दलितों के दुश्मन दोस्त / शंकर शरण

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ऐतिहासिक रूप से ‘दलित’ एक नया अकादमिक-राजनीतिक मुहावरा है जो हिन्दुओं में अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लिए प्रयोग किया जाता है। ‘अनुसूचित’ शब्द भी अंग्रेजों की देन है। उस से पहले हिन्दुओं में जातियों की सामाजिक स्थिति की कोई स्थाई श्रेणीबद्धता नहीं थी। ‘दलित’ संज्ञा का प्रयोग सर्वप्रथम स्वामी श्रद्धानन्द ने तब अछूत कहलाने वाले हिन्दुओं के लिए किया था। उन्हीं को गाँधीजी ने ‘हरिजन’ और डॉ. अंबेदकर ने ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ कहा। श्रद्धानन्द और अंबेदकर ने उन के उत्थान के लिए बहुत बडे काम भी किए। लेकिन उन के तमाम लेखन में कहीं एक शब्द नहीं मिलता कि गोमांस खाना इन जातियों की संस्कृति या पहचान है। व्यवहार में भी, आज तक कहीं ग्रामीण या शहरी इलाकों में दलितों के बीच गोमांस खाने का कोई प्रमाण नहीं है। ग्रामीण बस्तियों में दलितों के आचार, खान-पान, रीति-रिवाज वहीं रहने वाले दूसरे हिन्दुओं से मूलभूत रूप से भिन्न नहीं हैं।

इसलिए विगत 15 अप्रैल उस्मानिया विश्वविद्यालय में दलितों के ‘बीफ-इटिंग फेस्टिवल’ का समाचार कुछ हजम नहीं हुआ। कई विश्वविद्यालयों से हजार-पंद्रह सौ की संख्या में दलित छात्रों को निमंत्रित कर, समूह में बैठाकर गोमांस खिलाने का प्रस्ताव, प्रेरणा और उस के लिए वित्तीय सहयोग किन की ओर से आया? यह जानना आवश्यक है। एक दलित छात्र बी. सुदर्शन का नाम ‘आयोजकों में से एक’ के रूप में आया। मगर उस के पीछे किसी दलित संगठन का नाम नहीं था। एक दलित छात्र इतना बड़ा खर्च, प्रचार, व्यवस्था कर सके, यह असंभव है। तब वे साधनवान कौन थे, जिन्होंने यह उत्तेजक आयोजन करवाया?

यह जान सकने के बाद ही समाचार पूरा होगा, और वास्तविक स्थिति भी। उस के बिना दलितों की ‘सांस्कृतिक पहचान’, मनचाहे भोजन का ‘संवैधानिक अधिकार’ जैसे नकली, चाहे भारी लगने वाले जुमलों से कुछ पता नहीं चलता। दलित कोई विदेशी या अजूबा नहीं है, जिन्हें लोग नहीं जानते। हिन्दुओं में दलित और गैर-दलित सामूहिक रूप से एक दूसरे के साथ रहते हैं। गाँवों में उन के नियमित आपसी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सम्बन्ध हैं। अतः पहले तो गोमांस ‘उत्सव’, फिर इसे दलितों की ‘सांस्कृतिक पहचान’ बताना – यह कब से या कैसे है? इस प्रश्न का उत्तर पाना भी उतना ही जरूरी है। इसलिए भी क्योंकि यहाँ और बाहर भी कुछ गैर-हिन्दू समुदायों में ही इन दोनों कार्य की जगजाहिर परंपरा है। इसलिए पूरी संभावना है कि बीफ-इटिंग ‘फेस्टिवल’ जैसे आयोजन राजनीति-प्रेरित हैं। इन के सूत्रधार परदे के पीछे और कभी-कभी प्रत्यक्ष भी दलितों को मोहरे के रूप में इस्तेमाल कर हिन्दू धर्म व समाज को निशाना बनाते हैं।

