कमालिस्तान स्टूडियो पर लगेगा ताला, दबी रहेंगी ‘पाकीजा’ की यादें

आर.बी.एल.निगम, फिल्म समीक्षक
कहते हैं, समय बड़ा बलवान होता है, एक समय था जब फिल्म जगत में सम्वाद लेखक-निर्माता-निर्देशक कमाल अमरोही की तूती बोलती थी, बड़े जतन और मेहनत से कमालिस्तान स्टूडियो बनाया था, लेकिन कमाल साहब के वंशज उस विरासत को सँभालने में नाकाम हो रहे हैं। इस स्टूडियो से मेरे पिताश्री एम.बी.एल.निगम का भी गहरा सम्पर्क था। 
71 साल पुराना आरके स्‍टूडियो के बंद होने के बाद अब 60 साल पुराने कमालिस्‍तान स्‍टूडियो पर भी ताला लगने वाला है। इस स्टूडियो को 1958 में कमाल अमरोही द्वारा स्‍थापित किया गया था। खबर है कि स्टूडियो को तोड़कर अब बिजनेस पार्क बनाया जाएगा। कमाल स्टूडियो में हिंदी की कई क्लासिक फिल्मों का निर्माण किया गया है। यहां महल (1949), पाकीजा (1972), रजिया सुल्तान, अमर अकबर एंथनी और कालिया जैसी फिल्में बनी थीं। अब केवल इस स्टूडियो की यादें सिनेमा प्रेमियों के जेहन में रह जाएंगी।
15 एकड़ में फैली इस जमीन पर जल्द ही देश का सबसे बड़ा कॉर्पोरेट ऑफिस तैयार किया जाएगा।इस विशाल कॉर्पोरेट ऑफिस का नाम एस्पायर रखा जाएगा। इस प्रोजेक्ट की कीमत 21 हजार करोड़ रुपये बताई जा रही है। डीबी रियलिटी और बेंगलुरु स्थित RMZ कॉर्पोरेशन ने मिलकर इस जमीन को नए सिरे से डेवलप करने का फैसला किया है।

यारों के यार थे कमाल अमरोही
बॉलीवुड के मशहूर फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही का जन्म 17 जनवरी 1918 को यूपी के अमरोहा में हुआ था। लोग कहते हैं कि वे काफी सख्त स्वभाव के थे। लेकिन मेरे पिताश्री एम.बी.एल.निगम के विचार एक भिन्न थे। कमाल साहब ने अपने करियर के दौरान केवल 5 फिल्मों का ही निर्देशन किया।कमाल को फिल्म महल में लिखे सम्वादों ने बहुत प्रसिद्दि दिलवाई थी। 
कमाल ने मुग़ल-ए-आजम फिल्म के डायलॉग लिखे थे। कमाल अमरोही और मीना कुमारी के निकाह की कहानी भी दिलचस्‍प है। दो घंटे के भीतर दोनों का निकाह हुआ था। माना जाता है कि मीना कुमारी की शोहरत देख कर कमाल उनसे जलने लगे थे। दोनों के रिश्ते में खटास बढ़ती गई। 31 मार्च 1972 को मीना कुमारी ने दुनिया को अलविदा कहा। 11 फरवरी, 1993 में कमाल अमरोही का निधन हो गया था।

महल पिक्चर्स और कमालिस्तान स्टूडियो से जुड़े संस्मरण 

50 के दशक में पिताश्री दिल्ली-यूपी-ईस्ट पंजाब के जाने-माने फिल्म वितरक और exhibitor थे। प्रीमियर पिक्चर्स के नाम से भगीरथ पैलेस, चाँदनी चौक, दिल्ली में ऑफिस था। पिताश्री के मित्र-मंडल में कमाल अमरोही, मीना कुमारी, कुमार(उस समय के चर्चित अभिनेता-निर्माता-निर्देशक), डॉ धीश(रेलवे बोर्ड के सदस्य और दिल्ली में तत्कालीन इर्विन हॉस्पिटल के मेडिकल सुपरिंडेंटेंट) और जज सरदार सिंह धूपिया आदि सम्मिलित थे। 
