तनाव का कारण हैं अन्तहीन महत्वाकांक्षाएं

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 -ः ललित गर्गः-

आंकड़े बताते हैं कि करीब 70 फीसदी लोग अपनी मौजूदा नौकरी या काम से संतुष्ट नहीं हैं और करीब 53 फीसदी लोग किसी भी रूप में खुश नहीं हैं। यह एक चिंताजनक बात है। जब हम दिल से प्रसन्न नहीं होते तो हमारे अंदर से आगे बढ़ने की चाह खत्म होने लगती है और फिर धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगता है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना देता है। बहाने बनाने वाले, अपनी बेहतरी के मौके गंवा देते हैं। और हम बहाने इसलिए बनाते हैं, क्योंकि हार से डरते हैं। दूसरे क्या सोचेंगे, इसी में अटके रहते हैं। नतीजा, हम आसान लक्ष्य चुनते हैं और कुछ नया नहीं करते। कोच श्रीधर लक्ष्मण कहते हैं, ‘चुनौतीपूर्ण काम करना खुद पर हमारा विश्वास बढ़ाता है। नए अवसरों तक हमारी पहुंच बढ़ाता है।’
लेकिन हर मनुष्य अतृृप्त, असंतुष्ट एवं दुखी है, क्योंकि वह अन्तहीन तृष्णाओं एवं महत्वाकांक्षाओं से घिरा है। मनुष्य का स्वभाव है वह कहीं तृप्त नहीं होता। हर सुख की चाह फिर एक नई चाह पैदा कर देती है। पाने की लालसा कहीं पूर्ण विराम नहीं देती। शरीर की जरूरत कितनी है? पाव, दो पाव, तीन पाव या ज्यादा से ज्यादा कोई सेर भर खा लेता होगा। किन्तु मन की तृष्णा तो ऐसी है कि पूरा मेरू पर्वत खा लेने के बाद भी तृप्ति नहीं होती। आज के युग में अतृप्ति एक बीमारी बन गयी है। यह लगातार बढ़ती ही जा रही है। बिना पेंदे का पात्र, जिसमें डालते जाओ, कभी भरेगा नहीं।
क्या जो जैसे चल रहा है उसी बहाव में बहते चले जाएं या खुद को प्रसन्न रखने के लिए कुछ कदम उठाए जाएं? देखिए, बहुत सरल सी बात है कि ‘मुझे परवाह नहीं’, कहकर आप वास्तविकता को नकार सकते हैं। लेकिन उसे सुधारने के लिए कुछ काम करना ही पड़ेगा। मान लीजिए, आप अपनी नौकरी से संतुष्ट नहीं हैं और किसी ऐसे चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं, जो आपको आपके सपनों का जीवन दे देगा, संतुष्टि दे देगा। यहां आपको समझने की जरूरत है कि कल्पना की उड़ान साकार करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। मतलब यह है कि आपके पास ऐसे उद्देश्य एवं सकारात्मक नजरिया होना चाहिये, जिसे आप प्रसन्नता से पूरा करें, ताकि जीवन सार्थक हो सके। लेकिन सबसे पहले उन उद्देश्यों को ढूंढ़ना जरूरी है, वैसी सकारात्मक सोच विकसित करनी जरूरी है। ताकि अपनी अंतहीन महत्वाकांक्षाओं को संतुलित आकार दे सके।  
तृप्ति कहीं नहीं है। देश के नम्बर एक औद्योगिक घरानों में गिने जाने वाले अडानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला, अब सब्जी-भाजी बेच रहे हैं। बड़े शहरों में इनके डिपार्टमेंटल स्टोर हैं। जिनमें तेल, लूण और रोज के काम में आने वाले सारी चीजें शामिल हैं। छोटे दुकानदार की रोजी-रोटी तो अब वे लोग हथिया रहे हैं। तृप्ति कैसे मिलेगी, जब इतने धनाढ्य एवं दुनिया के सर्वोपरि अमीरजादों को तृप्ति नहीं मिल रही है तो आम आदमी का कहना ही क्या? प्रश्न है तृप्ति कैसे होगी?