निस्संदेह, उन सूत्रधारों के आगे एक-दो दलित चेहरे भी होते हैं। लेकिन वे उसी तरह दिखाने की चीज हैं, जैसे डॉ. अंबेदकर की तस्वीरें। जिस प्रकार अंबेदकर के विचारों से प्रेरणा नहीं ली जाती; उसी प्रकार सूत्रधारों के आगे दिखने वाले दलित भी मुखौटे मात्र हैं जो स्वयं कुछ तय नहीं करते। मंच पर दिखने वाले दलित नेता-बुद्धिजीवी तथा डॉ. अंबेदकर की तस्वीरों के पीछे वास्तविक चेहरा किन्हीं और का है। वे ऐसे लोग हैं, जो न दलित हिन्दू हैं, न दलितों के दोस्त। उन का अपना एजेंडा है, जिसे साधने के लिए वे अज्ञानी, स्वार्थी दलित नेताओं/बुद्धिजीवियों का उपयोग करते हैं। कुछ टुकड़ों के बल पर, तथा कुछ दुष्प्रचार व मगज-धुलाई के जरिए।

विदित है कि ईसाई मिशनरी जब किसी हिन्दू को धर्मांतरित करते हैं तो प्रायः उन्हें गोमांस खाने तथा भारतीय राष्ट्र से अलग निष्ठा बनाने हेतु प्रेरित करते हैं। यह तथ्य जस्टिस नियोगी आयोग (1956) की रिपोर्ट में दर्ज है, और आज भी मामूली खोज-बीन से पता चल जाता है कि असम, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ के जंगलों में धर्मांतरण कराने वाले मिशनरी क्या प्रेरणाएं देते हैं। दूसरी ओर, इस्लामी तबलीगी भी गोमांस पर जोर देते हैं। इसलिए नहीं कि इस्लाम में गोमांस खाना जरूरी हो, बल्कि इसलिए कि हिन्दू गोपूजक हैं, अतः भारत के मुसलमानों को गोमांसभक्षी बनाने पर जोर दिया जाता है। यह बात प्रसिद्ध उलेमा अली मियाँ ने भी कही है, और स्वयं डॉ. अंबेदकर ने भी। चूँकि मामला गोमांस और दलितों का है, इसलिए डॉ. अंबेदकर के ही शब्द देखना अधिक उपयुक्त होगा।

डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, “अनुचित लाभ उठाने की इस प्रवृत्ति का दूसरा प्रमाण मुसलमानों द्वारा गोहत्या के अधिकार और मस्जिदों के पास बाजे-गाजे की मनाही की माँग से मिलता है। धार्मिक उद्देश्य से गो-बलि के लिए मुस्लिम कानूनों में कोई बल नहीं दिया गया है, और जब वह मक्का और मदीना की तीर्थयात्रा पर जाता है, गो-बलि नहीं करता है। परन्तु भारत में दूसरे किसी पशु की बलि देकर वे संतुष्ट नहीं होते हैं। सभी मुस्लिम देशों में किसी मस्जिद के सामने से गाजे-बाजे के साथ बिना आपत्ति के गुजर सकते हैं। यहाँ तक कि अफगानिस्तान में भी जहाँ धर्म-निरपेक्षीकरण नहीं किया गया है, मस्जिदों के पास गाजे-बाजे पर आपत्ति नहीं होती है। परन्तु भारत में मुसलमान इस पर आपत्ति करते हैं, मात्र इसलिए कि हिन्दू इसे उचित मानते हैं।” (डॉ. भीमराव अंबेदकर, ‘संपूर्ण वाङमय’, खंड 15, भारत सरकार, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, द्वितीय संस्करण, पृ. 267)

