आगरा के मलपुरा में बीच सड़क पर जिन्दा जला दी गई लालऊ गाँव की बेटी संजली के हत्यारों को लेकर पुलिस ने खुलासा कर दिया । हत्यारे और कोई नहीं बल्कि संजली के परिवार के भाई निकले । पुलिस के अनुसार मुख्य आरोपी संजली के ताऊ का लड़का योगेश था जिसने पुलिस पूछताछ में बुलाये जाने पर भेद खुल जाने के डर से आत्महत्या कर ली थी। जाँच में सामने आया कि योगेश संजली के प्रति आकर्षित था और उस पर अपना अधिकार जमाता था, यह संजली को पसन्द नहीं था । योगेश ने 18 दिसम्बर को अपने रिश्तेदार दो अन्य युवकों के साथ मिलकर स्कूल से आती संजली पर पैट्रोल डालकर आग लगा दी थी । दो आरोपी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिये हैं । पुलिस ने व्हाटसप चैटिंग सहित कई अन्य सबूतों के आधार पर मामले का खुलासा किया । हालांकि संजली के परिवार ने इस खुलासे पर संन्देह जताया है । मामले की सघन विवेचना के लिय एसआईटी का गठन किया गया है ।कानून व्यवस्था को चुनौती देती यह बेहद खौंॅफनाक वारदात थी जिसने बेटियों की सुरक्षा को लेकर हर किसी को भयभीत कर दिया था । इसके विरोध में उत्तर प्रदेश के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी प्रदर्शन हुये। इनमें हर वर्ग और समाज के लोगों ने बेटी को जिंदा जलाने वाले आरोपियों को जल्द से जल्द पकड़कर सजा देने की जोरदार मांग की थी। इस मसले पर जहाँ लोग कमजोर कानून व्यवस्था और अपराधियों में सजा का भय खत्म होने को लेकर चिंतित थे तथा मृतक संजली के साथ खड़े थे वहीं अब मामले में खुलासे के बाद यह चिंता कई तरह की टिप्पणियों में खो गयी है । क्योंकि खुलासे में परिवार के ही लोग दोषी पाये गये हैं । घटना की शुरूआत में समाज के एक वर्ग के कुछ लोग दूसरे वर्ग के अत्याचारों को ऐसी घटनाओं से जोड़ रहे थे । खुलासे के बाद अब वही निशाने पर हैं । इन टिप्पणियों की बजह वह सोच और राजनीतिक चाल है जो हमारे समाज में गहरे पैठ बना गयी हैं । इसके चलते किसी भी घटना में असल मुद्दों पर चर्चा और उसका समाधान करने के बजाये इधर-उधर की बातें कर मामले को पहले हल्का और बाद में खत्म कर दिया जाता है । अपराधियों के प्रति लोगों का गुस्सा नित नई कहानियों और विभिन्न आरोप-प्रत्यारोपों में कमजोर पड़ जाता है । और समाज की समस्या वहीं की वहीं बनी रहती है। संजली हत्याकाण्ड में कुछ राजनैतिक एवं जातीय संगठनों ने जातिगत आधार पर अन्याय का विरोध कर न्याय की मॉंग उठायी । यहीं से बात फैलायी गयी कि संजली एससी-एसटी यानि दलित समाज की बेटी थी । उसके हत्यारों पर सरकार कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर रही है, ना ही पुलिस इसे गंभीरता से ले रही है । शोशल मीडिया पर संजली बेटी को इंसाफ दो के पोस्टर थे तो उनमें ही कुछ लोग ‘दलित बेटी’ जोड़ रहे थे । इनमें विपक्षी पार्टियों की ओर से की गयी बयानबाजी भी शामिल थी । इनके बीच सवर्ण मानसिकता, सरकार और कवरेज को लेकर मीडिया, चैनलों पर भी तंज कसते ‘मीम’ फेसबुक पर थे । जबकि मीडिया लगातार इस मामले में प्रदेश सरकार को घेर रहा था ।यह नया चलन नहीं है, न ही केवल किसी वर्ग विशेष में है । यह केवल स्वार्थ के लिये समाज को बांटने की राजनीति का एक औजार भर है । संजली एससी-एसटी समाज से थी इसलिये पोस्टर में लिखा गया कि ‘अगर यह बेटी किसी सवर्ण जाति से होती तो सभी नेताओं की भीड़ लग जाती, सभी मीडिया चैनलों पर इसकी खबर होती, जल्द खुलासा होता।’ दूसरी ओर संजली अगर सवर्ण समाज से होती तो लिखा जाता कि ‘यह दलित नहीं है, नहीं तो इस जुल्म की खबर सभी मीडिया चैनल दिखाते, सरकार के मंत्री मिलने आते ।’ अधिकतर मामलों में यह आरोप झूठे निकलते हैं । यह आज की वर्चुअल आवाज है जो शोशल मंच से शुरू होकर जातिगत राजनीति को उसकी खुराक देती है । धरातल पर ऐसे अपराधों में आम जनता का गुस्सा अन्याय और अत्याचार को लेकर होता है, न कि किसी जाति या वर्ग से प्रेरित होकर । हाईवे किनारे 70 प्रतिशत से ज्यादा जली संजली को अपना शरीर ढकने की कोशिश करते वीडियो को जिसने भी देखा उसका खून खौल उठा । सरेराह चलते एक बेटी पर पैट्रोल डालकर आग लगा देने वाले वहशियों को फांसी की सजा की माँग जिसने भी उठायी उसने उसकी जाति नहीं देखी । जलती हुई संजली में हर माँ-बाप को अपनी बेटी की झलक दिखायी दी । क्योंकि इसी समाज में उनकी बेटी भी बड़ी हो रही है । अगर कानून का डर नहीं रहा तो उनकी बेटी के साथ भी कल कोई दूसरे दरिन्दे ऐसी घटना कर सकते हैं । जनता के आक्रोश के पीछे असली वजह यही होनी चाहिये थी और यही थी भी । एक बुजुर्ग का कहना है कि क्या फर्क पड़ता है कि बेटी किस जाति की थी और उसके हत्यारे उसके परिवार के थे या बाहर के । बेटी जलाकर मारी गयी थी और उसके दोषियों को ढूंढकर सख्त से सख्त सजा देने की जरूरत थी । वह पूछते हैं कि ‘अगर हत्यारे उसके पारिवारिक भाई हैं तब अपनी बहन को जलाकर मार देना कम गुनाह हो जायेगा क्या ?’ इसके लिये संजली से सवेंदनाये कम क्यों हो जायंगी ? कई संगठन इसके विरोध में आवाज उठा रहे थे जिनमें कुछ अपनी राजनीति को लेकर भी मैदान में थे । वहीं से लोगों को बताया गया कि ‘एक दलित की बेटी को जिंदा जला दिया गया’ । प्रमुख समाचार वेबसाईट्स और अखबारों में भी ‘दलित छात्रा’ शब्द लिखा गया । जबकि न्यायालय के एक हालियाँ आदेश में मीडिया से जरूरत होने पर दलित की जगह ‘एससी-एसटी’ समाज लिखने की अपेक्षा की गयी है । इससे उलट मामले के खुलासे तक की रिर्पोटिंग में ‘दलित संजली’ शब्द का प्रयोग किया गया । इससे भी लोगों की भावनाओं का बंटवारा किया गया । अगर ‘दलित संजली’ की जगह ‘बेटी संजली’ लिखा जाता तो यह सम्पूर्ण समाज को जोड़ने वाला शब्द होता । सवाल है कि पीड़ित को न्याय पाने के लिये जाति बताने की जरूरत क्यों पड़ती है ? पीड़ित किसी भी वर्ग से हो उसे न्याय मिलना ही चाहिये । आरोपी किसी भी वर्ग से हो, अपना-पराया हो या अमीर-गरीब, उसे सजा होनी ही चाहिये । यही रामराज्य का कानून है । लेकिन आज ऐसा नही है । ऐसी घटनाओं में राजनीतिक लोगों और संगठनों का आगे आना और आवाज उठाना बुरा नहीं है बल्कि जरूरी है । लेकिन जातिगत आधार पर लोगों की भावनाओं को बांटना और अपने पक्ष में मोड़कर समाज में बंट जाना सही नही है । लोगों को जातियों में बॉंटा जा सकता है लेकिन रिश्तों को नहीं । माँ, बेटी, बुजर्ग, बच्चां के लिये सवेंदनायें जाति देखकर जिंदा नहीं होती, इन पर जुल्म देखकर व्यक्ति के अंदर का इंसान क्राधित होता है ।यह कड़वी सच्चाई है कि समाज में एससी-एसटी वर्ग अभी भी अपने सम्मान और समानता की लड़ाई लड़ रहा है । ग्रामीण परिवेश में इस वर्ग के प्रति अपराधों में खास कमी नहीं आयी है । लेकिन प्रत्येक घटना में स्वंय को हीन बनाकर जातिगत आधार पर न्याय मॉगने की प्रवृति पर भी लगाम लगनी चाहिये । दबंग और अत्याचारियों में किसी भी जाति और समाज के लोग हो सकते हैं, उनकी जाति केवल एक है कि वह अपराधी है । अगर अत्याचार हुआ है तो न्याय माँगना सभी का सवैंधानिक हक है । सविंधान में मजबूर, मजलूमो के लिये सबसे ज्यादा ‘हक’ दिया गया है । इसके लिये सवर्ण समाज भी अपना बड़ा हिस्सा आरक्षण के रूप में छोड़ता है । ऐसी कितनी ही घटनाओं में सभी समाज के लोग बिना भेद के पीड़ित के पक्ष में खड़े नजर आते हैं । ऐसे में किन्ही राजनैतिक मंसाओं को पूर्ण करती एक-दूसरे वर्ग विरोधी टिप्पणियों से लोगों की सवेंदनायें आहत होती हैं । इससे अपराधियों को सजा से पहले राहत मिल जाती है । संजली हत्याकाण्ड के समय ही एक दूसरी घटना उत्तराखण्ड में घटित हुयी । वहाँ पर भी कुछ युवकों ने एक छात्रा पर पैट्रोल डालकर जिंदा जला दिया, जिससे उसकी मौत हो गयी । यह घटनाऐं आज के युवाओं में कानून के डर का कम होता प्रतिशत दिखाती हैं । यह कानून का डर ही है जो व्यक्ति को अपराध करने से रोकता है । यह डर तब बनता है जब अपराधियों को सजा मिलती है । यह अपराधी बड़े हैं अगर वह पीड़ित के परिवार में ही हैं । इनका पारिवारिक होना इनकी सजा को कम नहीं करता, न ही पीड़िता के प्रति सवेंदनाओं को खत्म करता है । बल्कि इनसे और ज्यादा सख्ती से निबटने की आवश्यकता है । आज जरूरत है कि देश में कानून का राज कायम हो, अपराधियों में पुलिस का डर हो । बेटियों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं । उनकी सुरक्षा के लिये हम सभी को बिना एक दूसरे में भेद किये एक साथ उठ खड़ा होना होगा । ताकि फिर कोई संजली जिंदा न जला दी जाये । -जगदीश वर्मा ‘समन्दर’