आपातकाल और संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मात्र शाखा केंद्रित संगठन नहीं है। संघ का मानना है कि संघ कुछ भी नहीं करेगा, पर स्वयंसेवक सब कुछ करेगा। अर्थात हमारी जहां भी आवश्यकता होगी। उस आवश्यकतानुसार स्वयंसेवक राष्ट्रहित में शाखा से लिए गए संस्कारों के अनुसार रणूमि में कुद पड़ेगा। उसके लिए ‘राष्ट्रहित सवोर्परि’ होगा। जरूरत पड़ने पर वह तन, मन और धन भी समर्पित कर देगा। इसका स्पष्ट उदाहरण आपातकाल में संघ की भूमिका से स्पष्ट हो जाता है।
जब श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार ने चंहुओर भ्रष्टाचार, महंगाई तथा भतीजावाद के माध्यम से एक ऐसे राजनीतिक संस्कृति का फैलाव शुरू कर दिया तथा बिहार और गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन ने सत्ता के चुलों को झंकझोर दिया तथा इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार ने वह करना शुरू किया। जिसमे जनता का विश्वास डिगने लगा तो एक बार लगा की इस अन्यायी तथा अत्याचारी सरकार को खत्म करना ही होगा। इंदिरा गांधी के चुनाव के विरूद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय, गुजरात विधानसा में विपरित परिणाम तथा वरिष्ठ रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या ने कांग॔ेस(आई) की अत्याचारी तथा फासिष्ट सरकार को भी हिलाने में से है। श्रीमती गांधी तो कहती थी कि विपक्षी दलों ने समस्तीपुर रेलवे ग॔ाउंड में ललित नारायण मिश्र की जिन परिस्थियों में बम विस्फोट द्वारा हत्या करने का षड़्यंत्र रचा तथा ट्रेन के आने में देरी, डॉक्टरी चिकित्सा तथा बिना पोस्टमॉटम किए शव का संस्कार कराना। इस बात के तरफ इंगित करता है कि ललित नारायण मिश्र जैसे नेता की हत्या में कहीं न कहीं खोट था। कई स्थानों पर श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था कि विपक्षी दलों ने ललित नारायण मिश्र की हत्या करायी तथा उसका दोष मेरे उपर म़ने का प्रयास किया है तथा हो सकता है कि वे मेरी भी हत्या कर सकते हैं। ललित नारायण मिश्रा इंदिरा गांधी के

भ्रष्टाचार  को लिंति जानते थे तथा इस संबंध में उन्होंने कई बार जिक॔ भी किया था कि यदि इसका पर्दाफाश कर दें या हो जाए तो कई बड़ेबड़े व्यक्ति  भी फंस सकते हैं। उनके सामने इन्हीं समस्याओं से निजात पाने के लिए कई बार मु॔यमंत्री तथा राज्यपाल बनाने का भी  प्रस्ताव दिया गया। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। यह उस समय में प्रकाशित समाचारपत्रों एवं नेताओं के संस्मरणों में देखा जा सकता है। जिसके परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी को लगा कि पाकिस्तान की तरह सवोर्च्च शक्ति मेरे हाथों में आ जाए तथा मैं अपने हिसाब से लोकतंत्र की व्या॔या किया करुं। और अंततः श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी।
लगग 2 वषोर्ं तक संघ पर प्रतिबंध लगा रहा। तब संघ नेतृत्व के समक्ष यह प्रश्न उठा कि हमें मात्र प॔तिबंध उठाने के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए या लोकतंत्र की रक्षा के लिए लोकसंघर्ष समिति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए। संघ विश्व का एकचालुकानवर्ति तथा लोकतांत्रिक रूप से सबसे बड़ा संगठन है। यद्यपि संघ संस्थापक डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार एक राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे पर परिस्थितियों ने उन्हें संघ की स्थापना के लिए प्रेरित किया। (14 नवंबर, 1975 से 26 जनवरी, 1976) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मात्र प्रतिबंध हटाने को लेकर तैयार नहीं हुआ। उसके लिए भारतमाता सवोर्परि है तथा रहेगी। इस दृष्टि से संघ ने प्रण किया है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघ के स्वयंसेवक अगि॔म पंक्ति में रहेंगे। जब संघ नेतृत्व को लगा कि विदशों में