अर्थात्, गोमांस खाने पर जोर देने की जिद हिन्दू-विरोध और अनुचित लाभ उठाने हेतु की जाती है। क्या आज के दलित नेता/बुद्धिजीवी डॉ. अंबेदकर की यह बात दुहराते हैं? या दुहराएंगे, विशेषकर उन गैर-हिन्दू ‘सहयोगियों’ के सामने, जो दलितों के हमदर्द बने फिरते हैं? जिस तरह ‘सांस्कृतिक पहचान’ और ‘संवैधानिक अधिकार’ बताते हुए गोमांस खाने का समूह आयोजन किया गया, क्या सुअरमांस के आयोजन को वही सहयोग और प्रचार मिलेगा? जबकि सुअर कुछ दलित जातियों का सचमुच भोज्य है। इस लेखक ने वर्षों स्वयं यह देखा है। क्या दलितों के वे सहयोगी किसी ‘पोर्क-इटिंग फेस्टिवल’ के आयोजन में सहयोग देंगे, जो ‘बीफ-इटिंग’ का आयोजन कराते हैं? क्या विश्वविद्यालयों के वामपंथी प्रोफेसर उसी तरह ठसक से उस का समर्थन करेंगे, जैसे गोमांस के लिए उत्साह से करते हैं? स्पष्ट है, कि ऐसे कथित दलित आयोजनों में डॉ. अंबेदकर का चित्र या किसी दलित आयोजक का नाम मात्र बाह्याडंबर हैं।

वास्तविक राजनीति उन सूत्रधारों द्वारा संचालित है, जो गोमांस खिलाने जैसे सांकेतिक कारनामों से हिन्दू-विरोधी परियोजना चला रहे हैं। वे दलितों के दोस्त नहीं, दिली दुश्मन हैं। उन का लक्ष्य है हिन्दू समाज को धीरे-धीरे तोड़कर नष्ट कर देना। इस के लिए वे अज्ञान में डूबे, स्वार्थी दलित या ब्राह्मण, किसी का भी उपयोग करते रहते है। उन्हें सभी रामविलासों, मायावतियों को अफजल, इमराना या माइकल, जूली बनाने के सिवा किसी चीज में दिलचस्पी नहीं। मिशनरी तो यह कहते भी हैं। मगर यह दलित समुदाय की कोई इच्छा नहीं, जो अपने देवी-देवताओं और सांस्कृतिक परंपराओं के साथ संतुष्ट हैं, जो मूलतः दूसरे हिन्दुओं के समान ही है।

दलित लोग मुसलमान या ईसाई बन जाएं, यह डॉ. अंबेदकर की भी इच्छा नहीं थी। उल्टे वे इसे हानिकारक समझते थे। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेते समय अंबेदकर ने विस्तार से यह बताया था। इसीलिए आज दलितों के सेमेटिक शिकारी उन्हें अंबेदकर के बदले इलैया जैसे मिशनरी-पोषित प्रचारकों के पाठ पढ़ाते हैं। क्योंकि उन का उद्देश्य दलितों को हिन्दू समाज से तोड़कर पहले कमजोर, फिर नष्ट करना है। इसीलिए वे ‘बीफ-इटिंग फेस्टिवल’ जैसी धूर्त्त तरकीबें करते हैं, जिस से दलित और गैर-दलित हिन्दुओं में झगड़ा ठने, बढ़े। उस्मानिया विश्वविद्यालय आयोजन उसी का नया उदाहरण है।

वस्तुतः सभी समाचारों में यही कोण आया भीः बीफ-इटिंग के समर्थन और विरोध, दोनों के उल्लेख में दलितों का ‘अधिकार’, गोमांस खाने की ‘परंपरा’, ‘दक्षिणपंथी हिन्दूवादी’, ‘उच्च जातियाँ’, ‘ब्राह्मणवाद’, ‘दलितों पर अत्याचार’, आदि आदि जुमले वहाँ भरे हुए हैं। देश-विदेश में यही जुमले प्रचारित करना ही सूत्रधारों का उद्देश्य था! पहले से प्रचार कर सामूहिक रूप से गोमांस खाने पर कुछ हिन्दू उत्तेजित होंगे ही, और विरोध करेंगे; और बस! पहले से बताए होने से मीडिया सामने रहेगा ही, उस के समक्ष नकली-असली आक्रोश दर्शाते हुए सदियों से दलितों पर अत्याचार, अन्याय होने की बात कहना और किसी न किसी तरह थोड़ी हिंसा करवाना या कर देना, और सब कुछ को उच्च जातियों द्वारा दलितों पर जुल्म के रूप में दुनिया भर में प्रचारित कर देना। उन्हें इस में सरलता से सफलता मिल गई।

