महिला विरोधी सामाजिक कुप्रथा का अंत

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निर्मल रानी
देश की सर्वाेच्च अदालत ने पिछले दिनों मुस्लिम पंथ से जुड़े एक वर्ग में प्रचलित तिहरे तलाक से पीडि़त एक महिला सायरा बानो द्वारा अपने तलाक के विरुद्ध दायर की गई याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए इस परंपरा को असंवैधानिक करार दे दिया। चूंकि यह विषय धर्म विशेष से जुड़ा हुआ माना जा रहा था इसलिए पहली बार देश के पांच अलग-अलग धर्मों से संबंध रखने वाले न्यायाधीशों की एक पांच सदस्यीय उच्चस्तरीय संवैधानिक पीठ को इस विषय पर फैसला सुनाने की जि़म्मेदारी सौंपी गई। इस पांच सदस्यीय पीठ में जस्टिस जगदीश सिंह खेहर सिख समुदाय के हैं तो जस्टिस कुरियन जोसेफ का संबंध क्रिश्चियन समुदाय से है। रोहिंगटन फाली नारीमन पारसी समुदाय के सदस्य हैं तो जस्टिस उदय उमेश ललित का संबंध हिंदू धर्म से है। जबकि जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं। शादी,निकाह तथा इस प्रकार के वैवाहिक गठबंधन एवं परिस्थितिवश पति-पत्नी के मध्य संबंध विच्छेद,अलगाव या तलाक लगभग सभी धर्मों व समुदायों में प्रचलित व्यवस्थाएं हैं। ज़ाहिर है प्रत्येक धर्म व समुदाय में इनका पालन करने के तरीके ज़रूर अलग-अलग हैं। इस्लाम में जहां शादी के समय निकाह पढ़ाया जाता है और निकाह पढ़ाते समय लडक़े व लडक़ी दोनों ही पक्षों की ओर से दो अलग-अलग ज्ञानवान धर्मगुरु मौजूद रहते हैं तथा वही लोग निकाह पढ़ाने की जि़म्मेदारी निभाते हैं। निकाह के समय गवाहों की दस्तखत भी कराए जाते हंै। परंतु इस्लाम धर्म में ही जहां 73 अलग-अलग वर्ग बताए जाते हैं इन्हीं में हनफी वर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसमें  किसी पति द्वारा अपनी पत्नी को अलग-अलग समय में एक-एक बार कर,तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने से पति-पत्नी के मध्य तलाक हुआ मान लिया जाता है।
हालांकि हनफी समुदाय के धर्मगुरु भी इस परंपरा को इस कारण से उचित नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार हनफी दस्तूर में भी एक ही बार में या एक ही क्षण व समय में तलाक-तलाक-तलाक बोला जाना तलाक की वास्तविक नीतियों के विरुद्ध है। इन धर्मगुरुओं के अनुसार तीन अलग-अलग समय व दिनों में एक-एक बार करके तीन बार तलाक बोले जाने पर ही तलाक समझा जाना चाहिए। परंतु देश में अत्यंत मकबूल हो चुकी िफल्म निकाह में जिस प्रकार तलाक का चित्रण किया गया और एक ही झटके में तीन बार तलाक-तलाक-तलाक बोलकर तलाक दिए जाने की घटना को बड़े ही नाटकीय ढंग से िफल्माया गया निश्चित रूप से इससे मुस्लिम समाज के बड़े परंतु अनपढ़ वर्ग में यही संदेश गया कि संभवत: इस्लाम धर्म में तलाक दिए जाने का यही सही तरीका है।
जिस प्रकार निकाह िफल्म में तीन बार एक ही समय में तलाक-तलाक-तलाक बोलकर तलाक दिए जाने की घटना को नाटकीय तरीके से िफल्माया गया उसे देखकर निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति की नज़रों में तलाक देने का यह तरीका एक अन्यायपूर्ण,भौंडा तथा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हनन जैसा मामला साफतौर पर नज़र आया। इसमें भी कोई शक नहीं कि जब-जब इस विषय पर इस्लाम धर्म के अनुयाईयों के मध्य बहस छिड़ी है तब-तब अधिकांश मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा इस प्रथा का विरोध किया गया है। अधिकांश मुस्लिम धर्मगुरु इस बात से भी सहमत हैं कि एक साथ तीन तलाक देना न तो इस्लामी व्यवस्था का हिस्सा है न ही इसका जि़क्र कुरान शरीफ या शरिया में कहीं मिलता है। मुस्लिम अधिकारों तथा निजी मुस्लिम कानूनों का संरक्षण