भी  हमारा पक्ष मजबुत होना चाहिए तो प्र॔यात अर्थशास्त्री प॔ो. सुब॔ह्मण्यम स्वामी की पत्नी ने क ई देशों की यात्रा की एवं अपातकाल में होने वाले कायोर्ं का विवरण प्रस्तुत किया।
मैं आपातकाल में समस्त राजनीतिक दलों के एकजुट संघर्ष को तिसरा स्वतंत्रता संग॔ाम मानता हूं। संघ नेतृत्व का यह मानना था कि संघ लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं करता है अपितु इसके लिए प्रतिबद्ध संगठन है। डॉ. हेडगेवार ने संगठन के आव में दीनहीन

भारतीय समाज को देखा था। उनके मन में एकमात्र पीड़ा यह थी कि आखिर  भारतीय समाज बुराइयों के प्रतिकार के लिए संगठित क्यों नहीं होता। इस हीन दशा को लेकर वे कुछ वषोर्ं तक सो भी नहीं पाते थे। जिस संगठन का आधार ही देश, समाज, राष्ट्र तथा भारतीय संस्कृति जैसे विषयों को लेकर हुआ हो वह संगठन व्यक्ति, राष्ट्र तथा राजनैतिक विकृति को लेकर सचेत तो होगा ही।
देश में चारों ओर मारपीट, धरपकड़, गिरफ्तारियों तथा प॔ेस पर सैंसर लगा दिया। लोकतंत्र की रक्षा के लिए उस समय श्री रामनाथ गोयनका के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ तथा ‘जनसत्ता’ का अमूल्य योगदान था। जो मेरे लेख ”आपातकाल और मीडिया’’ में देखा जा सकता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तं है। यह राष्ट्र का प्रहरी होता है लेकिन जब आकाशवाणी(इंदिरावाणी) तथा दूरदर्शन(इंदिरा दर्शन) बन जाए तो यह सत्य की हत्या हीं हुई। आडवाणी ने आपातकाल में प्रेस को ”रेंगने वाला’’ तथा विद्या चरण शुक्ल ने ”स्वतंत्रता समाप्ति’’ की बात कही है। जनता के समक्ष एकमात्र विकल्प यही था की वो या तो सशस्त्र विद्रोह करें या सेना बगावत करें। समस्या का समाधान कहीं भी निकल नहीं रहा था। सारे के सारे समाचार पत्र ‘सरकारी ोपु’’ बन गए थे।
आपातकाल को विनोबा जी ने ”अनुशासन पर्व’’ कहा था। विनोबा जी एक प्रकार से ”सरकारी साधु’’ की तरह दिखाई दे रहे थे। उनके द्वारा नि:पक्ष, निर्वैर और निर्य कहीं जाने वाली ”आचार्यकुल’’ नामक संस्था सरकार समर्थित लगने लगी थी। इसी समय संघ नेतृत्व ने यह विचार किया कि वर्धा में आयोजित आचार्य सम्मेलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक अपना पक्ष रखें। श्री बजरंग लाल गुप्त जो वर्तमान में संघ के क्षेत्र संघचालक (दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा राजस्थान)तथा प्र॔यात अर्थशास्त्री हैं। इन्होंने तो कमाल कर दिया। वे बजरंग लाल गुप्त से सुधीर भाई बनकर वर्धा में गए तथा वहां गुप्त बैठक में भाग लिया। आचार्यकुल सम्मेलन में उन्होंने विनोबा जी को एक चिट्ठी दी। उस पत्र में लिखा था। बाबा आपने अीअी आपातकाल को अनुशासन पर्व कहा है तथा यह कैसे संव हो सकता है कि आचायोर्ं का चिंतन स्वतंत्र एवं निष्पक्ष हो। आपको इस पर भी विचार करना चाहिए।
