की विशेषता है। यह वेब विमर्श नहीं है। यह ईमेल विमर्श है। यह इस बात का प्रतीक है कि अभी हमारे युवाओं का एक हिस्सा वेबसंस्कृति के लायक सक्षम नहीं बन पाया है। ये लोग ईमेल संस्कृति और विमर्श संस्कृति में अंतर करना

नहीं जानते। इसे हम इसे वेब असभ्यता कहते हैं।

कायदे से पंकजजी का लेख न छपता तो बेहतर था। फिर भी संपादक की उदारता है कि उसने इस लेख और इस पर आई टिप्पणियों को प्रकाशित किया। पंकजजी ने जिस भाषा और जिस अविवेक के साथ लिखा है उससे मेरी यह धारणा पुष्ट हुई है कि हिन्दी को अभी माध्यम साक्षरता की सख्त जरूरत है। मुझे समझ नहीं आता कि इतना पढ़ लिखकर पंकजजी ने क्या सीखा ? अज्ञान की पराकाष्ठा के कुछ नमूने उनके लेख से देखें- लिखा है-

‘‘किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं. खैर’’

उनके लेखे, मेरा लेखन निकृष्ट श्रेणी का लेखन है। यह निकृष्ट काम है। अरे भाई, यह किस स्कूल में पढ़ी भाषा है। विचार-विमर्श की यह भाषा नहीं है। लेखन तो सिर्फ लेखन है वह निकृष्ट और उत्कृष्ट नहीं होता। वे यह भी मानते हैं कि मैं अपने ‘‘कुतर्क थोपना’’ चाहता हूँ।जिससे असहमत हैं उसे कुतर्क कहना किस गुरू ने सिखाया है ? मैंने मुद्दे पर केन्द्रित लिखा है। उन्हें पूरा हक है कि वे किसी भी वामपंथ से संबंधित विषय पर प्रामाणिक ढ़ंग से आलोचना लिखें। पंकजजी नहीं जानते कि वे लेख नहीं लिखते, वे ईमेल लिखते हैं । ईमेल और लेख में अंतर होता है। यह विवेक उन्हें अर्जित करना होगा।

मैं सोच-समझकर हिन्दुत्व और उससे विषयों पर ही नहीं अन्य सैंकड़ों विषयों पर अपनी पहलकदमी से लिखता रहा हूँ। उसका एक सैद्धांतिक आधार है। मैं अनेक बार उस आधार की अपने लेखों में चर्चा भी करता हूँ। जिससे पाठक उन किताबों तक पहुँचे। ईमेल फिनोमिना ने सबसे बुरा काम किया है विचारों और विचारकों का असभ्यों की तरह उपहास करके। मार्क्स, लुकाच, आदि किसी से भी असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्हें पढ़ें और फिर लिखें लेकिन वे बिना पढ़े ही लिख रहे हैं।

मैं उनके लेख से सहज ही अनुमान लगा सकता हूँ कि वे प्रवक्ता के संसाधनों और मंच का दुरूपयोग कर रहे हैं और अपना पैसा भी बर्बाद कर रहे हैं। भारत की गरीब जनता का पैसा, संजीवजी और उनके मित्रों के प्रयासों से चल रहे प्रवक्ता डॉट कॉम का स्पेस अनर्गल बातों के लिए घेरकर हम क्या अच्छा काम नहीं कर रहे ।

वेबसाइट पर खर्चा आता है और इसका सभ्यता विमर्श, पाठकों की चेतना बढ़ाने, उन्हें समाज के प्रति और भी जागरूक बनाने लिए इस्तेमाल होना चाहिए। न कि ईमेल की बेबकूफियों के लिए। मैं जानता हूँ कि संजीवजी किस विचारधारा के हैं लेकिन क्या इसके लिए उनपर आरोप लगाना ठीक होगा ?

जो अपना दायित्व समझते हैं वे थोड़ा ठंड़े दिमाग से सोचें कि क्या उन्होंने इतने दिनों में एक भी ऐसा लेख लिखा जो बाद में प्रवक्ता वाले अपने लिए संपत्ति समझें ? वे लगातार ईमेल लिखते रहे हैं और ईमेल पढ़ते ही बेकार हो जाता है, अनेक बार उसे लोग पढ़ते भी नहीं हैं। यही वजह है प्रवक्ता पर पंकजजी और ऐसे ही लोगों के विचार जिस क्षण आते हैं, उसी क्षण मर जाते हैं। इस तरह वे अपनी और

प्रवक्ता की बौद्धिक और आर्थिक क्षति कर रहे हैं।

प्रवक्ता फोकट की कमाई से नहीं चलता। संजीव वगैरह किस तरह कष्ट करके उसके लिए संसाधन जुटाते होंगे, हम समझते हैं। प्रवक्ता या ऐसी ही अन्य वेब पत्रिकाओं के प्रति जो स्वैच्छिक प्रयासों से और सामाजिक तौर पर कुछ करने के इरादे से चलायी जा रही हैं उनका हमें बौद्धिक रूप से सही इस्तेमाल करना चाहिए। वेब पत्रिका कचरे का डिब्बा नहीं है कि उसमें कुछ भी फेंक दिया जाए। यह विचारों के आधान-प्रदान का गंभीर मंच है। उसे हमें ईमेल का मंच नहीं बनाना चाहिए। एक नमूना और देखें-