इतना कैलकुलेटेड खेल सरलता से समझा जा सकता है। अमेरिकी अखबार ‘काउंटरपंच’ में फरजाना वरसी ने लिखा भी कि यदि उसी हैदराबाद में कोई ईसाई ग्रुप पोर्क इटिंग फेस्टिवल करे, तो क्या विरोध नहीं होगा? यानी, बीफ-इटिंग ‘फेस्टिवल’ आयोजित करने वाले जानते थे कि उस से विवाद और कटुता बढ़ेगी, और यही उन का उद्देश्य था। स्वयं दलित समुदाय यह नहीं चाह सकता। अपने ही समाज के दूसरे समूह को अकारण चिढ़ाना, खाम-खाह झगड़ा करना, एकदम बेतुकी बात है। जिसे गोमांस खाना हो, वह खाता ही है। जैसे, मणिशंकर अय्यर। तब किसी दलित को कोई क्यों रोकेगा? मगर इसे राजनीतिक स्टंट बनाना दूसरी चीज है। जो समूह दुर्बल माना जाता हो, वह वैसे भी ऐसा नहीं करेगा। फिर इसलिए भी, कि दलित समुदाय की वास्तविक समस्याओं, भावनाओं, परंपराओं और इच्छाओं से गोमांस का दूर-दूर से भी कोई संबंध नहीं। इसलिए मामूली छान-बीन स्पष्ट कर देगी कि वास्तविक सूत्रधार कोई और थे।

बीफ-इटिंग के बदले यदि कोई दलित छात्र नायारण गुरू, डॉ. अंबेदकर या स्वामी श्रद्धानन्द के विचारों का अध्ययन-शिविर चलाना चाहें, तो उसे आयोजित करने हेतु कोई गैर-गिन्दू सहयोगी नहीं आएंगे। जबकि उस में सहयोग करने वाले अन्य हिन्दू हजारों मिल जाएंगे। इस से भी दलितों को अपनी स्थिति समझ लेनी चाहिए।

यदि दलित जन्मना ही माने जाएं, जो अंग्रेजों से पहले नहीं था (नीची जातियों की कोई सूची नहीं थी); तब रामायण के रचयिता वाल्मीकि और महाभारत के रचयिता व्यास, दोनों ही दलित लेखक थे। एक अहेरी, दूसरे मछुआरे थे। आधुनिक महापुरुषों में नारायण गुरू भी जन्मना ‘दलित’ थे, जिन के चरणों में सभी हिन्दू झुकते रहे। यदि दलितों को प्रेरणा लेनी हो तो वाल्मीकि से लेकर डॉ. अंबेदकर तक, भारतीय महापुरुषों, ज्ञानियों की कोई कमी नहीं है। हर हाल में, उन्हें अपने शिकारियों को दोस्त समझना बंद करना चाहिए।

14 COMMENTS

  1. अपनी बात को आगे बढाते हुए मैं प्रवक्ता सम्पादक द्वारा उद्धृत,पंडित,हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा दी हुई हिन्दू की निम्न परिभाषा पेश कर रहा हूँ:हिन्दू अर्थात् भारतीय : पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी

    “मुसलमानों के आने से पहले इस देश में नाना विश्वासों और आचार-विचारों के भेद से नाना प्रकार के धर्म-मत प्रचलित थे। परन्तु जीवन के प्रति उनकी दृष्टि एक विशेष प्रकार की एकरूपता ही थी। इस एकरूपता के कारण ही नाना मतों के मानने वाले, नाना स्तरों पर खड़े हुए नाना मर्यादाओं में बंधे हुए अनेक जनवर्ग एक सामान्य नाम से पुकारे जाने लगे। यह नाम था “हिन्दू’। हिन्दू अर्थात् भारतीय। मध्ययुग में भारतीय जनसमूह दो मोटे विभागों में बंट गया हिन्दू और मुसलमान। इस विभाग का कारण जीवन के प्रति दृष्टिकोण की विभिन्नता थी।” – पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी (‘अशोक के फूल’ शीर्षक निबंध)
    अब मैं यह निष्कर्ष निकालने के लिए विवश हूँ कि हिन्दू शब्द को सनातन धर्म से जोड़ना एक तरह की गलत फहमी है.हिन्दू शब्द अरब देशों से भारत में शायद मुस्लिम सम्प्रदाय और ईसाई सम्प्रदाय के भारत में आने के पहले आया था और उस समय भारत के उस हिस्से के निवासी जो विन्ध्य पर्वत के उतर का भाग था,हिन्दू कहे जाने लगे थे.बाद में जिस सम्प्रदाय वाले आये उनका अलग अलग धर्म या मजहब होता गया और बचे हुए हुए लोग हिन्दू कहलाते रहे,पर असल में हिन्दू शब्द भारतीयता का प्रतीक है न कि सनातन धर्मावलम्बियों का?.

  2. विजय जी, आपके बताए पुस्तक को मैंने पढ़ा.इसमे लेखक ने हिन्दू धर्म और सनातन धर्म को एक माना है.भगवद गीता का जो सन्दर्भ पेश किया गया है ,वह भी इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता है,क्योंकि मेरे विचारानुसार जिस समय भगवद गीता की रचना हुई थी उस समय यह शब्द और उससे जुडा हुआ कोई धर्म था हीं नहीं.धर्म संबंधी किसी भी पौराणिक विवाद में खासकर सबसे पौराणिक विवाद जो बौद्धों और सनातनियों का था,उसमे भी मुझे नहीं लगता कि हिन्दू शव्द का इस्तेमाल हुआ है. हिन्दू शब्द सनातन का प्रयायवाची कब और कैसे बन गया यह शोध का विषय है और अभी तक मुझे इसका संतोष प्रद उत्तर कहीं से नहीं मिला,क्योंकि प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसका उल्लेख कहीं नहीं है और अगर है तो मुझे इसका ज्ञान नहीं है.अगर कोई उन ग्रंथों से कोई सन्दर्भ पेश कर सके तो मैं उसका कृतज्ञ होऊँगा.

  3. यदि श्री आर. सिंह सचमुच ‘हिन्दू’ शब्द में ही जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी रखते हों, तो उन्हें बेल्जियन विद्वान कोएनराड एल्स्ट की पुस्तक “हू इज ए हिन्दू” जरूर पढ़नी चाहिए। यह पुस्तक इस वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध हैः
    https://koenraadelst.bharatvani.org/books/wiah/index.htm

  4. मानस शास्त्र सही कहता है, कि
    ==> हीनता ग्रंथि से पीडित, इतना घोर पीडित होता है, कि, उस ग्रन्थिको छिपाने के लिए, भाँति भाँति का दिखावा और तमाशा करते रहता है।
    ==>एक हीनताग्रंथिसे पीडित को मैं जानता हूँ, जो अपने आपको इतना पीछडा समझता है, कि शराब, सिगरेट – पीकर अंग्रेज़ों की बराबरी कर के दिखाता है।
    चार गालियां अपनी ही संस्कृति को देता रहता है।
    यह सारे जोकर उसी मानस की उपज है।