एक कथानक है कि जंगल के काष्ठ को जलाकर कोयला बनाने वाले मजदूर को सोते समय स्वप्न में प्यास लगी। श्रमिक जो जलती भट्ठी के सामने काम करते हैं, उन्हें बार-बार पानी पीना पड़ता है। श्रमिक सपना देख रहा है कि पानी पास में है नहीं और प्यास से कंठ सूखा जा रहा है। आखिर स्वप्न में ही उसने पास के पोखर का सारा पानी पी लिया, प्यास फिर भी नहीं मिटी। उसके बाद उसने नदी का सारा पानी पी लिया, फिर भी अतृप्त रहा। कल्पनालोक में ही वह सागर के किनारे पहुंच गया और पूरा समुद्र पी लिया, लेकिन प्यास तो अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। आखिर वह लौटकर कुंए के पास आता है, लेकिन पास में न तो रस्सी है, न बाल्टी। पास में कुछ पूले पड़े हैं। उन्हीं की रस्सी बनाकर पूले को कुएं में लटकाता है और ऊपर खींचकर उस पूले से टपक रहे बूंद-बूंद पानी से अपनी प्यास बुझाने का प्रयास करता है। विचारणीय बात है कि जो सारे तालाब, पोखर और यहां तक कि समुद्र को पीकर भी तृप्त नहीं हुआ, उसकी प्यास पानी की कुछ बूंदों से कैसे बुझेगी? जिन लोगों ने स्वर्ग का सुख भोग लिया, वे अब छोटे से मनुष्य जीवन में तृप्त हो जाएंगे, यह संभव नहीं लगता।
इस समस्या का एक ही समाधान है इच्छाओं का समीकरण। आदमी यह सोच ले कि शांति, समाधि, संयम ही जीवन की सार्थकता है तो यह चिन्तन पुष्ट बन जायेगा कि ‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता।’ हर योग्य पदार्थ की शुरूआत सुखद है पर परिणाम दुःखद। इसलिये तृप्ति एवं संतोष तभी उतरेगा जब हम कुछ त्यागना शुरू करेंगे। त्याग ही योग है। पदार्थ की ओर जाने वाला भोगी है, इसलिए उसे मिलेगी प्यास। आत्मा और चेतना की ओर जाने वाला योगी है, उसे मिलेगी तृप्ति। गीता के आलोक में हम इस अन्तर को अच्छी तरह से देख और समझ लें। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में निहित है।
ज्यादातर समय हम मुखौटा ओढ़े रहते हैं। जैसे भीतर होते हैं, वैसे ही बाहर बने रहने से बचते हैं। डरते हैं, खुद को छिपाए रहते हैं। आप क्या चाहते हैं और क्या हैं, इसे सम्मान देना सीखें। अपनी जिंदगी जिएं। अफ्रीकी-अमेरिकी लेखिका माया एंजिलो कहती हैं, ‘साहस सबसे जरूरी गुण है। इसके साथ के बिना किसी भी अन्य गुण को जीवन में लाया नहीं जा सकता।’ हम सब साधारण इंसान हैं और ऐसा कतई जरूरी नहीं कि हम हर उद्देश्य को बिना किसी बाधा के पूरा कर ही लें। बेशक, उतार-चढ़ाव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन फिर भी एक साहस एवं संतुलन जरूर होना चाहिए जो आपको हमेशा आगे बढ़ने की दौड़ में भटकाव न दें। सीधे-सीधे आसान रास्तों पर चलते हुए भी कोई भटकता रह जाता है। कुछ भटकते हुए भी मंजिल की ओर ही कदम बढ़ा रहे होते हैं। दरअसल, जब भीतर और बाहर का मन एकरूप होता है तो भटकना बेचैन नहीं करता। भरोसे और भीतर की ऊर्जा से जुड़े कदम आप ही राह तलाश लेते हैं। ओशो कहते हैं, ‘भटकता वही है, जो अपने भीतर की यात्रा करने से डरता है।’
जब आप सड़क पर गाड़ी चलाते हैं, तो हमेशा सर्तक रहते हैं। क्योंकि आप जानते हैं कि दुघर्टना एक अवांछनीय स्थिति है, जिससे आप किसी भी हालत में बचने की कोशिश करते हैं। यही बात जीवन पर भी लागू होती है। जब अपने उद्देश्य के प्रति हमारा ध्यान केंद्रित होता है, तो हम किसी भी प्रकार के उतार-चढ़ाव से घबराते नहीं हैं और न ही लक्ष्य से भटकते हैं। इसका सबसे आसान तरीका है कि अपने अंदर नई-नई चीजों को जानने की जिज्ञासा पैदा करें। यही जिज्ञासा मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है और क्या पता ऐसा करने से आपको भी अपने जीवन का उद्देश्य मिल जाए। अमेरिकी ईसाई नेता बिली ग्राहम कहते हैं, ‘जिंदगी इसी से बनी है-गलतियां करें व सीखें। इंतजार करें व आगे बढ़ें। धैर्य रखें और दृढ़ रहें।’ ये सब बदलाव के ही चरण हैं। आप नई-नई चीजों को खोजते हैं और उन्हीं में से आपको कुछ रोमांचकारी मिल जाता है, जो आपके जीवन का उद्देश्य बन जाता है। दरअसल, बदलाव से ही जीवन के उद्देश्य तय हो सकते हैं।

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