आपातकाल और संघ- डा. मनोज चतुर्वेदी

sanghराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक निष्काम कर्म आंदोलन है। जिसके संगठन का आधार सक्षम, स्थायी, आत्मनिर्भर तथा कालजयी राष्ट्र है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में भारत के अनादि, अनंत और अति प्राचीन राष्ट्रजीवन को जागृत करना ही मूलगामी कार्य है। भारत का राष्ट्रजीवन हिन्दू जीवन है। इस सत्य को ध्यान में रखकर ही भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक विश्वव्यापी संगठन खड़ा है। हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है तथा राष्ट्रीयत्व ही हिंदुत्व है।

भारत में मानव कल्याण का एक व्यापक एवं उदार जीवन-दर्शन प्रकट हुआ। इस भेद को समझकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज संगठन के लिए भारत, आर्यावर्त, जंबूदीपे तथा सनातन भारत का सूत्रपात किया है। उसमें उसने भगवाध्वज को अपना गुरू माना है क्योंकि भगवा भारत का मन है, वह जीवन है, वह दर्शन है, वह ईश्वर है, वह त्याग है, वह तप है, वह पुरूषार्थ है, वह माता है, वह पिता है, वह सबकुछ है। वह प्राचीन भारत की त्यागमयी परंपरा का प्रतीक है। उसे पहनकर एक संन्यासी विश्व मानव बन जाता है तथा वह विश्व कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है यही भगवा तथा भारत का अर्थ है उसने यह प्रतिपादित किया कि ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्तिस्म’ अर्थात् एक ही सत्य की विद्वान लोग बहुत प्रकार से व्याख्या करते हैं इनमें मतभेद हो सकता है, पर मनभेद नहीं ।

नागपुर के गरीब ब्राह्मण बलीराम पंत हेडगेवार के घर पैदा हुए डॉ केशव बलीराम हेडगेवार युग प्रवर्तक, क्रांतिकारी, युगदृष्टा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, लेखक, संपादक, संगठक, जन्मजात देशभक्त तथा भावी भारत के निर्माता थे।1 घटना 22 जून, 1897 की है। जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के 60 साल पूरे होने पर नील सिटी स्कूल में मिठाईयां बांटी जा रही थी, तो 8 वर्षीय राष्ट्रभक्त केशव ने अपने हिस्से की मिठाई फेंकते हुए कहा-लेकिन वह हमारी महारानी तो नहीं है। एक दूसरी घटना 1901 की है जब इंग्लैण्ड के राजा के राज्यारोहण के अवसर पर राज्यनिष्ठ लोगों द्वारा आतिशबाजी का आयोजन किया गया था, तो केशव ने अपने बालमित्रों को समझाया-विदेशी राजा का राज्यारोहण उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है।

महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी की गाथा घर-घर में सुनायी जाती थी। राष्ट्रभक्त केशव शिवाजी महाराज की वीरता, संकल्प-शक्ति एवं राष्ट्रीय भाव से प्रभावित हुए तथा नागपुर के सीताबर्डी किले पर फहरने वाले यूनियन जैक को उतार फेंकने के लिए बझे गुरूजी के घर से मित्रों सहित दो किलो मीटर लंबी सुरंग खोद डाली। बालक केशव के चाचा मोरेश्वर उर्फ आबाजी के शब्दो में — जिस आयु में अन्यान्य बालक खेलने-कुंदने में मस्त रहते हैं, उसी आयु में अंग्रेजों को निकाल बाहर करने का यह उद्देश्य पूर्ण होने से पूर्व ही सेनापति अपने छोटे से गुरिल्ले दल के साथ घर वालों द्वारा बंदी बना लिया गया’।