  5. अनिल गुप्त जी जब लिखते हैं कि ” हिन्दू शब्द किसी मत या संप्रदाय के लिए न होकर इस भूखंड में रहने वालों के लिए प्रयोग किया गया है.अतः वास्तव में ये शब्द हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है.”उनके द्वारा निर्देशित होकर गूगल पर जाने पर भी हिन्दू शब्द का यही अर्थ मिला,तो फिर हमने इसे सनातन धर्मियों का प्रयायवाची कब और कैसे बना दिया? मैं समझता हूँ कि विद्व जन इस पर प्रकाश डालेंगे.अगर हिंदू शब्द के असली अर्थ को लिया जाए तो सिन्धु घाटी यानि विन्ध्य पर्वत के उतर के सभी निवासी चाहे वे किसी सम्प्रदाय या धर्म के हों,हिन्दू कहे जायेंगे ,पर विन्ध्य पर्वत के दक्षिण वाले सनातनी भी इस शब्द की व्याक परिभाषा के अनुसाए हिन्दू नहीं कहे जायेंगे.अगर इस क्षेत्र को और आगे बढाया जाये और सिन्धु घाटी को भारत का प्रयायवाची मान लिया जाए तो इस देश में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हुए.फिर क्यों न इस शब्द को एक धर्मावलम्बियों के बदले भारतीयता का प्रयायवाची माना जाए.

  6. दर असल भारत का तथाकथित दलित आन्दोलन ईसाई मिशनरियों और जेहादियों की गोद में फल-फूल रहा है. वह राष्ट्रद्रोही ताकतों का हथियार बन गया है. और इससे न दलितों का उद्धार होगा ना देश का. बेहतर होगा की दलित समय रहते चेत जाएँ.

  7. अनिल गुप्त जी को धन्यवाद कि आपने मेरी समस्या को समझा.आपके बताये हुए रास्ते पर जाकर मैंने गूगल में खोज किया पर उससे मेरी जिज्ञासा शांत होने के बदले और बढ़ गयी,क्योंकि हिन्दू शब्द उस धर्म के पर्यावाची रूप में नहीं मिला,जिसमे मनु द्वारा बनाए गए चार वर्ण या आज की अनगिनत जातियाँ शामिल हैं.मेरे द्वारा देखे गए कुछ लिंक आगे उद्धृत हैं:
    १.https://www.hinduwebsite.com/hinduism/h_meaning.asp
    २.https://www.shraddhananda.com/Meaning_and_Origin_Of_The_Word_Hindu.हटमल
    ३.https://www.stephen-knapp.com/about_the_name_Hindu.हतं
    इन लिंकों को देखने से दो बातों का खुलासा हुआ,
    १ प्रथम तो यह कि सच में यह शब्द संस्कृत का नहीं है.
    २.यह शब्द सिन्धु नदी के किनारे बसे हुए जन समूह के लिए सर्वमान्य शब्द है.इसका किसी भी ख़ास धर्म से कोई लेना देना नहीं है.

  8. वीरेन्द्र जैन को चार सौ साल पुराणी मस्जिद दिखाई देती है लेकिन हजारों लाल पुराने ऐतिहासिक मंदिर को ध्वस्त करने में कोई बुराई नजर नहीं आती.मैं आपके लेख और आपकी टिप्पणियाँ पढता रहा हूँ.आप जैसे व्यक्ति के मुंह से ये बात निकलना ‘जब तक विचार की राजनीति नहीं आयेगी तब तक ऐसे शगूफे छोड़े जाते रहेंगे’ शोभा नहीं देता क्योंकि विचारों की गंभीरता से आप का कभी कोई लेना देना नहीं रहा .आप तो केवल अपने आकाओं को खुश करने के लिए लिखते हैं.शंकर शरण जी के इतने शानदार लेख में भी आपको कमी ही दिखाई ही देगी.खैर यह आपकी दृष्टि का ही दोष है.पर आपको क्या कहा जय युस्फुल ईदिअत या आधुनिक जयचंद.आप खुद तय कर लीजिये या फिर दिग्विजय सिंह जी से पूछ कर बताएं.