‘‘गरीब के भूखे पेट को अपना उत्पाद बना कर बेचने वाले इन दुकानदारों को ‘अपचय, उपचय और उपापचय’ पर बात करने के बदले सीधे ‘थेसिस, एंटीथेसिस और सिंथेसिस’ तक पहुचते हुए देखा जा सकता है. क्रूर मजाक की पराकाष्ठा यह कि ‘भूखे पेट’ को मार्क्स के उद्धरण बेच कर इनके एयर कंडीशनर का इंतज़ाम होता है. इन लोगों ने कोला और पेप्सी की तरह ही अपना उत्पाद बेचने का एक बिलकुल नया तरीका निकाला हुआ है. जिन-जिन कुकर्मों से खुद भरे हों, विपक्षी पर वही आरोप लगा उसे रक्षात्मक मुद्रा में ला दो. ताकि उसकी तमाम ऊर्जा आरोपों का जबाब देने में ही लग जाय. आक्रामक होकर वे इनकी गन्दगी को बाहर लाने का समय ही न सकें।’’

इस पूरे पैराग्राफ का मेरे प्रवक्ता पर प्रकाशित मेरे 200 से ज्यादा लेखों में से किसी से भी कोई लेना देना नहीं है। मैं नहीं जानता कि पंकजजी और उनके दोस्तों ने मेरी लिखी किताबें या मेरे ब्लॉग को गंभीरता से पढ़ा है या नहीं। वे आसानी से समझ सकते हैं कि मैं क्यों और किस नजरिए से लिखता हूँ।

मैं आज भी यही मानता हूँ कि हिन्दी में अभी बहुत ज्यादा विविध किस्म के गंभीर विचारों के उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की जरूरत है। हमें गंभीरता और छिछोरेपन में अंतर करना चाहिए। हमें तर्क और कुतर्क में अंतर करना चाहिए। विचारधारा और कॉमनसेंस में अंतर करने की तमीज विकसित करनी चाहिए। विद्वानों, राजनेताओं आदि से लेखन में कैसे सम्मान के साथ संवाद करें इसके बारे में सीखना चाहिए। दुख के साथ कहना पड़ रहा है ईमेल फिनोमिना यह नहीं समझता, नहीं समझ सकता।

उनके कुतर्क का एक और नमूना देखें- ‘‘लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांटे कम पड़ जाएंगे…..!अब आप सोचें….. फासीवाद का इससे भी बड़ा नमूना कोई हो सकता है? यह उसी तरह की धमकी है जब कोई आतंकवादी समूह कहता है कि मुझे गिरफ्तार करोगे तो जेल के कमरे कम पड जायेंगे।’’ वे समझ ही नहीं पाए हैं कि मैं लेखक की अभिव्यक्ति के विशाल दायरे से जुड़ा सवाल सामने रख रहा था और वे शैतानी भरे तर्क दे रहे हैं।

पंकजजी की निकृष्टतम मानसिकता और ईमेल असभ्यता का नमूना है उनका यह कथन ‘‘तो अगर पंडित जी की बात मान ली जाय तो देश रसातल में पहुचेगा ही साथ ही कुत्सित मानसिकता का परिवार से लेकर राष्ट्र तक में कोई आस्था नहीं रखने वाला हर वामपंथी, स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’’।

वे जानबूझकर इस तरह की घटिया भाषा लिख रहे हैं। इन पंक्तियों को देखकर कोई भी संपादक कैसे लेख प्रकाशित कर सकता है ? कैसे कोई पाठक इन पंक्तियों के लिखे जाने के बाद पंकजजी को बधाईयां दे सकता है। पंकजजी जानते हैं उन्होंने यह क्या लिखा है-फिर से पढ़ें – ‘‘स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’।

यह वैचारिक स्तर सिर्फ ऐसे व्यक्ति का ही हो सकता है जिसने अपने को सभ्य न बनाया हो। जो ईमेल सभ्यता में कैदहो। वे जानते हैं वैचारिक हस्तमैथुन किसे कहते हैं ? उन्होंने कभी मेरी किताबें नहीं देखी हैं ? बाजार में उपलब्ध हैं और वे माध्यम साक्षर बनाने के लिए ही लिखी गयी हैं। अपमानजनक, अश्लील भाषा में लिखकर ईमेल फिनोमिना ने मेरी धारणा को ही पुष्ट किया है कि अभी हिन्दी में सामान्य विचार-विमर्श बहुत पीछे है और इस दिशा में और भी ज्यादा लिखने की जरूरत है।

पंकजजी की समस्या यह है कि प्रवक्ता वाले मेरे इतने लेख क्यों छापते हैं ? दिक्कत उनकी समझ में है। मैं लिखता हूँ इसलिए छापते हैं, उनकी संपादकीय नीति के दायरे में लिखता हूँ इसलिए छापते हैं।