1915 में हेडगेवार ने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर देशसेवा का व्रत लिया तथा अपने चाचा को एक लंबा पत्र लिखा की विवाह न करने का निर्णय मैने सोच-समझकर लिया है। घर-गृहस्थी बसाकर मैं पारिवारिक दायरे में सिमटना तथा जीविकोपार्जन की चिंता में उलझना नहीं चाहता। मेरे मन में जो भावना है, वह है राष्ट्र के प्रति तन-मन-धन से सेवा करने की। मैं राष्ट्र को विदेशी दासता से मुक्त देखना चाहता हूं। इसीलिए मुझे हिंसा तथा अहिंसा दोनों ही मार्ग प्रिय हैं। हिन्दुस्थान की दासता नई नहीं है। यहां दासता की श्रृंखला रही है। ऐसा क्यों? यह प्रश्न मेरे मन को उद्वेलित करता है। यदि आज हम परतंत्र है, तो इसका कारण हमारी कायरता है। हमें एक राष्ट्र, शुद्ध राष्ट्रीयता और भ्रातृत्व का बोध नहीं है। तभी तो मुट्ठी भर अंग्रेजों ने गुलामी की जंजीरों में बांध रखा है। न सिर्फ क्रांतिकारियों पर जुल्म किए जा रहे हैं, बल्कि महात्मा गांधी के अनुयायियों को भी यातनाएं दी जा रही है। पंडित अर्जुन लाल सेठी अहिंसावादी है और कारावास में उन्हें घोर यातनओं का सामना करना पड़ा। मेरे मन में प्रश्न उठता है-क्या हम अंग्रेजों को परास्त नहीं कर सकते? और इसका समाधान मुझे राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्योछावर करने में दिखायी पड़ रहा है। मेरे मन, तन, बुद्धि, विवेक और आत्मा सब में एक ही बात का बोध है कि यदि राष्ट्र को संगठित करने, राष्ट्रीयता का प्रसार करने, लोगों में से हीनता का भाव दूर करने का कार्य किया जाए, तो जीवन का इससे बड़ा सकारात्मक सदुपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है। यह सत्य है कि विवाहित रहकर नारायण राव, विनायकराव सावरकर, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी आदि देशभक्तों ने राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया है। परंतु मेरे मन की बनावट भिन्न है। मैं विवाह के लिए एकदम प्रेरित नहीं हो पा रहा हूं। मुझे हर क्षण सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों का बोध रहता है और मैं अपने एक शरीर, एक आत्मा और एक मन को बांट नहीं सकता हूं। मैं विवाह करके किसी कन्या को मेरी बांट जोहने के लिए छोड़ना नहीं चाहता हूं, न ही घर में अंधेरा करके सामाजिक दायित्वों में मग्न रहने की मेरी इच्छा है आज मेरे मन में किसी प्रकार का अंतर्द्वंद नहीं है। मैं अपने निर्णय पर अटल हूं। यह निर्णय मेरी प्रकृति के अनुकूल है।2

डॉ हेडगेवार ने देशभक्ति की दस सूत्री कसौटी बताई है—-

(1) देशभक्ति का अर्थ है- हम जिस भूमि एवं समाज में जन्में हैं, उस भूमि व समाज के लिए आत्मीयता एवं प्रेम;

(2) जिस समाज में हमारा जन्म हुआ है, उसकी परंपरा एवं संस्कृति के प्रति लगाव एवं आदर;

(3) समाज के जीवन-मूल्यों के प्रति निष्ठा;

(4) समाज, राष्ट्र के लिए उत्कर्ष, विकास के लि, सर्वस्व समर्पण करने के निमित्त उत्सफूर्त करने की प्रेरणा शक्ति;

(5) व्यक्ति निरपेक्ष रहकर समष्टिनिष्ठ जीवन का पवित्र प्रवाह;

(6) भौतिकताओं से दूर रहकर मातृभूमि और उसकी संतानों की निःस्वार्थ सेवा;

(7) व्यक्तिगत आकांक्षाओं से अधिक राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं को महत्व;

(8) मातृभूमि के चरणों में अनन्य निःस्वार्थ, कर्तव्य कठोर जीवन कुसुमों की मादक सुंगध रहना;

(9) समाज एवं राष्ट्र को ही सर्वस्व देवी-देवता मानकर उसी की अराधना करना और

(10) संपूर्ण समाज में एकात्म भाव का आविष्कार करना;

डॉ हेडगेवार एक निष्काम कर्मयोगी थे। उन्होंने व्यक्तिनिष्ठा के स्थान पर तत्वनिष्ठा को सर्वोपरि माना। वे इतने प्रसिद्धि परांङ्गमुख थे कि उन्होंने मध्यप्रांत के लेखक दामोदर पंत भट्ट को लिखा-आपके मन मंक मेरे एवं संघ के लिए जो प्रेम व आदर है, उसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं। आपकी इच्छा मेरा जीवन-चरित्र प्रकाशित करने की हैं। परंतु मुझे नहीं लगता कि मैं इतना महान हूं या मेरे जीवन में ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं हैं जिनको प्रकाशित किया जाए। उसी प्रकार मेरे अथवा संघ के कार्यक्रमों की तस्वीरें भी उपलब्ध नहीं हैं। संक्षेप में मैं यही कहूंगा कि जीवन-चरित्रों की श्रृंखला में मेरा चरित्र तनिक भी उपयुक्त नहीं बैठता। आपके द्वारा ऐसा न करने से मैं उपकृत होऊँगा।3