  9. अवसरवादी, स्वार्थी तत्त्वों द्वारा, अज्ञानियों को, घोर अज्ञान की ओर ले जा कर देश में वैर भाव जगाकर अपना कौनसा उल्लू सीधा करना है?
    ||मूढा: परप्रत्ययनेय बुद्धि:||

  10. श्री आर. सिंह ने हिन्दू शब्द की उत्पत्ति के विषय में सवाल उठाया है. इस सम्बन्ध में डॉ.मुरलीधर एच. पाहुजा ने एक खोजपूर्ण लेख लिखा है “एंटिक्विटी एंड ओरिजिन ऑफ़ द टर्म हिन्दू”. ये लेख गूगल पर सर्च करने पर मिल जायेगा.इसा पूर्व छाती शताब्दी में अनेकों पर्सियन शिलालेखों में हिन्दू शब्द का उल्लेख किया गया है और जेंद अवस्ता में भी हिन्दू शब्द का प्रयोग किया गया है. रजा डेरिअस के इसा पूर्व ५१७ के शिलालेख में भी हिन्दू शब्द आया है. और इनमे हिन्दू शब्द का उल्लेख सम्मानजनक रूप से लिया गया है. और ये शब्द किसी मत या संप्रदाय के लिए न होकर इस भूखंड में रहने वालों के लिए प्रयोग किया गया है.अतः वास्तव में ये शब्द हमारी राष्ट्रीयता का द्योतक है.

  11. जिन्होंने राजीव मल्होत्रा और नीलकांतन की शोधपूर्ण पुस्तक “ब्रेकिंग इंडिया ” पढ़ी है उन्हें इस प्रकार के आयोजन करनेवालों के विषय में कोई संदेह नहीं होना चाहिए. थोड़ी और जानकारी के लिए “दलित फ्रीडोम नेटवर्क” के वेब साईट पर जाईये.यह ईसाइयों का एक विश्व व्यापी संगठन है जिन्हों ने भारत के दलितों को “सहस्रों वर्षों से चली आ रही दासता “से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया हुआ है. भारत में उनके प्रमुख सहयोगी हैं (१) कांचा इलैया जो उस्मानिया विश्व विद्यालय में प्रोफेस्सर हैं और (२) श्री उदित राज .भारतीय दलितों को मुक्ति दिलाने का सब से सरल उपाय है उन्हें ईसाई बनाना और हिन्दू धर्मं तथा भारत देश के प्रति घृणा से भर देना. यह कार्य सुनियोजित ढंग से चल रहा है पैसे की कोई कमी नहीं है. और हमारे यहाँ पैसे के बल पर कुछ भी करवाया जा सकता है.विद्वान ,पत्रकार शोधकर्ता . लेखक राजनेता ,सामाजिक कार्यकर्ता सब मिल जाते हैं

  12. “एक दलित छात्र बी. सुदर्शन का नाम ‘आयोजकों में से एक’ के रूप में आया। मगर उस के पीछे किसी दलित संगठन का नाम नहीं था। एक दलित छात्र इतना बड़ा खर्च, प्रचार, व्यवस्था कर सके, यह असंभव है। तब वे साधनवान कौन थे, जिन्होंने यह उत्तेजक आयोजन करवाया?”
    कितना अच्छा होता अगर यह लेख बिना उपरोक्त आशंका को आधार बना कर लिखा गया होता। यह तो तय है कि ये काम तथाकथित हिन्दू समाज की विसंगतियों पर चोट करने के लिए किया जा रहा हो क्योंकि हिन्दू एकता के व्यापारियों ने अभी तक जातिवाद पर प्रहार करने की जगह उससे लाभ लेना शुरू कर दिया है। कोई इन्दिरा गान्धी गरीबी हटाओ और समाजवाद का झूठा नारा उछाल कर वोट लूटती है तो कोई चार सौ साल पुरानी मस्जिद को तोड़ कर राम जन्मभूमि मन्दिर बनाने के नाम पर उत्तेजना फैलाती है तो कोई बीफ ईटिंग फेस्टीवल के नाम पर यह काम करता है। जब तक विचार की राजनीति नहीं आयेगी तब तक ऐसे शगूफे छोड़े जाते रहेंगे।