पंकजजी को आश्चर्य हो रहा है मेरे एक सप्ताह में एक दर्जन लेख प्रवक्ता पर देखकर। यदि वे मेरी एक साल में कभी-कभी आने वाली किताबों को देख लेंगे तो उनके हृदय की धड़कन बंद हो जाएगी। मैं एकमात्र लेखक हूँ जिसकी एक साथ नियमित कई किताबें आती रही हैं, मैं कभी खुशामद नहीं करता, मैं कभी सरकारी खरीद में किताब की बिक्री का प्रयास नहीं करता।मैंने कभी अपनी किताबों के पक्ष में आलोचनाएं नहीं लिखवायीं, इसके बावजूद वे बिकती हैं। मैं पंकजजी और उनके दोस्तों के ज्ञानवर्द्धन के लिए अपनी किताबों की एक सूची दे रहा हूँ। साथ में यह खबर भी कि ये किताबें महंगी हैं और बेहद सुंदर हैं। इन्हें एकबार पढ़ने के बाद आप कम से कम मीडिया में बहुत कुछ अनर्गल लिखना बंद कर देंगे।

मैं यदि कोई विषय चुनता हूँ तो उस पर एक नहीं कई लेख लिखता हूँ जिससे उस विषय को ठोस ढ़ंग से विस्तार के साथ सामने रखा जाए पाठकों को उस पर सोचने के लिए मजबूर किया जाए। मैं लेखन के लिए लेखन नहीं करता बल्कि माध्यम साक्षरता के परिप्रेक्ष्य में लिखता हूँ। इसका मकसद है आलोचनात्मक विवेक पैदा करना। इसका मकसद किसी विचारधारा को थोपना नहीं है। इस प्रसंग की अन्य बातें अगले लेख में जरूर पढ़ें।

अंत में एक बात प्रवक्ता से अनुरोध के रूप में कहनी है कि वे विषय पर केन्द्रित और सारवान लेख ही छापें, वे ईमेल और लेख में अंतर करें। अन्यथा उन्हें बार-बार पंकजजी जैसे फिनोमिना का सामना करना पड़ेगा। इससे प्रवक्ता की साख खराब होगी। प्रवक्ता का काम है आम पाठक की चेतना का स्तर ऊँचा उठाना। उसका काम यह नहीं है कि वह पाठक की चेतना के सबसे निचले धरातल पर ले चला जाए।

हिन्दी का पाठक पहले से ही चेतना के सबसे निचले स्तर पर जी रहा है। इसे ईमेल संस्कृति, फेसबुक की दो पंक्ति के लेखन की संस्कृति और ट्विटर की 140 अक्षरों की संस्कृति ने हवा दी है। यह व्यक्ति को असभ्यता के धरातल से बांधे रखती है। हमें इससे बचना चाहिए। लेखन, मीडिया और कम्युनिकेशन का मकसद है व्यक्ति को चेतना के निचले स्तर से ऊपर उठाना, उसे जोड़ना। यह काम करने के लिए पाठक की चेतना के सबसे निचले स्तर पर जाने की जरूरत नहीं है। इससे प्रवक्ता का मूल लक्ष्य ही नष्ट हो जाएगा।

प्रकाशित पुस्तकें

1. दूरदर्शन और सामाजिक विकास, 1991, डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी, कोलकाता.

2. मार्क्सवाद और आधुनिक हिन्दी कविता, 1994, राधा पब्लिकेशंस, दिल्ली

3.आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद, 1994, सहलेखन, संस्कृति प्रकाशन, कोलकाता

4.जनमाध्यम और मासकल्चर, 1996, सारांश प्रकाशन दिल्ली.

5.हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका, 1997, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली

6.स्त्रीवादी साहित्य विमर्श, 2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली

7.सूचना समाज, 2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीग्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.

8.जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, 2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली

9.माध्यम साम्राज्यवाद, 2002, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली

10. जनमाध्यम सैध्दान्तिकी, 2002, सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली

11.टेलीविजन, संस्कृति और राजनीति, 2004, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर. प्रा. लि. दिल्ली

12.उत्तर आधुनिकतावाद, 2004, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली.

13.साम्प्रदायिकता, आतंकवाद और जनमाध्यम,, 2005, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली

14.युध्द, ग्लोबल संस्कृति और मीडिया, 2005, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा. लि.दिल्ली

15.हाइपर टेक्स्ट, वर्चुअल रियलिटी और इंटरनेट, 2006, अनामिका पब्लिकेशंस एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.

16.कामुकता, पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद, 2007, (सहलेखन) आनंद प्रकाशन, कोलकाता.

17.भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया, 2007, (सहलेखन), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि.दिल्ली

18. नंदीग्राम मीडिया और भूमंडलीकरण, 2007, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि.दिल्ली

19.प्राच्यवाद वर्चुअल रियलिटी और मीडिया, (शीघ्र प्रकाश्य), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

20. वैकल्पिक मीडिया, लोकतंत्र और नॉम चोम्स्की (2008), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

21.तिब्बत दमन और मीडिया, 2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

22. 2009 लोकसभा चुनाव और मीडिया, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि.

दिल्ली.