संघ की प्रतिज्ञा- 1947 तक संघ की प्रतिज्ञा में अपने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने का संकल्प होता था, लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद उस प्रतिज्ञा में राष्ट्र के सर्वांगिण विकास का संकल्प आ गया।

भारत में आपातकाल की पूर्वपीठिका- 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद से इंदिरा गांधी और बाकी धड़ों में अंदरूनी संघर्ष चल रहा था। सन् 1971 में भारत-पाक युद्व और बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन विजय का श्रेय इंदिरा गांधी को दिया। विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तो ‘दुर्गा’ की उपाधि भी दे दी जिससे 1971 के लोकसभा चुनावों में भारी सफलता मिली। चारों ओर भ्रष्टाचार, जमाखोरी, अपराध, लूटपाट, रिश्वतखोरी, महंगाई और सिफारिश का बोलबाला हो गया था। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। 1973 में चिमन भाई पटेल के विरूद्ध उठी आंधी बिहार में पहुंच गयी। विपक्ष का महागठबंधन जिसमें मुख्यरूप से जनसंघ, कांग्रेस संगठन तथा स्वतंत्र पार्टी शामिल थी। ये सभी पराजित हो गए थे। इंदिरा गांधी का “गरीबी हटाओ” नारा पहले के बैंकों का राष्ट्रीयकरण के तर्ज पर उन्हें लोकप्रिय बना रहा था।4 श्रीमती इंदिरा का संगठन और सत्ता पर एकाधिकार स्थापित हो गया। श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल से पूर्व ही तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरियता को अनदेखा कर गुजरात के न्यायमूर्ति ए.एन.रे को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह कदम लोकतांत्रिक संविधान के विरूद्व एक उपहास था।

आपातकाल के प्रमुख उत्तरदायी कारण-

1. गुजरात कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग था, लेकिन चिमनभाई पटेल के भ्रष्टाचार, महंगाई, भाई-भतीजावाद, घूसखोरी नामक राजनीतिक संस्कृति से कांग्रेस का सुपड़ा साफ हो गया। वहां 12 जून, 1975 को मोरार जी भाई देसाई के मार्गदर्शन में संयुक्त विपक्ष ने सफलता पाई।

2. 12 जून, 1975 को ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने और उन्हें आगामी 6 वर्षों के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने का निर्णय था। इस निर्णय से इंदिरा गांधी को सत्ता अपने हाथ से खिसकती नजर आयी।

3. संयुक्त विपक्ष एवं छात्र संघर्ष वाहिनी पर बिहार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की बर्बरता एवं विपक्ष द्वारा त्यागपत्र की मांग ।

4. 25 जून, 1975 को लोकनायक ने जनता, फौजवालों तथा पुलिसवालों को संबोधित करते हुए कहा-‘आप कोई गलत हुक्म न मानें, यह आर्मी एक्ट एवं पुलिस एक्ट में ही लिखा हुआ है कि गैर-कानूनी अनुचित और अनैतिक आदेशों का पालन दंडनीय अपराध है। सेना का पहला कार्य है, संविधान और लोकतंत्र की श्रेष्ठता को बनाएं रखना।’