बात लगभग 1955 की है, जब पिताश्री ने बड़े बजट की “लाल दुपट्टा” क्या रिलीज़ की, दफ्तर में ताला ही लग गया। साझी सी.बी.सक्सेना चुपचाप बैंक खाता खाली कर एक-दो तीन हो गए। सिर पर भारी कर्जा। दिल्ली के परेड ग्राउंड में चल रहे प्रेम टॉकीज पहले ही बंद हो चूका था, क्योकि सरकार ने सड़क बनाने के लिए सिनेमा घर को हटवा दिया था, और सिनेमा के बदले मिले धन को बड़े बजट की 3 फिल्मों में लगा दिया था। दुर्भाग्यवश, फिल्में कभी पूरी ही नहीं हो पायीं, क्योकि तीनो ही फिल्मों के निर्माता पाकिस्तान भाग गए। फिल्मों में किया निवेश भी डूब गया, जो उस समय के लगभग सवा लाख रूपए थे। जिसका रहस्योघाटन पिताश्री ने मृत्यु से लगभग 3/4 दिन पूर्व ही किया था। उस संकट की घडी में केवल कमाल और कुमार साहब ही संकटमोचक बन कर आए। कुमार साहब की “पंजाबी”,”दो बातें”,”प्यार की बातें” आदि फिल्मों के अधिकार पिताश्री के पास थे, जिन्हें बेच कर्जे का अधिकांश भाग कम करने में सहायता की। जब पिताश्री ने कुमार साहब से कहा कि “आखिर कर्जा अब आपका रहेगा।” लेकिन कुमार साहब ने कहा “निगम साहब पैसे माँग कौन रहा है, आखिर ये दोस्ती किस दिन काम आएगी।” दूसरे, कमाल साहब ने मुंबई तत्कालीन बम्बई आकर महल पिक्चर्स का कार्यभार सँभालने के लिए बुलवा लिया। कुमार साहब के दो पत्नियाँ थी, पहली पत्नी लखनऊ रहती थी, लेकिन बम्बई(वर्तमान मुम्बई) से लखनऊ और लखनऊ से वापस बम्बई वाया दिल्ली होकर आते-जाते थे। और दिल्ली में किसी होटल में रुकने की बजाए अपने दोस्त निगम के घर, पहाड़ी इमली, पर ही रुकते थे। 
प्रीमियर पिक्चर्स की प्रसिद्धि में कमाल साहब का योगदान
फिल्म ‘शोले’ के निर्माता जी.पी. सिप्पी ने उन दिनों देव आनन्द और निम्मी अभिनीत फिल्म “सजा” प्रथम रिलीज़ में असफल हो गयी थी, और वितरक ने सप्ताह पूरा होने से पूर्व ही फिल्म अनुबन्ध समाप्त कर दिया था। उन दिनों एक वितरक अन्य वितरक बंधुओं को प्रथम दिवस की टिकट भेजता था। कमाल ने पिताश्री को कहा कि “फिल्म हर दृष्टि से ठीक-ठाक है, अगर सिप्पी इसका tragic end की बजाए happy end करने को तैयार हो तो देख लो। फिल्म आपके लिए बुक करवा देता हूँ, फिल्म भी मिटटी के भाव मिल जाएगी।” कमाल साहब ने सिप्पी से दिल्ली, यूपी और ईस्ट पंजाब के लिए फिल्म बुक करवाने की बात की। सारी बातें लिखत होते ही शर्त रख दी कि “फिल्म का end बदल दो, देव और निम्मी की शादी दिखा दो।” कोई चर्चित सम्वाद लेखक कोई सुझाव दे, किसी में कहाँ साहस मना करने का। उसके बाद पिताश्री को अनुबन्ध को स्वीकार करने बम्बई बुलवा लिया। वहाँ बैठ दोनों मित्रों के बीच एक असफल फिल्म से चाँदी बटोरने की युक्ति पर योजना के अनुरूप काम करते ही फिल्म सफल हो गयी। फिल्म का “तुम न जाने किस जहाँ में खो गए…” गीत भी चर्चित गीतों में शुमार है। 
उस समय महंगी फिल्मों में शुमार होती पाकीज़ा 
