अंग्रेजी मीडिया का छिछोरापन

हरिकृष्ण निगम

पश्चिम में आज अनेक देशों की सरकारें व कुछ बड़े राजनेता स्पष्ट रूप से बहुसंस्कृतिवाद या धर्म निरपेक्षता के माध्यम से सहज और स्वाभाविक पारंपरिक सहिष्णुता पर सीमाएं खींचना चाहते हैं। अरसे से चली आ रही बहुस्तरीय समाज में समरस्ता चली आ रही थी उस पर जो प्रश्न चिह्न लगाए जा रहे हैं उसके पीछे उनमें अल्पसंख्यकों की आक्रामकता, अतिरेकी विचार और कभी-कभी उभरता आतंकवाद भी है। पहले उदारवादी खुले समाज में जहां मानवाधिकार और छोटे-छोटे समूह की पहचान या उनको अपने तादात्म्य बनाने की ललक को जिस सम्मान से देखा जा रहा था वह फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क, इटली और स्पेन जैसे देशों में नदारद हो रहा है। आज खुल कर इन देशों में जारी बौध्दिक विमर्शों में बहुसंस्कृतिवाद या मुख्यधारा में न धुलमिल पाने वाले अल्पसंख्यक तत्वों के कारण अब तक की इस अनुदारवादी पुनर्दृष्टि को पुनर्परिभाषित किया जा रहा है। फ्रांस और दूसरे कुछ यूरोपीय देशों में बुर्के पर प्रतिबंध या धार्मिक चिह्नों को प्रदर्शित करने की मनाही अथवा पर्यटक स्थलों में मस्जिदों या दूसरे धर्मस्थलों को दूर ले जाने का प्रयासों को अब वहां के मीडिया में भी समर्थन दिया जाने लगा है।

जर्मन चांसलर एंजेला मॉरकल ने खुलकर कहना शुरू कर दिया है कि बहुसंस्कृतिवाद या मल्टीकल्टी की अवधारणा उनके देश में पूरी तरह असफल हो चुकी है। क्या जर्मनी फिर अपनी पूरानी कट्टरवादी संकीर्ण दृष्टि की ओर लौट रहा है? नार्दिक या काकेशियन मूल के वासियों के अलावा विदेशी मूल के इतर लोगों से विद्वेष की भावना या जिसे ”जेनोफोबिया” कहा जाता हैं वहां क्या फिर सिर उठाएगी? हाल में जर्मनी के विदेशमंत्री गिडोवेस्टरवेल भारत आए थेउन्होंने एक प्रेसवार्ता में बहुसंस्कृतिवाद को अपने तरह से परिभाषित करते हुए कहा कि इस तरह की भावना के बढ़ने का यह अर्थ नहीं है कि जर्मनी में खुले व उदार समाज को नकारा जा रहा हैं। उलटे वहां बहुसंख्यकों की समझ को भी उतना ही सम्मान करने का यत्न किया है। हर समाज यह स्वयं निर्णय लेता है कि उसको क्या स्वीकार्य है और किस सीमा तक! न्याय और मानवाधिकार की नई मान्यताओं में इस विकल्प का भी उन्हें अहसास है कि धार्मिक सह आस्तित्व की भावना का अवमूल्यन के लिए अल्पसंख्यक भी जिम्मेदार हो सकते हैं। उतना खुलकर तो नहीं पर विदेश मंत्री ने उसी बात का समर्थन किया जो जर्मन चांसलर मॉरकल कह रही है।