करने वाली संस्था मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी इस व्यवस्था को कुरान व शरीया से जोडऩे के बजाए इसे रीति तथा परंपरा बता चुकी है। परंतु इसके बावजूद यह बात भी पूरी तरह सही है कि सैकड़ों वर्ष पुरानी हो चुकी इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए न तो पर्सनल लॅा बोर्ड ने ही अब तक न कोई ठोस कदम उठाया न ही मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इस महिला विरोधी प्रथा को समाप्त करवाने के लिए हनफी समुदाय के धर्मगुरुओं को इसके विरुद्ध राज़ी किया। परिणामस्वरूप अनेक तलाक पाने वाली मुस्लिम महिलाएं देश के हनफी समुदाय तथा हनफी शिक्षाओं व धर्म नीतियों पर अमल करने वाले मुस्लिम मर्दों के गुस्से व कहर का शिकार होती रहीं।
इस प्रकार की अनेक पीडि़त महिलाओं का यह भी आरोप है कि उसके पति ने उससे दहेज अथवा मोटी रकम की मांग की जिसे महिला के मायके वाले पूरी नहीं कर सके। इस बात से गुस्सा होकर उसके पति ने उसे तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक दे दिया। महिला अधिकारों के हनन की इससे भयावह मिसाल और क्या हो सकती है? इस महिला विरोधी परंपरा का विस्तार इस हद तक हो चुका था कि कोई भी हनफी मसलक का मर्द दुनिया के किसी कोने में भी बैठकर  फोन,मोबाईल,ईमेल या व्हाट्सएप जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करते हुए भी यदि अपनी पत्नी को एक ही साथ तीन बार तलाक बोल देता था तो उस महिला का तलाक हुआ मान लिया जाता था। जबकि हनफी मसलक के अतिरिक्त अन्य मुस्लिम समुदायों में धर्मगुरुओं के अनुसार जिस प्रकार निकाह पढ़ाने के लिए दो इस्लामी विद्वानों तथा गवाहों की ज़रूरत होती है ठीक उसी प्रकार तलाक के समय भी इस्लामी विद्वान तथा गवाहों का होना ज़रूरी है। इसके अलावा इस्लामी विद्वान तथा परिवार के लोग अंतिम समय तक यही कोशिश करते हैं तलाक के रूप में पति-पत्नी के संबंध विच्छेद न ही होने पाएं तो बेहतर है। परंतु यदि परिस्थितिवश दोनों ही एक-दूसरे के साथ भविष्य में और अधिक समय तक रह पाने की स्थिति में नहीं हैं और दोनों पक्षों में सुलह-सफाई की संभावना बाकी नहीं बची है तो दोनों की सहमति से तलाक ही एक ऐसा रास्ता बचता है जिसपर अमल करके यह दोनों अपने जीवन की अलग-अलग नई राह अिख्तयार कर सकते हैं।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला स्वागत योग्य है। परंतु यदि सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं के अधिकारों के हनन को लेकर इतनी सक्रियता दिखाई है तथा केंद्र सरकार ने भी इस विषय में पूरी दिलचस्पी ली है और कानून बनाने के लिए 6 माह का समय दिया है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कहीं इस संबंध में बनने वाला कानून भी दहेज विरोधी कानून जैसा न साबित हो। दरअसल तलाक,दहेज प्रथा,महिलाओं को अशिक्षित रखने की परंपरा,हिजाब प्रथा,बाल विवाह,महिला यौन उत्पीडऩ,कन्या भ्रुण हत्या जैसे अनेक विषय हैं जिनपर सभी धर्मों के धर्माचार्यों को अपने-अपने समुदाय में जागरूकता अभियान चलाकर इन कुप्रथाओं को समाप्त करना चाहिए  तथा इनके विरुद्ध सामाजिक जागरूकता लानी चाहिए। यदि धर्माचार्य स्वयं सामाजिक जागरूकता के ऐसे कदम समय रहते उठा लिया करें तो हमारे देश की अदालतों को ऐसे विषयों में दखलअंदाज़ी करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी और अदालतें अपना बहुमूल्य समय दूसरे ज़रूरी कामों में लगाया करेंगी।  इसके अतिरिक्त किसी भी धर्म विशेष के लोगों को सरकार अथवा अदालतों की नीयत पर किसी प्रकार का संदेह करने का कोई अवसर भी नहीं मिल सकेगा।

 

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