कला के जरिए कंडोम के प्रयोग पर जोर

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हमारे समाज में सेक्स को वर्जित माना जाता है और शारारिक जरुरतों की अवहेलना की जाती है। दरअसल जीवन को संपूर्णता में जीने की कोशिश कोई नहीं करना चाहता। यौन कार्यकलापों को अश्‍लीलता की श्रेणी में रखा जाता है। इसका मूल कारण है हमारी सभ्यता और संस्कृति, जो हमें उन्मुक्त एवं स्वछंद होने से रोकती है। इस पूरे कवायद में हम इतने शालीन हो जाते हैं कि कंडोम और अन्यान्य जरुरी ऐतिहातों को बरतना ही भूल जाते हैं। आज सेक्स से जुड़ी समस्याओं पर बात करने के लिए कोई तैयार नहीं है। इस संबध में सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदम भी नाकाफी हैं।

इसी अधूरे काम को करने का बीड़ा उठाया है बिहार की कुछ ग्रामीण महिला कलाकारों ने। ऐसी ही एक महिला कलाकार है यासमीन, जो उत्तरी बिहार के एक छोटे से गाँव की रहने वाली है।

न तो वह शिक्षित है और न ही किसी नामचीन घराने से संबंध रखती है। फिर भी पारम्परिक खतवा कला में वह पारंगत है। अभी हाल ही में कोलकत्ता में उसकी कलाकृतियों की पर्दषनी गैर सरकारी संगठन ”जुबान” की मदद से लगायी गई थी। जिसका शीर्षक था ”यूज कंडोम”।

शीर्षक आपको चौंकाने वाला लग सकता है, पर यासमीन की प्रदर्शनी में प्रदर्शित कलाकृतियों में गर्भ निरोधक के प्रयोग तथा उसके फायदों को विभिन्न प्रतीकों और प्रतिबिम्बों के माध्यम से बहुत ही खूबसूरत तरीके से उकेरा गया था।

यासमीन अपना काम सिल्क के कपड़ों पर एपलिक की मदद से करती है। उसने इन कपड़ों पर पुरुष और नारी को, हाथों में गर्भ निरोधक पकड़े हुए दर्शाया है, जो इस बात का प्रतीक है कि गर्भ निरोधक का प्रयोग हमारे लिए कितना जरुरी है। अपने दूसरे कोलोज में यासमीन ने गर्भ निरोधक को जीवन रक्षक रक्त के रुप में दिखाया है।

यासमीन की चिंता की हद बहुत ही व्यापक है। वह अपनी कला के माध्यम से कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं पर घरों में हो रहे घरेलू हिंसा तथा गा्रमीण महिलाओं के पिछड़ेपन पर भी प्रकाश डालती है।

मधुबनी की पुष्पा कुमारी भी यासमीन के नक्‍शे-कदम पर चल रही है। उसने भी मिथिला चित्रकला में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है और न ही स्कूली शिक्षा प्राप्त की है। बावजूद इसके वह मिथिला चित्रकला में दक्ष है। उसने अपनी दादी से इस कला को सिखा है।

पुष्पा कुमारी के विषय मुख्यत: शराबी पति और दहेज समस्या से जुड़े हुए होते हैं, लेकिन इसके अलावा वह गाँवों में गर्भपात करवाने वाली दाईयों और झोलाछाप डॉक्टरों को भी अपना सबजेक्ट बनाती है।

मिथिला चित्रकला की एक अन्य कलाकार शिवा कश्‍यप ने तो दस हाथों वाली माँ दुर्गा की परिभाषा ही बदल दी है। वह अपनी कलाकृति में माँ दुर्गा के दस हाथों को महिलाओं की जिम्मेवारी और लाचारी का प्रतीक मानती है। वह माँ दुर्गा के हाथों में शस्त्र की जगह बाल्टी, झाड़ू इत्यादि दिखाती है। अपने इन बिम्बों से वह कहना चाहती है कि माँ दुर्गा शक्ति की जगह दासी की प्रतीक हैं।

आजकल मिथिला चित्रकला की तरह सुजानी कला भी धीरे-धीरे देश में अपनी पहचान बना रही है। इस कला से जुड़ी हुई उत्तरी बिहार के ग्रामीण अंचल की रहने वाली कलावती देवी का केंद्रीय विषय एड्स है। अपनी कलाकृतियों के द्वारा वह एड्स से जुड़ी हुई भा्रंतियों एवं उसके रोकथाम के संबंध में जागरुकता फैलाने का काम कर रही है। दुपहिए वाहन ने किस तरह से गाँवों में क्रांति लाने का काम किया है। यह भी कलावती देवी की कला का हिस्सा बन चुका है।

सच कहा जाये तो महिला सषक्तीकरण के असली प्रतीक ये ग्रामीण महिला कलाकार ही हैं। हर तरह की सुविधाओं से वंचित होने के बाद भी उन्होंने दिखा दिया है कि हाशिए से बाहर निकल करके कैसे उड़ान भरने का गुर सीख जाता है। उन्होंने स्वंय तो समग्रता से जीवन को जिया ही है और साथ में समाज को भी समग्रता और संपूर्णता में जीने की सीख दी है।

-सतीश सिंह

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