23.ओबामा और मीडिया, 2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

24.डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन, (2010), सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एंड

डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली .

सम्पादित पुस्तकें

25.बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद, 1991, डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी, कोलकाता.

26.प्रेमचंद और मार्क्सवादी आलोचना, सहसंपादन, 1994, संस्कृति प्रकाशन, कोलकाता.

27.स्त्री अस्मिता, साहित्य और विचारधारा, सहसंपादन, 2004, आनंद प्रकाशन, कोलकाता.

28.स्त्री काव्यधारा, सहसंपादन, 2006, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.

29.स्वाधीनता-संग्राम, हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र, सहसंपादन, 2006, अनामिका प्रा.लि. दिल्ली

16 COMMENTS

  1. प्रो. चतुर्वेदी जी के बारे में मेरा मानता था कि वे एक गंभीर व्यक्ति हैं । कोलकाता विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालय में पढाते हैं । लेकिन इस लेख के पश्चात मुझे इसका उलटा लग रहा है । प्रो. चतुर्वेदी जी अपने लेख में अपने वैचारिक विरोधियों पर कई बार (हर समय नहीं) कुतर्क के माध्यम से हमला करते हैं । इसलिए स्वाभविक है, उस पर पाठकीय प्रतिक्रिया होगी और एक लेखक को इसके लिए तैयार रहना चाहिए । प्रो. चतुर्वेदी जी जैसे विद्वान प्रोफेसर को भी इसके लिए तैयार रहना चाहिए । । उनके लेखों पर जो प्रतिकूल टिप्पणियां कर रहे हैं वे आयु में उनसे काफी छोटे हैं । वैसे कहा जाए तो उनके छात्र जैसे हैं । लेकिन इस लेख में प्रो.चतुर्वेदी जी ने जिस ढंग से अपने पुस्तकों की सूची लेख में डाल दी है उससे उनके गंभीर होने के भ्रम टूटा है । ऐसा मुझे लग रहा है । हो सकता है मैं गलत हूं । मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं जो कह रहा हूं वही सही है । इस पर शायद पाठक ज्यादा अच्छे ढंग से विचार कर सकते हैं ।

  2. हमारे विद्द्वान साथियों -सर्व श्री चिपलूनकर जी ,दिवस जी .राजेश कपूर जी और अन्य गणमान्य चिंतकों -वुद्धिजीवियों से निवेदन है की वैचारिक विमर्श में अपनी तर्क शून्यता को वैयक्तिक आक्षेपों की ओट में न छुपायें .यदि आप समझते हैं की वाकई सत्य सिर्फ उसी दृष्टिकोण में निहित है …..?
    जिसके लिए आप सब हलकान हुए जा रहे हैं तो वह भी कोई अंतिम सत्य नहीं हो सकता क्योंकि उस भाववादी चिंतनधारा का ही यह सूक्त है की ‘सब कुछ नित्य परिवर्तनशील है ”
    दिवस जी आपने मेरी पहले वाली टिप्पणी में पता नहीं कौनसा शब्द पढ़ लिया जो आपको दुश्मन समझ में आया .मेरी उस टिप्पणी को कृपया एक बार और पढ़ें …मेने आप लोगों को वर्ग शत्रुओं की कतार में खड़ा पाया सो वो तो आप हैं …किन्तु आप वास्तव में पथ स्खिलित पैटी वुर्जुआ हैं ,और संभवत लम्पट सर्वहारा भी …यही वजह है की देश और आम आदमी को जितना खतरा सरमायेदारों -भूस्वामियों से है .विदेशी षड्यंत्रकारियों से है उससे ज्यादा खतरा इस तरह के नादान दोस्तों से है जो जिस डगाल पर बैठे हैं उसे ही काट रहे हैं ..अपनी अज्ञानता से कभी जगदीश्वरजी पर और कभी प्रवक्ता .कॉम पर घृणित और गैरजिम्मेदाराना टिप्पणियाँ कर रहे हैं .