जयप्रकाश पर संघ का प्रभाव- जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। उनका मानना था कि संघ वाले गांधी जी की अहिंसा को नहीं मानते तथा वे हिंसा में विश्वास रखते हैं। लेकिन उनकी यह अवधारणा गलत निकली। जयप्रकाश जी के हृदय परिवर्तन में पत्रकार राम बहादुर राय, श्री के. एन. गोविन्दाचार्य, बबुआ जी तथा श्री रमाकांत पांडे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1966-67 में जब बिहार में अकाल पड़ा था, भूगर्थ में जल भंडार भरा था, और पृथ्वी पर लोग प्यासे मर रहे थे। अकाल से त्राहि-त्राहि मची थी, जब जयप्रकाश जी को बिहार की पीड़ा दूर करने के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। जयप्रकाश जी के मन में संघ के प्रति पूर्वाग्रह थे। वे स्वयंसेवकों को इस कार्य में लगाना नहीं चाहते थे। स्व. श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के आग्रह पर जयप्रकाश जी ने एक जिले के राहतकार्य की जिम्मेदारी संघ को दी थी। अन्य संगठनों के लोगों ने अपने-अपने खर्चों का विवरण प्रस्तुत किया था, स्वंयसेवकों ने भी हिसाब दिया था। स्वंयसेवकों के हिसाब में उनके व्यक्तिगत व्यय का विवरण न देखकर जयप्रकाश जी ने सहज भाव से जानना चाहा कि स्वयंसेवक अपना खर्चा कैसे चलाते हैं? जब बताया गया कि, स्वयंसेवक अपना भोजन घर में करता है, और काम समाज का करता है, तब जयप्रकाश जी को स्वयंसेवक की झलक मिली थी। और संघ के प्रति उनके विचारों में परिवर्तन प्रारंभ हुआ।

वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय के शब्दों में- मैं पटना में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का कार्यकर्ता था। पदानुक्रम में मुझे राष्ट्रीय सचिव का दायित्व और बिहार में संगठन का कार्य सौंपा गया था। धनबाद में नवम्बर, 1973 में विद्यार्थी परिषद् का एक अधिवेशन हुआ था, जिसमें यह फैसला हुआ कि छात्रशक्ति को मिल-जुलकर व्यवस्था परिवर्तन के लिए एक आंदोलन का प्रयास करना चाहिए। पटना छात्र संघ और विद्यार्थी परिषद् तथा अन्य संगठनों ने मिलकर एक सम्मेलन का आयोजन किया। उसमें वामपंथी भी बुलाए गए थे, लेकिन उन्होंने बहिर्गमन किया। सम्मेलन में जिन कुछ मुद्दों पर आम सहमति बनी थी, उनमें से एक था पहले 18 फरवरी और फिर 18 मार्च को बिहार विधानसभा का घेराव। इसी दौरान हमने जयप्रकाशजी से सम्पर्क किया। उनसे मेरा सीधा सम्पर्क 1971 से ही था। उनके कहने पर ही मैं बंगलादेश में काफी समय रहा था। समय-समय पर मैं उनसे मिलता रहता था। उनकी बातों से साफ जाहिर हो जाता था कि वे सर्वोदय या भूदान आंदोलनों से बहुत निराश हैं। उन्हें बार-बार लगता था कि कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होना चाहिए। अपने स्तर पर वे इसके लिए सोच-विचार भी कर रहे थे। जयप्रकाशजी के मन में आंदोलन के लिए मंथन और हम छात्रों का यह आंदोलन- समानांतर दो चीजें चल रहीं थी। 18 मार्च, 1974 को हम लोगों ने बिहार विधानसभा का घेराव किया। हमारा यह फैसला बहुत सार्थक सिद्ध हुआ। लाखों लोग इस घेराव में शामिल हुए थे, हिंसा भी हुई थी। हम लोगों ने सोचा जे.पी. को सब कुछ बताया जाए। मैंने जब उनके यहां फोन किया तो उनके सचिव श्री सच्चिदानन्द सिन्हा ने बताया कि जयप्रकाश जी हम लोगों को बड़ी बेसब्री से खोज रहे हैं, जितनी जल्दी हो सके हम उनसे मिल लें। मैं, लालू, वशिष्ठ नारायण और दो लोग उनके पास गए, वे बीमार थे। जयप्रकाश जी ने हमसे घेराव के दौरान हुई हिंसक घटनाओं के बारे में पूछना शुरू किया। मैंने बताया कि हिंसा में हमारा कोई हाथ नहीं था, हमारा यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक है। यह हिंसा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस ने करवायी है। माकपा और कांग्रेस के लोगों ने आंदोलन को बदनाम करने के उद्देश्य से जगह-जगह हिंसा करवायी थी। जयप्रकाश जी को मेरी बात पर विश्वास था, फिर भी अपनी बात के अंत में मैंने यह भी कह दिया कि आप मेरी बातों की छानबीन करा लें, अगर एक बात भी गलत हो तो जो भी फैसला आप करेंगे, वह हमें मान्य होगा। लेकिन उससे पहले आप हिंसा पर कोई बयान न दें। उन्होंने हमारी बात मान ली और अपने स्तर पर छान-बीन करायी। और शायद 21 या 22 मार्च को उनका पहला बयान आया, जो हमारे आंदोलन के समर्थन में था। इस प्रकार जयप्रकाशजी इस आंदोलन से घोषित रूप से जुड़ गए। 8 अप्रैल को विधानसभा घेराव के दौरान हुई हिंसा के विरोध में जयप्रकाशजी ने बीमारी की हालत में भी मुंह पर पट्टी बांधकर मौन जुलूस का नेतृत्व किया। बिहार आंदोलन या कहें छात्र आंदोलन में पहली बार 8 अप्रैल को जयप्रकाशजी सड़क पर उतर आए। और धीरे-धीरे इस आंदोलन में शामिल हो गए। बाद में एक स्थिति ऐसी आयी कि उस छात्र आंदोलन को जे.पी. आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा।5