आपातकाल में सरकार तथा पुलिस संघ के स्वयंसेवकों के प्रति कैसी दुार्वना रखती थी। यह निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है।
‘यमुनानगर के एक प्रो. जिन्होंने ”संसद में स्थगन प्रस्ताव’’ विषय पर पीएचडी किया है, के यह कहने पर कि मैं प्रो. के साथ एक लेखक भी हूं। इंसपेक्टर ने द्दी गालियां देते हुए कहा, ”अी आपकी प॔ोफेसरी का इलाज किए देते हैं।’’ उनकी सोने की अंगुठियां तथा रूपये छीने गए एवं 24 घंटे तक ूखाप्यासा रखा गया। बरसते पाने में मारतेपिटते तथा द्दी गालियां देते हुए थाने तक ़ाई किलोमीटर दौड़ाते हुए लाया गया। इसके बाद उन्हें नंगा करके दोनों हाथ पीछे बांध दिए तथा जमीन पर पैर फैलाकर बैठाया गया। प्रो. ने चिल्लाकर कहा कि मुझे हार्निया की बिमारी है। बाल पकड़कर बारबार पीटा गया जब तक कि वे बेहोश न हो गए। मजिस्ट्रेट के सामने भी द्दीद्दी गालियां दी गयी पर मजिस्ट्रेट ने कुछ भी नहीं कहा।
॔आपातकाल के इस बीस महिनों में पुलिस ने मध्य प्रदेश के देवास जिले के ूटिया गांव में 8 सत्याग॔हियों को थाने में पीटा तथा उनके अधोवस्त्र भी फाड़ दिए गए। इतना ही नहीं किया गया। लातघूसों से जमकर धुनाई के पश्चात एक दूसरे पर अप्राकृतिक मैथुन के लिए मजबूर किया गया। मूंह मे पेशाब तथा कई दिनों तक ूखेप्यासे रखा गया। बिजली के झटके दिए गए। पुलिस थाने से जवाहर चौक तक नंगे घुमाते हुए ”जनसंघ मुर्दाबाद’’ के नारे लगाए गए। जिस दिन जमानत के लिए उपस्थित होना था, उसकी पूर्व रात्रि में उन्हें एकएक कर बियाबान जंगल में छोड़ दिया गया।
‘देवरिया(उ.प्र.) के मेरे शिष्य िमल गत को मारनेपिटने के बाद जबरन नसबंदी कर दी गई। जबकि उनकी शादी छः माह पूर्व हुई थी।
॔हरियाणा भारतीयजनता युवा मोर्चा के संयोजक को मारनेपीटने के बाद उनके लिंगों व अंडकोशों को बारबार खींचा गया जिसके कारण बिहोशी आ गई। उनके साथ इतना ही नहीं हुआ। उनको बिना ोजनपानी के रखा गया तथा उनके चडी में एक कपड़े का थैला डाल दिया गया। उसमें मच्छर, चिलर तथा चूहे रखे गए थे।
संघ के स्वयंसेवकों के साथ अत्याचार को पॄकरसुनकर ऐसा लगता है कि श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शत्रु क॔मांक1 पर था। संघ के विशाल सत्याग॔ह में लगग 60 हजार स्वयंसेवकों ने

भाग लिया। केवल दिल्ली में ही अरूण जेटली, सुब॔ह्मण्यम स्वामी, मदनलाल खुराना, प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा, के एन गोविंदाचार्य, देवेन्द्र स्वरूप, सुरेन्द्र मोहन, ानुप्रताप शुक्ल, मदनलाल खुराना, बैकुंठलाल शर्मा ‘प्रेम’ इत्यादि स्वयंसेवकों ने

