राइटर्स बिल्डिंग से तृणमूल की हो गयी सगाई

-प्रकाश चण्डालिया

तृणमूल से राइटर्स बिल्डिंग की सगाई की रस्म 2 जून 2010 को बाकायदा हो चुकी है और उनकी कुड़माई को अब कोई रोक नहीं सकता, यह तय है।

राइटर्स बिल्डिंग की मंगेतर बन चुकी ममता बनर्जी की पार्टी ने सत्ता का सेमीफाइनल जीत कर वाममोर्चा के कोफिन की आखिरी कील का इंतजाम कर दिया है। राज्य की 81 पालिकाओं के लिए हुए मतदान में परिवर्तन की सुनामी ने वामपंथियों के गढ़ में जो कहर बरपा किया है, उससे उबरना अब मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा लगता है। और यह चिन्तन इसलिए उभर रहा है, क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद से ही मुख्यमंत्री ने हुकूमत चलाने की इच्छाशक्ति खो दी थी। एक साल का समय कम नहीं होता, पर मुख्यमंत्री हार के गम से उबर नहीं पाए। यही हाल वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस का रहा। उनसे अपेक्षा थी कि सूझबूझ का परिचय देते हुए संगठन को दुरूस्त करेंगे, साथ ही प्रदेश की जनता के मन में पैठ बनाने के लिए नए सिरे से प्रयास करेंगे, पर ऐसा हुआ ही नहीं। विमान बोस या तो ममता बनर्जी पर जुबानी पत्थर बरसाने में लगे रहे, या ममता के पत्थरों की बरसात से बचने के ऊपाय ढूंढते रहे। प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा जिला होगा, जहां वामपंथ के कद्दावर नेताओं ने अपनी हार के सितमगरों से मुकाबिल होने के लिए कोई पुख्ता प्रबन्ध किए होंगे। सच कहें तो इनकी दुर्बल मन:स्थिति ही हार के लिए जिम्मेदार है। यह तथ्य किससे छिपा है कि वाममोर्चा गठबंधन के पास लोकसभा के ठीक पहले तक लगभग 50 फीसद सूबे का समर्थन था। मान भी लिया जाए कि सूबे में घूमघूमकर ममता बनर्जी ने अपने पक्ष में लहर पैदा की, तो इससे मुकाबिल होने के लिए वामपंथी नेताओं ने सियासी इंतजाम क्यों नहीं किए?

नंदीग्राम और सिंगुर जैसे मसले लोकसभा चुनाव के पहले तक वामपंथियों के पक्ष में माने जा रहे थे। कारोबारी मिजाज वाले लोग ममता बनर्जी को कभी भी गंभीरता से नहीं लेते थे। 2009 के प्रारंभ में कोलकाता के धर्मतल्ला में 26 दिनों की भूख हड़ताल से लेकर सिंगुर में लोकसभा चुनाव के ऐन पहले तक लगातार चले अनशन के दौरान ममता बनर्जी का दांव कभी भी शहरी मतदाता के गले नहीं उतरा। लोग ममता को हड़तालवादी, विनाशकारी और न जाने क्या-क्या कहने लगे थे। टाटा का नैनो प्रकल्प बंगाल से गुजरात चला गया, तब भी ममता पर ही तर्जनी उठी थी। वामपंथियों ने इस जनभावना को अपने पक्ष में रखने का कोई प्रबन्ध नहीं किया। लोकसभा चुनाव के पहले तक पूरा मीडिया ममता के खिलाफ था। लोग ममता को विकास का बनाम मानते थे। लेकिन, अकेली ममता बनर्जी ने वामपंथियों के लालगढ़ को भेदने में एक-एक पल का भरपूर इस्तेमाल किया।

पलकों में महीनों की नींद लेकर जगती रहीं ममता ने वामपंथियों को सत्ता के नशे की गहरी नींद में सुला दिया। कोलकाता के एक टीवी चैनल में बुधवार को चर्चा के दौरान मैंने इस बात को तर्क और तथ्यों के साथ उठाया तो वामपंथियों के सहोदर फारवर्ड ब्लाक के वरिष्ठ नेता, कोलकाता के मेयर और सांसद रह चुके श्यामसुंदर गुप्ता ने भी स्वीकृति में सिर हिलाया। वामपंथियों को मानना पड़ेगा कि जितना नुकसान उन्हें ममता बनर्जी ने पहुंचाया है, उतना ही नुकसान उनके कद्दावर नेताओं ने भी पहुंचाया है। पिछले एक-डेढ़ वर्षों में अलीमुद्दीन स्ट्रीट से कैडरों को समवेत होने लायक कोई ठोस कार्यक्रम नहीं दिए गए। नतीजा यह रहा कि लाल विचारधारा से कैडरों का मोह भंग होने लगा।

वामपंथियों के पास अब वक्त नहीं रह गया है। वे अगर ममता की आवाज पर ध्यान देते हुए वक्त से पहले विधानसभा चुनाव करवाते हैं तो भी नुक्सान है और तय वक्त पर 2011 में कराते हैं तो भी। 35 वर्ष की हुकूमत के बाद एक बार मोर्चा की सत्ता पर विराम लगना अवश्यंभावी प्रतीत हो रहा है। ज्योति बसु की आत्मा को इससे दुख अवश्य पहुंचेगा।