  3. इसमें चतुर्वेदी जी का कोयी दोष नही है इक कम्युनिस्ट हमेशा यही सोचता है कि वो ही सबसे ज्यादा बुद्धिमान हैऔर उसके त्र्क ही तर्क बाकि सब “फ़ासीवाद और कुछ बच जाये तो पुंजीवाद”.जबकि सत्य यह है कि ये विचार एक विलायति बबुल जैसा है जो सिर्फ़ लकडिया देता जलाने के लिये वैसे ही कम्युनिस्ट हमेशा लडते रहते है कभी संघ से कभी राम से कभी बाबा राम से कभी हिन्दु से कभि अमेरिका से कभि लोकतंत्र से लेकिन कभि ये जिते भी है???एक असफ़ल हो चुकी विचार की लाश को अपने कन्धो पर उथाये घुमने वालो को “प्रवक्ता” की सह्र्दयता से जगह मिल रही है,लेकिन शायद प्रवक्ता को पता नही है या उन्हें इनका इतिहास नही पता किसी चिज मे घुसपैठ कर अपनी जमीन तैयार करने मे ये लोग “विषेष्ग्य” है,जैसे लक्षण दिख रहे है घुसपैठ शुरु हो चुकी है……………………………
    क्या ये लोग तर्क करना भी जानते है???जरा इनसे पुछिये क्यों आज तक भारत में सफ़ल नही हो पाये???जवाब सीधा है भारत ने हमेशा से ही आसुरी भाव को परास्त किया पुरए युरोप को अपने तलवार की नोक मे लाने वाले बर्बर इस्लाम को सच्छी थोकर इस धरती ने ही दी है फ़िर मंगोल,शक,हुण,कुषण,अरबॊ का क्या कहना…….????बहुत लोग सोचते है ये भी कोयी वोचार है सत्य में यह सिवाय हींसाचार के अलावा ओर कुछ नही है,सर्वाधिक राजनितिक हत्याये बंगाल-केरल में ही होती है,करोडों लोगो को मौत के घाट उअतारने वाले ये लोग बनते एसे है जैसे बहुत “शरीफ़” हो लेकिन इनके लाल झण्डे “खुन” से रंगे है,नव निर्मित लोकतंत्र की हत्या कर रुस पर कब्ज्जा जमाने वाले ये लोग पहले द्र्जे के गद्दार होते है,देश द्रोह तो मार्क्स घुटि में पीलाता है जिसका जिक्र पाठक लोग प्रोफ़ेसर सहाब के एक लेख मे देख ही चुके है,क्या आज तक कभी इन सहाब ने इस्लामी आतंग्वाद पर कोयी लेख लिखा है??नक्स्ल्वाद के खिलाफ़ इस लिये लिख रहे है कि जिसको पैदा किया पाला पोसा अब वो खुद इनओको ही खाने वाला है,अनयथा ये तो १० साल पहले तक इसे कोयी बिमारी ही मानने से इंकार कर थे………………………..मुझे नही पता क्यों इस हत्यारी विचारधारा को यहा अनाव्श्यक महत्व दिया जा रहा है लेकिन कल को ओसामा=बिन-लोदेन कह दे की मेरे विचार को भी स्थान मिलना चाहिये और कोयी प्रोफ़ेसर एसा करते मिल जाये तो क्या प्रवक्ता उसे छापेगा????

  4. सुरेश चिपलूनकर जी आप ने सही कहा. इन वामपंथियों ने विश्व में जो करोड़ों लोगों की हत्याएं कम्युनिज्म के नाम पर की हैं, उन पर विस्तृत लेखमाला छपनी चाहिए. इनका स्वभाव है की ये विमर्श नहीं कर सकते, केवल अपनी बात मनवाते हैं और उस के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. इन्हें लगता है की जो ये जानते हैं व मानते हैं ; वही अंतिम सत्य है. अब ऐसे में संवाद कैसे होगा, केवल विचार स्वातंत्र्य की तथा मानवता की ह्त्या होती है जैसे कि चीन, रूस, क्यूबा आदि देशों में हुई है ; आज भी इनके शासन में केरल, बंगाल से ची, तिब्बत तक हो रही है. सच कहूँ तो ये लोग मानवता के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा हैं. स्मरणीय है कि अब कमुनिस्ट और चर्च मिल कर भारत की तबाही का सामान कर रहे हैं. जिहादी आतंक का खतरा इनसे बहुत कम है. ये इन्ही ताकतों का कमाल है कि जिहादी आतंक को ये हमारे सामने सबसे बड़ा ख़तरा बना कर पेश करते हैं और आग में घी डालने का काम करते rahate हैं. is prakaar ये लोग अपनी khatarnaak karniyon पर pardaa dale rahate हैं. atash saawdhaan !

  5. तिवारी जी धन्यवाद, सच कहने के लिए. दानवों ने सदा ही देवों को अपना शत्रु माना है. हमारा इतिहास बतलाता है कि यज्ञ और ईश्वर में आस्था न रखने वाले दानव होते हैं. भोगवादी प्रकृती भी दानवी है. त्यागमई जीवन की शिक्षा देने वाली संस्कृति भी देव संस्कृति है. विचित्र संयोग है कि आप और आपके साथी भी भोगवादी प्रकृती, अनीश्वरवादी हैं और आस्थावानों को अपना शत्रु घोषित कर रहे हैं. ईश्वर आप लोगों को साद बुधी दे और मानवी शक्तियों को सामत्र्ह्य दे कि वे दानवी प्रकृती वालों को पहचान सकें. काश आप लोग वामपंथी कतार्ता के कुँए से बाहर निकल कर यथार्थ को समझ पाते.

  6. फ़िर से दोहरा रहा हूं… शायद “उच्चवर्गीय” चतुर्वेदी जी और तिवारी जी (जो विरोधी को शत्रु मानते हैं) जवाब दें…

    “…क्या किसी आम आदमी (जो किसी विवि का प्रोफ़ेसर नहीं है) अपनी भाषा में अपनी बात नहीं कह सकता? आप जैसे बोझिल और उबाऊ लेखकों के मुकाबले खड़े होने का उसे कोई अधिकार ही नहीं है? और ऊपर से आप उसे ही फ़ासीवादी कह रहे हैं? ये कैसी मानसिकता है…
    क्या यह जरुरी है कि एक सामान्य इंसान मार्क्स और लेनिन के शब्दों में बात करे? या विवेकानन्द और अरविन्दो की भाषा में लिखे? कब से ऐसा कानून बन गया साहब? फ़िनोमिना-फ़िनोमिना की रट लगाये बैठे हैं, वामपंथियों का फ़िनोमिना क्या है… यही न कि कैसे भी हो भारतीय संस्कृति, हिन्दुओं, हिन्दू धर्मगुरुओं, हिन्दू कर्मकाण्डों इत्यादि को लगातार विभिन्न मंचों से गरियाया जाये?