श्री के. एन. गोविन्दाचार्य के शब्दों में- जे.पी. के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका मन बहुत बड़ा था। उन्हें मालूम था कि छोटे मन से बड़े काम नहीं होते हैं। इसका मैं एक उदाहरण बताता हूं। मेरे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार श्री रामबहादुर राय तत्कालीन नक्सली नेता श्री सत्यनारायण सिंह को जे.पी. से मिलाने लाए ताकि वामपंथी भी बिहार आंदोलन में शामिल हो सकें। जे.पी. का भी आग्रह था कि सभी विचारों के लोग इस आंदोलन से जुड़ने चाहिए। लेकिन वामपंथी राजनीतिक छुआ-छूत से ग्रस्त रहे हैं। सत्यनारायण सिंह ने जे.पी. से कहा कि आपके साथ तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी जुड़े हए, हैं। आप पहले संघ के लोगों को आंदोलन से अलग कर दें, तब हम साथ आएंगे। जे.पी. ने कहा कि संघ के लोग तो मुझसे पहले से इस आंदोलन में शामिल हैं, इन लोगों ने मेरा नेतृत्व भी स्वीकार किया है। अब ये मुझ पर निर्भर है कि मैं आंदोलन को सबको साथ लेते हुए कैसे चलाऊं। आपसे तो मेरा इतना ही आग्रह है कि आप भी इस आंदोलन में शामिल हों। यदि आपको संघ के लोगों की नीयत पर शक है, तो जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ेगा, ठीक नीयत न रखने वालों को परेशानी होती जाएगी और वे टिक नहीं सकेंगे, खुद ही अलग हो जाएंगे। लेकिन वामपंथी नहीं माने और शामिल होने के बजाय वे आंदोलन के मुकाबले में खड़े हो गए।

 

1 COMMENT

  1. आपातकाल और उसके पूर्ववर्ती घटनाओं पर प्रकाश डालने के पहले मैं लेखक का ध्यान इस ओर आकृष्ठ करना चाहूँगा कि १९७१ में इंदिरा गाँधी के लोक सभा चुनाव में भारी बहुमत का पाकिस्तान भारत युद्ध से कोई संबंध नहीं है. चुनाव मार्च १९७१ में संपन्न हो चुका था,जबकि भारत पाकिस्तान के युद्ध का श्रीगणेश ३ दिसंबर १९७१ में हुआ था. श्री अटल बिहारी वाजपेई ने लोकसभा में यह अवश्य कहा था कि आज भारत केवल एक देश और एक पार्टी है और उसकी नेता इंदिरा गाँधी हैं. बाद में युद्ध के दौरान उन्होने उनको शायद दुर्गा भी कहा था. १९७१ का चुनाव इंदिरा गाँधी ने बैंकों और कोयला खानों के राष्ट्रीय करण,प्रिवी पर्श की समाप्ति और ग़रीबी हटाओ क नारे पर जीता था.१९७१ के युद्ध के विजय का सीधा लाभ उन्हे १९७२ के राज्य के चुनावों में हुआ था.
    राजनरायण क्यों इंदिरा गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड़े थे,इसके बारे में मैने उसी समय किसी जानकार से पूछा था. उनका त्ता उत्तर था,राजनारायण जी इंदिरा गाँधी के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने के लिए उनके विरुद्ध चुनाव लड़ रहे थे.

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