रोजगार और लैंगिक समानता विकास की नींव है

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सुनील अमर

संसद में विश्वास मत का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री का यह बयान बहुत अहम है कि पिछले साल एक करोड़ लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है। बढ़ती बेरोजगारी के बीच यह आंकड़ा बदलते भारत की तस्वीर पेश करता है। हालांकि बेरोजगारी की बढ़ती संख्या के सामने यह आंकड़ा संतोषजनक नहीं है, परंतु उम्मीद की एक किरण जरूर है। विशेषकर महिलाओं के संबंध में आंकड़ों का यह प्रतिशत बहुत कम है। प्रश्न उठता है कि लैंगिक भेदभाव और आर्थिक असमानता दूर किए बिना क्या दुनिया को ज्यादा बेहतर और खुशहाल बनाया जा सकता है? जवाब है, नहीं। वास्तव में विकास एकांगी नहीं, समावेशी होनी चाहिए। संतुलित विकास और आर्थिक उन्नयन को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत् विकास कार्यक्रम का लक्ष्य संख्या 8 लोगों को स्थायी रोजगार और उससे उत्पन्न आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा लैंगिक बराबरी स्थापित किए जाने पर जोर देता है। इसके अनुसार प्रत्येक देश के राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ही इस तरह की बराबरी स्थापित करने के प्रयास होने चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सदस्य देशों के समक्ष एक सुविचारित और नियोजित योजना रखी है जिसके अन्तर्गत सबको रोजगार, आर्थिक समावेश, भेदभाव रहित समाज, कार्यक्षमता का निर्माण, कुशल कामगारों की उपलब्धता तथा जबरन मजदूरी या बंधुआ मजदूरी का उन्मूलन प्रमुख है।

किसी भी देश में सतत् और समावेशी आर्थिक प्रगति के लिए मजदूरों की कार्यकुशलता बढ़ाने, नौजवानों की बेरोजगारी को प्रभावशाली ढ़ंग से कम करने, आर्थिक संसाधनों तथा बैंकिंग सुविधाओं तक लोगों की पहुंच को आसान बनाने पर काम किया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ इन कार्यो के लिए सदस्य देशों को तकनीक व आर्थिक मदद उपलब्ध कराता है। दुनिया में जिस गति से आबादी का विस्तार हो रहा है, उस हिसाब से रोजगार के अवसर सृजित नहीं हो पा रहे हैं। ज्ञान-विज्ञान की इतनी प्रगति के बावजूद दुनिया की आधी आबादी आज भी मोटे तौर पर दो अमरीकी डाॅलर यानी लगभग सौ रुपये दैनिक कमा पा रही है। भारत के सन्दर्भ में बात की जाए तो यहां आज भी लोग इसके एक तिहाई पर ही, गुजर-बसर करने को अभिशप्त है। इसमें भी बुरी हालत यह है कि जो लोग काम पा भी गए हैं उन्हें यह गारन्टी नहीं है कि उसकी आमदनी से वे गरीबी से मुक्ति पा जायेंगे या वह काम उन्हें निश्चित तौर पर उपलब्ध ही रहेगा। जरुरत से कम आमदनी होने पर गरीबी, असमानता और भेदभाव की परिस्थितियां बनी रहती हैं। इसी के साथ बहुत सारे ऐसे कारक भी हैं जिसमें महिला मजदूरों को, अनुभवहीन नौजवानों को, शारीरिक रुप से कम सक्षम व्यक्तियों को या विस्थापित मजदूरों को उचित रोजगार मिलने में काफी दिक्कत होती है तथा इनके साथ भेदभाव और अनुचित व्यवहार भी किया जाता है।

वर्ष 2008 की भयानक आर्थिक मन्दी के बाद से पूरी दुनिया में रोजगार के अवसरों में चिन्ताजनक गिरावट आयी है। वर्ष 2007 तक जो प्रगति 0.9 प्रतिशत वार्षिक थी वह इसके बाद के वर्षों में गिरकर 0.1 प्रतिशत पर आ गयी है। सारी दुनिया में कामगारों की हालत यह है कि आज 45 प्रतिशत से भी कम लोग स्थायी रोजगार या पूर्णकालिक कामों में हैं और इसमें भी लगातार गिरावट आ रही है। यूएनओ का अनुमान है कि वर्ष 2019 तक 23 करोड़ लोगों का रोजगार छूट जाएगा और वर्ष 2030 तक लगभग 60 करोड़ लोग रोजगार की तलाश में होंगें। वयस्कों के मुकाबले नौजवानों की बेरोजगारी तीन गुना ज्यादा है और इनके लिए उचित अवसरों का सृजन किया जाना एक बड़ी चुनौती होगी जिसके लिए अभी से प्रयास किये जाने चाहिए। दुनिया के 76 प्रतिशत देशों में हालत यह है कि दस में से एक नौजवान न तो शिक्षा में है और न किसी तरह के रोजगार में। ऐसी हालत में अराजकता बढ़ती है।

