आपात के हालात और शाह-मोदी के जज्बात

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मनोज ज्वाला

जादी के बाद हमारा देश पहली बार वास्तविक अर्थों में आपातजनक हालातों से घिरा हुआ है। हालांकि सन 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपात शासन लागू कर देश के लोकतंत्र को बंधक बना लिया था। वैसे जिन हालातों के आधार पर उन्होंने आपातकाल की घोषणा की थी वो वास्तव में आपातजनक नहीं थे। दुनिया जानती है कि उन्होंने प्रधानमंत्री-पद पर बलात बने रहने के लिए ही आपात शासन लागू किया था।मालूम हो कि इन्दिरा गांधी ने भारतीय संविधान के जिस अनुच्छेद-352 में किए गए प्रावधान के सहारे देश पर आपात-शासन थोप दिया था, उसमें साफ-साफ यह उल्लेख है कि ‘यदि राष्ट्रपति आश्वस्त हों कि देश में ऐसी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे आन्तरिक उपद्रव या गृह-युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण के रुप में भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, तब वे इसकी उद्घोषणा करके आपात शासन की अधिसूचना जारी कर सकते हैं।’ किन्तु, सन 1974-75 में देश के भीतर ऐसी स्थिति तनिक भी नहीं थी। अलबत्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले से सिर्फ इन्दिरा गांधी की कुर्सी पर खतरा अवश्य उत्त्पन्न हो गया था।उल्लेखनीय है कि जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के संसदीय-चुनाव को कदाचार-युक्त प्रमाणित करते हुए संसद की उनकी सदस्यता को अवैध घोषित कर उन्हें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123(7) के तहत आगामी छह वर्षों तक कोई भी निर्वाचित पद ग्रहण करने के अयोग्य करार दे दिया था। जाहिर है, ऐसे में प्रधानमंत्री के पद पर इन्दिरा का बने रहना मुश्किल हो गया था। उनसे इस्तीफा मांगा जाने लगा। तब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुवा ने चापलूसी के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए नेहरु-पुत्री की खिदमत में ‘इन्दिरा इज इण्डिया व इण्डिया इज इन्दिरा’ का नारा उछाल रखा था। उस ‘इन्दिरा की कांग्रेस व कांग्रेस की इन्दिरा’ ने इस्तीफा देने की बजाय उनके विरुद्ध फैसला देने वाले न्यायालय सहित समस्त लोकतांत्रिक संस्थाओं का ही गला घोंट देने के लिए 25 जून 1975 की आधी रात को आपात-शासन की घोषणा कर अगले कुछ ही दिनों के अंदर तमाम विपक्षी नेताओं को कारागार में डालवा कर मीडिया को भी प्रतिबन्धित कर सत्ता का आतंक बरपाया उसे दुनिया जानती है। उस आपात शासन का अनुचित औचित्य सिद्ध करनेवाली आपात-स्थिति सिर्फ इतनी ही और यही थी। सिवाय इसके, न आतंकी वारदातों की व्याप्ति थी, न देश की सम्प्रभुता को कोई चुनौती थी। न तख्ता-पलट का कोई गुप्त षड्यंत्रकरी सरंजाम था, न प्रायोजित झूठी खबरों-अफवाहों का भड़काऊ अभियान था। न विदेशी शक्तियों से देशी गद्दारों के गठजोड़ का आलम था और न ही केन्द्रीय संस्थाओं के विरुद्ध राज्य सरकारों का बगावती उल्लंघन था। संसद से विधिवत निर्मित किसी कानून को किसी राज्य सरकार द्वारा उस प्रदेश में लागू नहीं करने की धमकी-भरी चुनौती देने और हिंसक आंदोलन को शासनिक संरक्षण देने जैसे जो हालात आज दिल्ली, पश्चिम  बंगाल एवं अन्य प्रदेशों में देखे-सुने जा रहे हैं, सो तब नहीं थे।आज राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को लेकर देश में जो हो रहा है, उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे भाजपा-विरोधी दलों ने पड़ोसी देशों की भारत-विरोधी शक्तियों से सांठगांठ कर रखा है। देश की केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध आम जनता को बरगलाने-भड़काने और दुनियाभर में भारत की छवि खराब करने की जो कोशिशें की जा रही हैं, यह कोई सामान्य राजनीतिक संवाद अथवा लोकतांत्रिक वाद-विवाद नहीं है। बल्कि, ये तो आपात-स्थिति के हालात हैं। ‘एनआरसी’ व ‘सीएए’ में ऐसा कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है, जो देश के खिलाफ है। सच तो यह है कि भारतीय नागरिकों की राष्ट्रीय पहचान सुनिश्चित करने वाला एनआरसी विदेशियों की घुसपैठ से देश को बचाने का ‘सुरक्षा-कवच’ है। इसी तरह ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ भारतीय राष्ट्रीयता की मौलिकता व स्वाभाविकता को अभिव्यक्त करने और इस्लामी आतंक-अत्याचार से पीड़ित-प्रताड़ित लाखों लोगों को आश्रय-अवलम्बन देने की व्यवस्था सुनिश्चित करने के कारण महत्वपूर्ण है। यह तथ्य गौरतलब है कि इस्लाम के जन्म लेने तथा भारत में आने से पूर्व सम्पूर्ण भारत सनातनधर्मी था। यहां की समस्त प्रजा हिन्दू ही थी। इसी तरह से अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश का अस्तित्व कायम होने से पूर्व इन तीनों देशों का सारा भू-भाग भारत का ही अंग था। इस तथ्य के आधार पर यह सत्य स्वयंसिद्ध हो जाता है कि सनातन धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है। जैन, बौद्ध, सिखयुक्त हिन्दू ही असल में भारत की मौलिक-स्वाभाविक प्रजा हैं। ऐसे में इस्लामी शासन वाले देशों के मजहबी अत्याचार से पीड़ित-प्रताड़ित व मानवाधिकारों से वंचित हिन्दुओं को भारत की नागरिकता देना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है। क्योंकि, उन देशों में रह रहे हिन्दू उनके अस्तित्व में आने के पहले से ही भारतीय थे। जाहिर है उन भारतीयों के वर्तमान वंशजों को आज के खण्डित-भारत की नागरिकता हासिल करने का अधिकार भी बनता है। आखिर भारत के उन भू-भागों पर अभारतीय इस्लामी देश व मजहबी राज-सत्ता का निर्माण उन्होंने तो नहीं किया था। विभाजन-विखण्डन से हुए उस निर्माण के लिए वर्तमान भारत की तत्कालीन राजनीति व राजसत्ता जिम्मेवार थी। जिसके कारण तब के करोड़ों हिन्दू इस्लामी अत्याचार से पीड़ित-प्रताड़ित व धर्मान्तरित होकर अब महज लाखों में सिमट चुके हैं और मानवाधिकारों से वंचित होकर पशुवत जीवन जीने को अभिशप्त हैं। ऐसे में उन स्वाभाविक भारतीयों की सुध लेना तथा उन्हें उनकी खो चुकी भारतीय नागरिकता पुनः प्रदान करना भारत-सरकार का नैतिक दायित्व बनता है। इस दायित्व का निर्वाह करने के बाबत हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने नागरिकता संशोधन अधिनियम बनाने का जो काम किया है, वह भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति उनके उफनते जज्बातों का परिणाम है। विरोधी दलों का यह कहना कि यह अधिनियम धर्म के आधार पर बनाया गया है, तो इसका सीधा-सरल उत्तर यह है कि उन लाखों लोगों को उनके धर्म के कारण ही वहां के इस्लामी शासन और इस्लाम-परस्त अवाम के द्वारा आतंकित-प्रताड़ित किया जाता रहा है। इसी कारण आतंकित-प्रताड़ित करने वालों को इस कानून की परिधि से बाहर रखा गया है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस कानून का विरोध करने वालों को मालूम होना चाहिए कि भारत की धर्मनिरपेक्षता पहले भारतीय नागरिकों के लिए है। विदेशी नागरिक अगर धर्म के आधार पर किसी को आतंकित-प्रताड़ित करेंगे तो भारत-सरकार उन्हें भारतीय नागरिकता से सम्मानित क्यों करे?ऐसे में कतिपय राजनीतिक दलों व छात्र संगठनों द्वारा इस ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ की मुखालफत करना,  गैर-भाजपाई राज्य-सरकारों के मुख्यमंत्रियों द्वारा इसे उन राज्यों में लागू नहीं करने की धमकी देना और देश की आंतरिक सुरक्षा-व्यवस्था के लिए चुनौती बने लाखों-करोड़ों बांग्लादेशी मजहबी घुसपैठियों व रोहिंग्या मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दिलाने के लिए तोड़फोड़-हिंसा बरपाकर गृह-युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न करना वास्तव में आपात-शासन के पर्याप्त कारक निर्मित करने वाले हालात हैं। बावजूद इसके, नरेन्द्र मोदी व अमित शाह ऐसे आपद हालातों से देश को उबारने का वह संविधान-प्रदत उपचार-अधिकार (अनुच्छेद-352) आजमाने की बजाय चुपचाप भारत की राष्ट्रीयता, सुरक्षा व सुव्यवस्था को सुन्दर-सशक्त आयाम देने में डटे हुए हैं तो यह लोकतंत्र के प्रति गहरी निष्ठा व लोकतांत्रिक आदर्शवादिता के प्रति अटूट आस्था से भरे उनके जज्बातों की पराकाष्ठा है। साथ ही, लोकतंत्र को नवजीवन प्रदान करने में सर्वाधिक मुखर भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों से संस्कारित उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा की परीक्षा भी है।

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