पिताश्री बताते थे, कि कमाल और मीना के बीच तनाव किसी और कारण से नहीं, बल्कि ड्राइवर द्वारा शूटिंग के दौरान होते दृश्यों के दौरान होते रोमांचक क्षणों को नमक-मिर्च लगा कर बताना था। जिसका विस्तार से अपनी पुस्तक “भारतीय फिल्मोद्योग–एक विवेचन” में किया है। हाँ, फिल्म ‘पाकीज़ा’ का निर्माण जरूर रुक गया था। लेकिन मीना जी की अपने जीवनकाल में पूरा करने की इच्छा थी। दूसरे, फुर्सत क्षणों में बातचीत के दौरान मीना जी का कहना था कि “मरते वक़्त मेरे शौहर का नाम कमाल अमरोही हो।” जब तक पिताश्री मुंबई रहे, दोनों के सम्बन्ध विच्छेद नहीं होने दिए। पिताश्री के किन्हीं कारणों से दिल्ली वापस आने पर गुस्से में कमाल साहब के मुँह से निकले “तलाक” ने मीना जी को तोड़ दिया था। लेकिन गलती अहसास होने पर कमाल साहब ने जब मीना जी को स्वीकार करने के लिए हलाला करवाने ने मीना जी बिल्कुल ही तोड़ दिया था। एक चर्चा में हलाला पर मीना ने कहा था कि “हलाला के कारण मुझमें और वैश्या में कोई फर्क नहीं रह गया।” जिसे परमपिता परमेश्वर ने पूरा भी कर दिया। 
पिताश्री बताते थे कि उन दिनों ‘पाकीज़ा’ पर मीना जी बहुत मेहनत की थी। फिल्म में कब्रिस्तान के दृश्यों में वास्तविकता लाने के लिए अपने आराम के पल कब्रिस्तान में बिताती थीं।  
उस समय यदि फिल्म ‘पाकीज़ा’ निर्मित हुई होती, शायद उस समय की सबसे महँगी फिल्मों में शुमार होती। क्योकि उस दौरान मीना जी ने फिल्म में घटनाओं के बदलने के साथ दूसरे नायकों को लेने के लिए कहती थीं, और कमाल साहब कभी मना नहीं करते थे। जो दर्शाता है पति-पत्नी के बीच घनिष्ठ प्यार। निश्चित रूप से किसी प्यार के दुश्मन ने ही इन दोनों के बीच जहर घोला है। जब कभी घर-परिवार में कोई मीना का नाम भी ले लेता था, उनकी प्रशंसा में मुँह नहीं थकता था। पति के प्रति उनकी वफ़ादारी का गुणगान करते थे। कभी अकेले भोजन नहीं करती थी। रात को देरी से घर लौटने पर उन्हें खाने की मेज पर बैठे हुए सोते देखा जाता था। अपनी समस्त कमाई शौहर कमाल साहब को देती थीं। 
पाकीज़ा के महूरत पर पण्डित जी भविष्यवाणी
जब फिल्म पाकीज़ा के निर्माण महूरत के सारे विधि-विधान पूरे करने बाद पंडित जी ने कमाल साहब से कहा कि “फिल्म हिट होगी, लेकिन आपको नुकसान भी होगा…” पंडित जी के इस गूढ़ कथन को कोई नहीं समझ पाया और न ही पंडित जी ने खुलकर बताया। लेकिन घटित घटनाओं ने पंडित जी की वाणी को सार्थक सिद्ध कर दिया। प्रारम्भ में फिल्म निर्माण रुका। लेकिन जब कई वर्षों उपरान्त फिल्म प्रदर्शित हुई, फिल्म का व्यवसाय शुरू के दो सप्ताह अच्छा नहीं होने के हर सिनेमा मालिक बीच में ही अनुबंध कैंसिल कर उतारने को तत्पर था, लेकिन फिल्म तीसरे ही सप्ताह में थी की मीना जी का स्वर्गवास हो गया। देश के सारे सिनेमा बंद हो गए लेकिन जिन सिनेमाओं पर पाकीज़ा प्रदर्शित हुई थी, सब खुले रहे और फिल्म पर ऐसी भीड़ लगी कि फिल्म की सिल्वर जुबली मन गयी।  यहाँ पंडितजी की बात स्पष्ट रूप से समझ आयी। फिल्म हिट हो गयी, लेकिन कमाल साहब को व्यक्तिगत नुकसान दे गयी। यदि उस समय बनकर प्रदर्शित हो गयी होती, Production Controller में पिताश्री का नाम फिल्म होता।   
कमाल अमरोही की दरियादिली 