यूएनओ के लक्ष्य संख्या आठ का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु है- सबको रोजगार। इसी एक बिन्दु के पूरा होने से बाकी के उद्देश्यों के भी पूरा होने की संभावना बनती है। जहां तक भारत की बात है, दुनिया की विशालतम आबादी वाला देश होने के कारण यहां रोजगार की समस्या भी विशाल ही है जबकि इसका दूसरा पहलू यह है कि विशाल आबादी होने के कारण यहां पर पर्याप्त संख्या में कार्यबल यानी कार्य कर सकने वाले हाथ मौजूद हैं। जरुरत इनके लिए कार्य के अवसर सृजित करने की है। कार्य करने की औसत आयु 15 से 65 वर्ष के बीच की मानी जाती है। इस आयु वर्ग के लोगों को अगर गैर-कृषि कार्यो में लगाया जाये  तो ज्यादा आमदनी होने की संभावना बनती है। ज्यादा आमदनी होने से ज्यादा बचत भी हो सकती है और ज्यादा बचत का असर जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ता है जिससे देश की विकास दर बढ़ती है।

अब यहां सवाल उठता है कि क्या भारत में अपनी नौजवान आबादी के लिए कार्य के पर्याप्त अवसर सृजित किए जा रहे हैं? आर्थिक सुधारों के शुरुआती दौर में यानी वर्ष 1999 से 2005 तक लगभग तीस लाख नये लोग प्रतिवर्ष काम मांगने वालों की भीड़ में शामिल हो रहे थे लेकिन वर्ष 2012 के बाद की रिपोर्ट के अनुसार अभी यह संख्या घटकर लगभग 20 लाख प्रतिवर्ष हो गयी है। मतलब पहले से जो लोग बेरोजगार हैं उनमें प्रतिवर्ष 20 लाख लोग और शामिल हो रहे हैं। निश्चय ही यह बहुत चिन्ताजनक तस्वीर है। इसमें जो 10 लाख बेरोजगारों की गिरावट आयी है उसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि उनको रोजगार मिल गया है। वर्ष 2012 के बाद से पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं की संख्या प्रतिवर्ष 50 से 70 लाख के बीच बढ़ रही है और चिन्तनीय यह है कि वर्ष 2012 के बाद से रोजगार वृद्धि दर लगातार गिर रही है। पहले के मुकाबले अब ज्यादा पढ़े-लिखे युवा बेरोजगार हैं और वे खेती या भवन निर्माण जैसे वाले मेहनत-मशक्कत वाले काम में नहीं जाना चाहते। इनके लिए नौकरी या स्व-रोजगार की व्यवस्था सरकार को करनी ही होगी। यूएनओ की मंशा के अनुरुप सरकार ने इस दिशा में कौशल विकास योजना, मेक इन इन्डिया, स्टार्टअप इन्डिया, डिजिटल इन्डिया तथा स्किल इन्डिया जैसे कई कदम उठाये हैं लेकिन इनके समग्र असर का आंकलन अभी बाकी है।

यूएनओ भेदभाव रहित समाज तथा महिला सशक्तीकरण की बात करता है। जन्म से लेकर शिक्षा तथा रोजगार में महिलाओं की समान सहभागिता का लक्ष्य रखा गया है। भारतीय उपमहाद्वीप में ही भारत की हालत इस मामले में बांग्लादेश से भी काफी पीछे है। देश के कार्यबल में महिला भागीदारी की दर सिर्फ 33.1 प्रतिशत है जबकि बांग्लादेश में यह 60 प्रतिशत है। पुरुषों के मामले में भारत में यह 82.7 प्रतिशत है। ध्यान देने की बात है कि देश में करीब आधा, 48 प्रतिशत, कार्यबल सिर्फ कृषि क्षेत्र में लगा हुआ है और कृषि की दयनीय हालत किसी से भी छिपी नहीं है। सेवा क्षेत्र में देश का लगभग 26.25 प्रतिशत कार्यबल लगा है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट कहती है कि देश में कार्यकारी महिलाओं का 80 प्रतिशत कृषि कार्यो में समाहित है। जाहिर है कि उनके लिए और बेहतर कार्य अवसर उपलब्ध नहीं हैं। (चरखा फीचर्स)

 

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