भाग  लिया। उन्होंने आपातकाल में चोरीछिपे जागरण पत्रकों के माध्यम से श्रीमती इंदिरा गांधी के अन्यायी, अत्याचारी और राष्ट्रद्रोही प्रवृत्तियों का प्रचारकिया। यदि किसी व्यक्ति को आपातकाल में संघ के योगदान के संबंध में जानकारी लेनी हो तो वो राष्ट्रषि नानाजी देशमुख लिखित ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ तथा मणिचंद वाजपेयी उर्फ ‘मामाजी’ कीे पुस्तक ॔ज्योति जला निज प्राण की’ को पॄें। इसमें आजादी पूर्व एवं आजादी के पश्चात संघ के स्वयंसेवकों के अप्रतिम बलिदान के संबंध में जानकारी मिल जाएगी। वर्तमान में एक मीडिया प्रमुख तथा प्रमुख राजनैतिक कार्यकर्ता श्री जे. के. जैन की पत्नी श्रीमती रागिनी जैन ने तो कमाल ही कर दिया था। एक सप्ताह पूर्व पैदा हुई नवजात बच्ची को छोड़कर आपातकाल रूपी स्वतंत्रता संग॔ाम में नानाजी देशमुख के सारथि के रूप में कार्य किया। जब नानाजी ने कहा कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह ठीक नहीं है तो उन्होंने कहा कि मेरे लिए ”राष्ट्रहित सवोर्परि’’ है। मेरी चिंता आप न करें। सब कुछ परमात्मा के श्री चरणों में है।
विदेशों में रहने वाले संघ के स्वयंसेवकों ने अमेरिकों, इंग्लैंड, इत्यादि देशों में ॔फ॔ेंड्स अॉफ इंडियन सोसायटी’, ॔इंडियंस फॉर डेमोक॔ेसी’ और ॔फ॔ी जेपी मूवमेंट’ के माध्यम से समाचार पत्रों, आकाशवाणी केंद्रों एवं दूरदर्शन केंद्रों में आपातकालीन संघर्ष को मुखारित किया।
संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से श्रीमती इंदिरा गांधी का कहना था कि संघ सरकार से समझौता करें। समझौता में दोनों पक्षों को कुछ लेनदेन तो करनी ही होती हैं। आपके स्वयंसेवक 21 महीने से जेलों में है। वे कुछ दिनों में टूटने लगेंगे। आप इस प्रकार कितने दिनों तक चलेंगे। पदाधिकारी ने कहाए ”हमारे स्वयंसेवक टूटने वाले नहीं हैं। वे 4 वषोर्ं तक भी जेलों में रह सकते हैं। उनका मनोबल तथा उत्साह बना ही रहेगा। प्रतिबंध उठने के बाद हमें तथा हमारे स्वयंसेवकों को फिर से समाज में जाना है। वे सीना तानकर, मस्तिष्क ऊंचा रखकर तथा उज्जवल मुख लेकर समाज में कार्य करने के लिए जा सकें । यदि आपके बातों पर वे बाहर आएंगे तो उनपर यह कलंक लगेगा कि इस स्वतंत्रता संग॔ाम की घड़ी में वे धोखा देने वाले तथा पीठ में छुरा घोंपने वाले कहलाएंगे।’’

2 COMMENTS

  1. आपातकाल के बारे में तो पढ़ा है किन्तु सरकारी दमन के बारे में पहली बार पता चला. वाकई ऐसा इतिहास क्यों स्कूलों, कालेजो में नहीं बताया जाता है. हमारे देश का दुर्भाग्य है की हमने अपनी नई पीढ़ी को अपना इतिहास नहीं बताया है.

  2. चतुर्वेदी जी गज़ब का आलेख…बहुत से ऐसे पहलु थे जिनका मुझे ज्ञान नहीं था…इस आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद…

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