    एक सवाल और है कि क्या पंकज झा ने किसी लेख या टिप्पणी में “माँ-बहन” की गाली दी है किसी को?

    मैं तमाम लेखकों से अनुरोध करता हूं कि “चतुर्वेदी जी मुताबिक” बहस को उच्च स्तर पर ले जाने की प्रक्रिया में भारत और दुनिया के तमाम वामपंथी नेताओं के “रंगरंगीले तथ्य” यहाँ पेश करें, वामपंथ के नाम पर विश्व में कितनी हत्याएं हुईं इसका ब्यौरा भी प्रवक्ता पर (सिलसिलेवार, जैसा कि चतुर्वेदी जी ने रामदेव विरोधी सीरिज में किया, ठीक वैसा) पेश किया जाये, वामपंथ के नाम पर चल रहा ढोंग और पाखण्ड, गरीबों की भलाई के नाम पर चल रही “बौद्धिकता” का भी खुलासा किया जाये…

    अन्त में फ़िर दोहरा रहा हूं कि “भाषा और बौद्धिक स्तर की चिन्ता किये बिना लिखें…” हर कोई प्रोफ़ेसर नहीं होता, लेकिन अपनी बात रखने का आम आदमी को भी पूरा हक है…

  7. i have tremendous respect for communism and carl marx. this is a first totally scientific approach towards society and some of its opinion is still alive.
    it doesn’t believe in god. it’s scientific fact that there is no god. marx fought for deprived section of society. really this was his great success by his book. else there was very bad condition of labours, workers and farmars. i appreciate him and his followers for their effort.
    actually the successors of carl वेरे बाद सो मार्क्स इस अ taboo word in india. i wanna see alive communism in india. but in honest form not in present form. the present मार्क्स इस totally based on vote bank politics.

  8. वाह तिवारी जी अब तो आपने हमें शत्रु ही कह डाला| और कुछ रह गया हो तो वह भी पेल देने का कष्ट करें|

  9. वाह, कैसा सुन्दर विमर्श है….खुद एक लेख से चिन्तित होकर उससे भी बडा लेख लिखकर वही गलती कर गये जिसका आप दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं।

    इस फ़ालतू की बहस में बेचारे इलेक्ट्रान्स को इधर से उधर घूमने में व्यर्थ ही कष्ट हुआ 🙂

  10. इसमें कोई शक नहीं की प्रवक्ता एक इमानदार प्रयास कर रहा है. यह एक माध्यम है शास्त्रार्थ का जिसमे सभी अपना अपने विचार प्रकट कर रहे है. प्रवक्ता संपदाक को बहुत धन्यवाद. यह सत्य है की स्कूल की १२ वर्ष की पढाई, स्नातक की ३ वर्षीया पढाई, स्नातकोतर की २ वर्षीया पढाई के द्वारा जो इतिहास नहीं पता चल पता है वोह प्रवक्ता ने उपलब्ध कराया.

    प्रवक्ता पर श्री जगदीश्वर के लेख छपते है, श्री पंकज जी का छपे तो आपति क्यों.
    लेख लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है पाठको को संतुष्ट करना. किताब पढ़कर घर में रख दी जाती है, किन्तु प्रवक्ता तो सभी के लिए खुला मंच है और लेखक का कर्त्तव्य बनता है की वोह लेखक के सवालों का जवाब दे.

    अपने अपने अनुसार सभी लेख लिखते है, कोई बबल्गुम की तरह लेख खींचता है तो कोई दो और दो – बराबर चार लिखता है. सभी का अपना अपना अंदाज है.

    जितने प्रकार के लेख प्रवक्ता में छप रहे है उतने अंग्रेजी में कही नहीं पढने को मिलते है. हिंदी हमेश से मजबूत थी और प्रवक्ता के माध्यम से आम व्यक्ति तक पहुँच रही है. इ-मेल और लेख में अंतर सभी जानते है. प्रवक्ता का प्रत्येक लेखक और पाठक जो कंप्यूटर और इन्टरनेट का प्रयोग कर रहा है वोह इ=मेल और लेखन में अंतर जनता है, होगा.

    रही बात श्री पंकज जी की तो उनका लेख अपनी जगह ठीक है. उनकी अपनी शेली है. वे पत्रकार है, आम व्यक्ति की आवाज है. जो दीखता है बिना लग लापट के कह देते है. चूँकि श्री जगदीश्वर जी विश्वविद्यालय के प्रफेस्सर है और कई कई किताबे छप चुकी है अथ वे अपने स्तर के अनुसार लिखते है आखिर किताबे पढनी और बिकनी है.

