आपातकाल पाठ्यक्रम का हिस्सा हो

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अरविंद जयतिलक

एक जिम्मेदार राष्ट्र का कर्तव्य है कि वह अपने आने वाली पीढ़ी को देश के इतिहास, संस्कृति, धर्म-दर्शन और जनतांत्रिक मूल्यों से सुपरिचित कराए। साथ ही उन अलोकतांत्रिक तानाशाही विचारों को भी पाठ्यक्रम से जोड़े जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा और उदात्त मूल्यों के खिलाफ हैं। यह तथ्य है कि स्वतंत्र भारत के ऐसे कई प्रसंग हैं जो ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण होते हुए भी इतिहास का हिस्सा नहीं बन सके। उन्हीं में से एक है आपातकाल। आपातकाल के साढ़े चार दशक गुजर चुके हैं लेकिन शायद ही नई पीढ़ी इससे सुपरिचित हो। पर अच्छी बात यह है कि देर से ही सही अब आपाकाल को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की मांग मुखर होने लगी है। अगर आपातकाल के प्रसंग को इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाए तो निःसंदेह युवा पीढ़ी को तानाशाही और लोकतांत्रिक विचारों के फर्क को समझने और महसूस करने में मदद मिलेगी। युवाओं को जानने-समझने का मौका मिलेगा कि एक राष्ट्र को किस तरह के विचार और व्यवस्था की जरुरत है। एक स्वस्थ संसदीय लोकतांत्रिक परंपरा में धरना-प्रदर्शन, सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी जनतंत्र के बुनियादी आधार होते हैं। कोई भी लोकतांत्रिक सरकार इन मूल्यों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती। अगर करती है तो फिर वह अलोकतांत्रिक और जनविरोधी है। 25 जून, 1975 को देश की ततकालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू की थी। जब भी 25 जून का दिन आता है आपातकाल की टीस उभरने लगती है। उसी टीस का नतीजा है कि आज भी उस पर विमर्श जारी है। विचार करें तो इन साढ़े चार दशकों में देश में युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी आयी है जो न सिर्फ लोकतंत्र की समर्थक है बल्कि उन सभी विचारों का विरोधी भी है जो मानवीय गरिमा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ है। फिलहाल कहना मुश्किल है कि भारत की नई युवा पीढ़ी श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल से खुद को कितना जोड़ पायी है। ऐसा इसलिए कि आपातकाल के बारे में शायद ही नई पीढ़ी को संपूर्ण जानकारी होगी। शायद उसे यह भी भान नहीं होगा कि आपातकाल होता क्या है? अगर दशकों पहले आपातकाल के प्रसंग को शिक्षा से जोड़ दिया गया होता तो आज की युवा पीढ़ी आपातकाल के गुण-दोष से सुपरिचित होती। तब शायद लोकतंत्र को और अधिक मजबूती मिली होती। आपातकाल को शिक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़ा जाना इसलिए भी आवश्यक है कि आपातकाल लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विपरित एक ऐसी तानाशाही विचारधारा है जिसे भारत ही नहीं दुनिया के हर लोकतांत्रिक देशों ने खारिज किया है। युवाओं को जानना होगा कि आपातकाल का मूल कारण 12 जून, 1975 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला था जिसमें न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को यह कहकर रद्द कर दिया था कि चुनाव भ्रष्ट तरीके से जीता गया। इसे ध्यान में रखते हुए न्यायमूर्ति ने श्रीमती इंदिरा गांधी पर छः साल चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी इस फैसले का सम्मान करने के बजाए सत्ता बचाने के खेल में जुट गयी। उनके पास सिर्फ दो ही उपाय थे। या तो वह न्यायालय के फैसले का सम्मान कर अपने पद से इस्तीफा देती या संविधान का गला घोंटती। उन्होंने दूसरे रास्ते को चुना और संविधान को निलंबित कर दिया। आंतरिक सुरक्षा