और जो कहते हैं कि कमाल अमरोही सख्त स्वभाव के थे, उनको जवाब। गलती पर हर कोई बोलेगा। जब फिल्म पाकीज़ा का निर्माण रुका था, तो कुछ दृश्यों में अभिनेता अरुण(गोबिन्दा के पिताश्री) ने काम किया था, उनके 600 रूपए शेष थे। किसी फिल्म के दौरान अरुण और नायिका निर्मला के बीच परवान चढ़ा इश्क विवाह सूत्र में बदल गया। कुछ समय बाद, अरुण साहब ने अपनी पत्नी निर्मला को फिल्म के शेष रूपए लाने भेज दिया। कमाल साहब ने उन्हें पिताश्री के पास भेज दिया, लेकिन निर्मला जी के पास अरुण साहब की कोई लिखत न होने के कारण रूपए देने से मना कर देने पर विवाद कमाल तक पहुँच गया। कमाल साहब ने पिताश्री को बुलाकर रूपए देने को कहा, परन्तु रूपए न देने के तर्क सुन दोनों (कमाल साहब और निर्मला जी) चुप्पी साध गए। आखिर निर्मला जी की बात सुन कमाल साहब ने कहा “निगम बाबू बेचारी औरत है, ऐसा है 10/20 रूपए ही दे दो।” पिताश्री ने कहा “आप दे दीजिए, मै एक रूपया भी नहीं दूंगा।” आखिर में विवाद को समाप्त करने के लिए 10 रूपए अपने पास से देकर उनको कहा “बाकी रुपयों के लिए अरुण साहब को ही भेज दिए या उनसे लिखवाकर ले आइये।” अगले दिन अरुण साहब स्वयं आये और पिताश्री से बोले, “निगम साहब आपने मेरी पत्नी को रूपए देने से क्यों मना किया?” पिताश्री ने कहा,”दोनों की फ़िल्मी शादी है, मुझे क्या मालूम दोनों साथ रहते हैं।” इतना सुनते ही अरुण साहब की हँसी रुके नहीं रुकी। हँसी के ठाहकों से पूरा ऑफिस गूंज गया, कमाल साहब भी। 
अगर कमाल साहब सख्त स्वभाव के होते, निगम बाबू को बोलते “मेरे आदेश को न मानने से इंकार करने की हिम्मत कर रहे हो, निकल जाओ।” लेकिन कमाल साहब ने ऐसा नहीं किया। जब तक पिताश्री मुंबई में रहे, किसी भी विवाद पर मित्र के नाते पिताश्री से विचार-विमर्श करते थे। 
पिताश्री द्वारा अचानक बम्बई छोड़ दिल्ली आने से कमाल साहब इतने विचलित हुए, समस्त ऑफिस और मीना जी सबसे हर तरीका अख्तयार कर कारण जानने की कोशिश की कि “आखिर क्या वजह है जो वापस बम्बई न आने के लिए लिखा है?” दिल्ली आये कारण जानने बाद, पिताश्री को अपने साथ लेकर जाने की जिद्द छोड़ कर, अकेले चले गए, लेकिन वहाँ पहुँच कर तीन महीने का वेतन दिल्ली भेज दिया।           

गोदरेज ने खरीदा आरके स्टूडियो
चेंबूर स्थित आरके स्टूडियो को भी रियलिटी क्षेत्र के दिग्गज मालिक गोदरेज प्रॉपर्टीज लिमिटेड ने खरीद लिया है। यह क्षेत्र यहां 16 सितंबर 2017 को लगे आग में जलकर खाक हो गया था। आरके स्टूडियोज की स्थापना 1948 में की गई।बॉलीवुड के कपूर खानदान से आरके स्टूडियो खरीदने वाले जीपीएल ने अब यहां 350,000 वर्ग फीट में अत्याधुनिक आवासीय परिसर और एक लक्जरी रिटेल केंद्र बनाने का फैसला किया है।(लेखक 2012 में Organiser से Special correspondent से सेवानिर्वित होने उपरांत लगभग 3 वर्ष हिन्दी पाक्षिक का सम्पादन करते स्तम्भ “झोंक आँखों में धुल–चित्रगुप्त” के साथ-साथ श्रृंगला “गोडसे ने गाँधी को मारा क्यों?” का लेखन किया। दो पुस्तकें “The Mother Cow” और “भारतीय फिल्मोद्योग–एक विवेचन” का लेखन एवं प्रकाशन किया। ) 

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