  11. प्रो. चतुर्वेदी जी व इनके साथी इसी मानसिकता के शिकार हैं. ये सब भारतीय संस्कृति, धर्म व परम्पराओं के विरुद्ध कैसी भी असभ्य भाषा का प्रयोग करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं. जब भारत का जागरूक समाज इन्हें इनकी भाषा में जवाब देता है तो ये चिल्लाने लगते हैं की टिपण्णी हटाओ, सभ्य भाषा का प्रयोग करो, हमारा अपमान हो गया.
    – मुझे अच्छी तरह से याद है की अंतरताने (प्रवक्ता.कॉम) पर असभ्यता की शुरुआत करने का श्रेय स्वनाम धन्य विद्वान डा. चतुर्वेदी जी और इनके मित्र डा. पुरुषोत्तम मीना जी को जाता है. हिन्दू समाज व संस्कृति के विरुद्ध अत्यधिक अपमानजनक भाषा-प्रयोग की शुरुआत इन दोनों सभ्यों द्वारा की गई. फिर बार-बार इसे दोराया गया. अरे हिन्दू समाज कोई इतना निस्तेज स्वाभिमान रहित है क्या ? अनेक पाठकों ने शालीनता की सीमा का ध्यान रखते हुए इन्हें ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया. पर जब इन्होंने करोड़ों हिन्दुओं व उनकी संस्कृति-परम्पराओं का अपमान जिद पूर्वक जारी रखा तो पाठकों का धैर्य समाप्त होना ही था. अतः आदरणीय चतुर्वेदी जी इस अशोभनीय भाषा को प्रारम्भ करने के लिए आप और आप के साथियों ने ही हम सब को बाध्य किया है. किसी धर्म, संस्कृति, पंथ, सम्प्रदाय की आलोचना का इतना ही शौक है तो इस्लाम और इसाईयत पर कुछ कह, लिख कर देखिये ; देखें की आप कितने निष्पक्ष और इमानदार हैं. हिन्दू समाज से आप लोगों की दुश्मनी और घृणा अब तो जग विदित है. आप हम लोगों को गरियाते रहेंगे तो जवाब भी सुनाने पड़ेंगे . ये पसंद नहीं तो अपना सुधार करिए, बाकी लोगों पर मुझे विश्वास है की वे बदल जायेंगे, महोदय ज़रा आप सुधर जाईये.
    आप भूले तो नहीं होंगे जो सभी भाषा आप और डा. मीना जी ने मेरे लिए प्रयोग की थी. मीना जी तो दुजनता व दुष्टता की सारी सीमाएं लांघ गए थे और उन्हों ने लिखा था कि ”हिन्दू धर्म ग्रन्थ जहर से भरे हुए हैं” अब इस से अधिक दुर्जनता और असभ्यता भी कोई रह गई है क्या ? कितना विश भरा है इन लोगों के मन में हम हिन्दुओं के विरुद्ध. आप तो इस पर कुछ बोले नहीं थे, आपका समर्थन ही था उनके साथ. ऐसे लोग हम से विनम्र भाषा की आशा करते हैं?
    शायद आपसे आयु में बड़ा हूँ पर इसका मान तो आप क्या करेंगे, मेरे निवेदन का ही मान रख लें. आज तक के अनुभव से जाना है की कट्टरपंथी लोग अपने विचारों को लेकर जड़ मति होते हैं. वामपंथियों में कुछ आप सरीखे अपवाद शायद निकल आयें…..?और बदल जाएँ.
    – आपका कौशल है कि विनम्र लोगों को भी कटु उक्ती के लिए बाध्य कर देते हैं. खैर …..
    कुछ कटु लगा हो तो खेद सहित सदा आपका हितैषी.

  12. आदरणीय चतुर्वेदी जी ये आप किन मणीधारियों को वीन बजाकर जगाना चाहते हैं ,इसके निहतार्थ क्या हैं ?जो वर्ग शत्रुओं की कतार में है ;उसको सभ्य,सुसंस्कृत बनाने की असफल चेष्टा क्यों? आप एक व्यक्ति नहीं बल्कि विश्व सर्वहारा के हरावल दस्तों के दिशा निर्देशक हैं ,आप देश और दुनिया के क्रांतिवीरों के पथ्निर्धारक हैं ,ये जो आपसे मूजोरी करने वाले निठल्ले हैं ,इनको आप जरा ज्यदा ही भाव दे रहे हैं ,