  13. शंकर शरण जी ने गोमांस उत्सव या धर्म परिवर्तन के बारे में जो विचार व्यक्त किये है ,उसके विस्तार में न जाकर मैं उनसे हिन्दू और हिंदुत्व के बारे में कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ,जिसका समुचित उत्तर नहीं मिलने के कारण अभी तक उनके बारे में मेरी जिज्ञासा बनी हुई है.
    १.मैंने प्रवक्ता में पहले भी यह प्रश्न उठाया था की जब की हमलोगों ने पढ़ा है कि चूंकि रत्नाकर ब्रह्मण वंश में जन्म लेने के बावजूद लूटपाट मार धाड़ में लगे रहते थे और शिक्षा से विमुख थे तो नारद वेश बदल कर आये और उनको ज्ञान देकर चले गए तो बाद में उनको हरिजन या अहेरी क्यों कहा गया?
    २.व्यास का जन्म मछुआरण लडकी के गर्भ से उसकी शादी के पहले हुआ था,अतः उनको मछुआरा ही कहा जाएगा.ऐसे तो उनको उनके पिता के कुल का नाम देना चाहिए था,जैसा कि उसी मछुआरन की पेट से बाद में जन्मे राजकुमारों को दिया गया.
    ३. सबसे महत्त्व पूर्ण प्रश्न जो मुझे उद्वेलित करता रहा है,वह है हिन्दू शब्द और उससे निर्मित हिन्दू धर्मं या हिंदुत्व.जहां तक मेरा ज्ञान है,किसी भी पुरातन ग्रन्थ में हिन्दू धर्म या हिंदुत्व का वर्णन नहीं है.(ऐसे मेरा ज्ञान अधूरा भी हो सकता है.विद्य जनों से मार्ग दर्शन की अपेक्षा है.) जहाँ तक मैंने पढ़ा है,हिन्दू शब्द अरबी का है और सिन्धु का अपभ्रंश है.आगे मैंने यह भी पढ़ा है कि सिन्धु नदी की घाटी में रहने वालों को हिन्दू कहा जता था.हिंदुत्व की उत्पति भी शायद वहीं से है.इस आधार पर यह हिन्दू,हिंदुत्व इत्यादि की बातें और उनकी व्यापकता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है.मुझे आशा है कि
    विद्वान लेखक और अन्य विद्वान जो इस शब्द उद्भव और विकास से परिचित हैं,इस पर अवश्य प्रकाश डालेंगे.

  14. पूरा लेख पढ़कर भी इस आयोजन को प्रत्यक्ष रूप से करने वाले बी सुदर्शन के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया और नहीं ये पता चल की उसके पीछे इतने बड़े आयोजन को कराने वाले दिमाग किनके थे. ऐसे तत्वों की पहचान करके उनको एक्सपोज करना आवश्यक है. ऐसे ही तत्वों को एक्सपोज करने वाली एक विस्तृत शोधपूर्ण पुस्तक पिछले वर्ष आई. अमेरिका के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में कार्यरत श्री राजीव मल्होत्रा और अरविन्दन नील्कंदन ने कई वर्ष की म्हणत के बाद एक विशाल पुस्तक(लगभग ६५० पृष्ठों की)लिखी जिसमे देश विदेश में सक्रीय ऐसे ताकतों का भंडाफोड़ किया है जो देश को तोड़ने के लिए दलित और द्रविड़ फोल्टलाईन्स का हव्वा खड़ा करके देश को कमजोर कर रहे हैं.ऐसे लोगों के विरुद्ध देशद्रोह का मुक़दमा चलाना चाहिए.

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