वक्त रहते वामपंथियों को बुनियादी तौर पर दो-एक कार्य अवश्य करने चाहिए। मुहम्मद सलीम जैसे सुलझे नेता या उनके कद के किसी नेता को उपमुख्यमंत्री पद का ओहदा देकर पूरे राज्य में एक संदेश फैलाना चाहिए कि अल्पसंख्यक मतदाताओं के वास्तविक पैरोकार वे ही हैं। हालांकि इससे कोई चमत्कारिक लाभ की उम्मीद बेमानी होगी, फिर भी भविष्य को ध्यान में रखते हुए ऐसा इसलिए करना चाहिए, क्योंकि सत्ता में आने के बाद ममता की बॉडी लांग्वेज बदलने पर जब अल्पसंख्यक मतदाता उनसे छिटकें तो वामपंथियों की झोली में पुन: लौट आएं। राज्य के गरीब मजदूर और किसानों के लिए जो अपेक्षित था और किया नहीं जा सका, उस पर तुरन्त कुछ कार्य अवश्य होना चाहिए। ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि अर्थमंत्री डा. असीम दासगुप्ता की पहल पर शीघ्र ही राज्य मुख्यालय पूर्ण शीतताप नियंत्रित हो जाएगा, पर गरीब किसान-मजदूर के घर निवाले का टोटा इससे दूर नहीं होने वाला।

सर्वहारा की पैरोकारी करने वाले कोलकाता में बैठे वामपंथियों से अल्पसंख्यक, बेरोजगार युवक, मजदूर, किसान आदि का मोह भंग होना सबसे बड़ा कारण है। यही नहीं, इस सवाल का जवाब तो राज्य में निवेश करने वाले बड़े कारोबारी में मांग रहे हैं कि सोमनाथ चटर्जी का उदारवादी चेहरा दिखाकर एक दशक पहले औद्योगिक विकास निगम के माध्यम से प्रतिदिन जो सैंकड़ों-हजारों करोड़ के निवेश का झांसा दिया गया था, उसमें कितना निवेश कारगर रूप में लगा और कितनों को रोजगार मिला? गरीब किसानों की जमीन आज बंजर क्यों पड़ी है? अरबों रूपए खपाकर कारोबारी क्यों रो रहे हैं? वामपंथियों के लिए अगले एक साल तक हर दिन-हर पल जोखिम भरा है। सरकार पूर्ण रूप से वेंटिलेटर पर टिका दी गयी है।

लेकिन इससे अधिक यह भी सत्य है कि ममता बनर्जी के हुकूमत में आ जाने से भी प्रदेश में चल रहा अमावसी दौर नया उजाला नहीं ला पाएगा। ममता की अपनी लड़ाकू छवि हो सकती है, पर उनकी अकड़, उनकी जिद, उनका बचपना, उनका बिदकना, उनकी कार्यशैली प्राइमरी में पढऩे वाले बच्चे की चिंतनधारा से अलग नहीं है। उनके साथ जो चेहरे हैं, और उन चेहरों के पीछे जो सच छिपा है, उन चेहरों से जो भाषा निकलती है-वह कहीं से गणतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास करने वाले के लिए सम्मानजनक नहीं है। केंद्रीय मंत्री बन चुके तृणमूल के कुछ बड़े नेताओं की भाषा से तो वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखने वाला छोटा कैडर भी सभ्य भाषा बोलता है।

जिद और अकड़ पर सूबे में हुकूमत चलाने की सोच उन्हें कभी भी पटखनी दे सकती है। आखिर वामपंथियों की अपनी नीति रही है। सांगठनिक अनुशासन रहा है, साथ चलने वाले मोर्चे की सहोदर पार्टियों के नेताओं का विरोध सहने का धैर्य है, लेकिन यह सब गुण ममता में कहीं नहीं हैं। एक दर्जन पार्टियों को 35 सालों से एक साथ लेकर हुकूमत चला पाना वामपंथियों के वश की ही बात है। बात-बात पर गठजोड़ करना और तोड़ लेना वामपंथियों के इतिहास में कहीं नहीं रहा है। हुकूमत और संगठन चलाने का उनका तरीका देश में किसी भी पार्टी से कहीं अधिक कामयाब रहा है। हार के बाद फिर से उठने में भी उन्हें अधिक समय लगेगा, ऐसा मैं नहीं मानता।

2 COMMENTS

  1. apne bahut achhi lekh likhi hai… lekin aapne CPM ke karykal me dukh or asubidhaon ka samna kiya hai… usse kahi jyada TMC ke yug milegi….
    aako ek bat pahle bata dun… ki pahle jahan kahin bhi CITU union thi waha ab TMC apna Union khada kar de rahi hai… or shramikon se pratek mah achha-khasa paisa le rahi hai…

  2. प्रकाश जी सायद ठीक रहे है. वामपंथी फिर से उठ पाएंगे या नहीं, कह नहीं सकते, किन्तु ममता जी ज्यादा समय तक चला लेंगी इसमें सभी को संदेह है.

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