  13. सही कहा चतुर्वेदी जी प्रवक्ता को चलाने में पैसा खर्च होता है अत: फ़ालतू कचरा न छापा जाए तो बेहतर है| मै आदरणीय सम्पादक जी से प्रार्थना करता हूँ कि आज के बाद चतुर्वेदी द्वारा बका गया कचरा न छापे| ये मेरी सम्पादक जी से प्रार्थना है|
    बड़ा वामपंथ वामपंथ चिल्ला रहे हैं आप| अगर थोड़ी सी भी हिम्मत है और कुछ शर्म और तमीज है तो आदरणीय समन्वय नन्द लिखित लेख “आओ वामपंथ से प्रेम करें” पर अपनी टिप्पणी देने का कष्ट करें|
    प्रवक्ता की आबो हवा आदरणीय पंकज जी ने नहीं आपने खराब कर राखी है| कभी किसी टिप्पणी का उत्तर तो दे नहीं सकते और हमें तमीज सिखाने चले हैं|
    आदरणीय सुरेश जी की बात से सहमत हूँ कि पंकज जी की आवाज आम आदमी की आवाज है|
    आदरणीय सम्पादक जी से प्रार्थना कर कहना चाहता हूँ कि यदि आप लोकतंत्र के दायरे की बात करते हैं तो लोकतंत्र तो आदरणीय पंकज जी के साथ ही है| यह आपने कल देख ही लिया|

  14. पहले तो मूल लेख में आपत्तिजनक अंश को सम्पादकीय अधिकार के तहत हटाने पर लेखक की सहमति ले कर ही लेख छापना चाहिए था . किसी पाठक ने भी पंकज जी के लेख के उस अंश पर कोई टिप्पणी नहीं की थी . मैंने न देखी हो तो बात अलग है – पर अधिकतर लोगों ने वह अंश उपेक्षा के दायरे में ही रखा यह निश्चित है .

    पर उसके बाद संपादक महोदय ने भी उसी अंश को उद्धृत कर अपना विरोध दर्ज कराया . जरूरत नहीं थी .

    फिर बहस हुई. पर पाठकों ने फिर भी उस अंश पर शायद ही कुछ कहा – मुझे तो नहीं नजर आया . अब आपका लेख देखा . कुछ बातों पर जवाब न देना ही उचित था, संकेत काफी था …

    मैंने पहले भी लिखा था – आप बड़े हैं एवं शिक्षक भी हैं – वैचारिक आदानप्रदान में आपके द्वारा लिखे गए लेखों पर कई पाठकों एवं लेखकों के साथ आपके तीव्र विरोध के बाद भी एक अपेक्षा है कि आप पहल कर कटुता को समाप्त कर विचार विमर्श पर जोर देते रहेंगे . आशा है आप निराश नहीं करेंगे .

    पाठकों की तीव्र प्रतिक्रया केवल प्रवक्ता में और केवल हिन्दी माध्यम में ही नहीं है … समूचे विश्व में हर भाषा में ऐसा ही है – विशिष्ट परिस्थिति में एवं भाषा के पूर्ण अनौचित्य की स्थिति में संपादक की कैंची चलती भी है – पर कभी कभी . हमारे ही देश में वैचारिक तीव्रता के प्रतीक के रूप में ‘आउट लुक ‘ पर नजर डाली जा सकती है . मुझे विश्वास है कि विनोद मेहता को पाठकों की वेबसाइट पर की गयी टिप्पणियां देखने के बाद लेखकों की ही नहीं , कई बार स्वयं की चिंता होने लगती होगी … चलिए आगे बढ़ते हैं – देश को और समाज को आगे बढ़ाना है और इसमें दक्षिण एवं वाम दोनों ही की भूमिका है…

  15. वाह क्या कहने???
    एक तरफ़ कह रहे हैं कि पंकज जी मेरी समस्या नहीं है, और पूरे लेख में उन्हीं पर केन्द्रित किये हुए हैं।

    और आपसे किसने कह दिया कि विचार-विमर्श की भाषा स्तरीय “होनी ही” चाहिये?

    क्या किसी आम आदमी (जो किसी विवि का प्रोफ़ेसर नहीं है) अपनी भाषा में अपनी बात नहीं कह सकता? आप जैसे बोझिल और उबाऊ लेखकों के मुकाबले खड़े होने का उसे कोई अधिकार ही नहीं है? और ऊपर से आप उसे ही फ़ासीवादी कह रहे हैं? ये कैसी मानसिकता है…

    क्या यह जरुरी है कि एक सामान्य इंसान मार्क्स और लेनिन के शब्दों में बात करे? या विवेकानन्द और अरविन्दो की भाषा में लिखे? कब से ऐसा कानून बन गया साहब? फ़िनोमिना-फ़िनोमिना की रट लगाये बैठे हैं, वामपंथियों का फ़िनोमिना क्या है… यही न कि कैसे भी हो भारतीय संस्कृति, हिन्दुओं, हिन्दू धर्मगुरुओं, हिन्दू कर्मकाण्डों इत्यादि को लगातार विभिन्न मंचों से गरियाया जाये?

    और साहब, इतना ज्यादा गरियाने, विवि-अकादमियों-अध्ययनशालाओं-संस्थानों में जुगाड़-तुगाड़ से कब्जा जमाकर ६० साल तक बौद्धिक गन्ध पेलने के बावजूद कभी केरल और बंगाल से आगे नहीं बढ़ सके… क्यों? सोचा है कभी?

    पंकज झा ने जो भी लिखा, “जैसा” भी लिखा… वह एक आम आदमी की आवाज़ है और अब ऐसी आवाज़ें लगातार और तेजी से उठती रहेंगी… आप जैसे “बड़े सभ्य” और “कथित साहित्यिक उच्च वर्ग” वालों पसन्द हो या न हो…

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