को मुद्दा बनाकर बगैर कैबिनेट की मंजूरी लिए ही देश पर आपातकाल थोप दिया। यही नहीं उन्होंने संवैधानिक नियमों को ताक पर रख उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी कर चैथे नंबर के न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश बना दिया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगनादेश जारी किए जाने के बाद श्रीमती गांधी और उग्र हो उठी। उन्होंने उन सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मटियामेट करना शुरु कर दिया जो लोकतंत्र की संवाहक थी। उन्होंने ने जयप्रकाश नारायण समेत उन सभी आंदोलनकारियों को मीसा और डीआइआर कानूनों के तहत जेल भेज दिया जो आपातकाल का विरोध कर रहे थे। सरकार ने प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध लगा दिया। यहां तक कि समाचार पत्रों को अपने संपादकीय का स्थान रिक्त छोड़ने की भी अनुमति नहीं दी। दरअसल वे संपादकीय को रिक्त छोड़ा जाना अपनी सरकार के खिलाफ समझती थी। उन्होंने निष्पक्ष पत्रकारों और संपादकों पर भी डंडा चलाना शुरु कर दिया। मोरार जी देसाई के शासन काल में गठित शाह आयोग की रिपोर्ट में सरकार की निरंकुशता का दिलदहला देने वाले सच उजागर हुआ। इस रिपोर्ट में कहा गया कि आपातकाल के दौरान गांधी जी के विचारों के साथ-साथ गीता से भी उद्धरण देने पर पाबंदी थी। श्रीमती गांधी के समर्थकों ने आंदोलन की धार कुंद करने के लिए यह प्रचारित करना शुरु कर दिया कि जयप्रकाश नारायण का आंदोलन फासिस्टवादी है। सरकार के अत्याचार की पराकाष्ठा का परिणाम रहा कि बिना अभियोग चलाए ही लाखों आंदोलनकारियों को हिरासत में ठूंस दिया गया। सरकारी संस्थाएं सरकार से डर गयी और उसके सुर में सुर मिलाने लगी। लेकिन कहते हैं न कि लोकतंत्र में तानाशाही की उम्र ज्यादा लंबी नहीं होती। आखिरकार लोकतंत्र ही जीतता है। कुछ ऐसा ही हश्र श्रीमती गांधी की तानाशाह सरकार के साथ भी हुआ। 1977 के आम चुनाव में जनता ने श्रीमती गांधी की सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंका और आपातकाल की रीढ़ तोड़ दी। विश्व इतिहास गवाह है कि जन आंदोलनों के आगे दुनिया की हर तानाशाह सरकार झुकती रही है। रुस की जारशाही और फ्रांस की राजशाही भी जन आंदोलनों को डिगा नहीं पायी। आज सर्वाधिक चिंता की बात है यह है कि देश में आपातकाल थोपे जाने के बाद भी उसे रोकने का अभी तक कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं बनाया गया है। उचित होगा कि संविधान में इस तरह का प्रावधान किया जाए कि दोबारा आपातकाल थोपे जाने की न तो गुंजाइश बचे और न ही कोई निर्वाचित सरकार दुस्साहस दिखाए। स्वाभाविक है कि जब इस तरह का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं होगा तो आपातकाल की आशंका बनी रहेगी। बहरहाल अच्छी बात रही कि जिस दौर में आपातकाल थोपा गया उससे हमारा लोकतंत्र कमजोर होने के बजाए ताकतवर व परिपक्व हुआ। नागरिक अधिकारों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सतर्कता बढ़ी। न्यायपालिका दबावमुक्त, स्वतंत्र और सक्रिय हुई। मीडिया आजादी की कुलांचे भरने लगी। इन सबके बीच अगर आपातकाल को शिक्षा के पाठ्यक्रम से जोड़ दिया जाए तो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी को तो मजबूती मिलेगी ही साथ ही आपातकाल के संबंध में युवाओं के विचार भी खुलकर सामने आएंगे।   

2 COMMENTS

  1. सही बात लिखी है | आपक बहुत बहुत धन्यवाद | भारत माता की जय |

  2. राणा प्रताप को देश विरोधी मान ने वाले , उनका पाठ भी पाठ्यक्रम से हटा देने वाले , हमारे नेता अपने काले कार्यो को देश की भावी पीढ़ी को पढ़ने देंगे ?

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