पर क्या ऐसा नहीं लगता है कि हमारे देश के कथित उदारवादी या जनमत बनाने का दावा करने वाले बुध्दिजीवी इस विषय पर जानबूझ कर सो रहे हैं। जर्मन चांसलर या विदेश मंत्री को विद्वेषी राजनीति चलने वाले दक्षिणपंथी या कट्टरपंथी अथवा अल्पसंख्यक विरोधी कहने का साहस किसी में नही हैऔर न ही हमारे प्रगतिशील कहलाने वाले मीडिया के कर्णधारों को यह हिम्मत है कि वे कहें कि फ्रांस या जर्मनी जैसे देशों से आए सरकारी नेताओं के उन रूझानों के कारण उनके क्रार्यक्रमों या प्रेस कांफ्रेंसों आदि का वे बहिष्कार करेंगे। उनको कुछ लोग इस बात की चुनौती भी दे रहे हैं कि वे चांसलर मॉरकल की नाजीवाद राजनीति के फिर से प्रारंभ करने के अपराध को उजागर क्यों नहीं करते? हमारी बौध्दिक असफलता का यह एक जीता जागता प्रमाण हैं। वर्षों बाद तक नरेंद्र मोदी के नाम को लेकर आज भी हहाकार करने वालों की यह चुप्पी देश के नागरिकों द्वारा विस्मयजनक मानी जा रही हैं। भारत में यदि बहुसंस्कृतिकवाद की समृध्द परंपरा जीवित है तो वह बहुसंख्यकों के प्रारंपरिक उदारवादी रूझानों के कारण है। इस बात को स्पष्ट रूप से हमारा अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा वर्ग नहीं समझ पा रहा हैं। विभिन्नता में एकता के सूत्र की समझदारी इस देश में हिंदुओं को उनकी आस्था व परंपरा में लगता है जो हमारे खून में हैं। इसके विपरित दुनियां में कहीं भी देखे तो उलटा ही दिखता है। हाल में टेक्सास के स्कूलों के बोर्ड में एक संकल्प पारित किया गया कि इस्लाम समर्थक या ईसाई विरोधी सारे पाठों को पाठ्यक्रम से तुरंत निकाला जाए। वे तो पाठयक्रमों में यह ढूंढ़ चुके हैं कि ईसाई धर्म को इस्लामी आस्था से कम पंक्तियां या पृष्ठ क्यों दिए गए हैं और इस्लामी संस्कृति के उनके अनुसार विकृत व असहिष्णुता के संदेशों पर क्यों लीपापोती हो रही है? हम भारतीयों को जान कर भी अनजान बने रहने की आदत सी पड़ गई है। मुंबई सहित देश के अनेक बड़े नगरों से दुबई जानेवालों के बच्चे भी वहां के कथित अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्कूलों में पढ़ते हैं। उनके अभिभावक या माता-पिता जानते हैं कि उनके बच्चों की अंग्रेजी में इतिहास, समाजशास्त्र और अनेक विषयों की पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में इस्लाम के अलावा चाहे ईसाई धर्म हो या हिंदू धर्म के साथ-साथ यदि वैदिक या प्राचीन भारतीय का कोई संदर्भ हो उसे ‘हाईलाइटर’ द्वारा काली या दूसरे रंग से ‘काटा’ या छिपाया जाता है और जिसका पढ़ना-पढ़ाना या पुस्तक में किसी भी प्रकार अछूता रखना मना है। यह एक कथित उदारवादी, सम्पन्न इस्लामी राज्य की व्यवस्था है जहां भारतीय दौड़ लगाते रहते हैं पर इस देश का कोई अंग्रजी समाचार पत्र यह टिप्पणी नहीं कर सकता। यह है हमारी दुविधा जहां हम स्वयं इस बात को छिपाते हैं कि उनके पर्स या निजी कागजों में भी यदि आपके आराध्य देवी-देवताओं के चित्र हो उन्हें भी जांच में मिलने पर फाड़ा जा सकता है। पर जो बात दूसरे देशों के प्रशासनतंत्र या सत्तारूढ़ दलों के नेताओं जैसे इटली के सिल्वियो बर्लुस्कोनी या फ्रांस के वैश्विक छवि वाले पूर्व राष्ट्रपति शिराक या इंगलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर या इंगलैंड व डेनमार्क के आज के प्रधानमंत्री खुल कर कह सकते हैं उन्हें यहां मात्र दोहराने में भी हमारे मीडिया को जैसे अपराध-बोध से गुजरना पड़ता है।

राजजन्मभूमि के आंदोलन से आज तक हिंदू विश्वासों को ”हिंदुत्ववालाज” या ”सिंडीकेटेड हिंदुइज्म” का माखौल उड़ाते हुए पृथक रूप से दर्शाने की अंग्रेजी मीडिया की धोखाधड़ी जग जाहिर है। हर समय यही दुष्प्रचार होता रहा है कि हिंदू संगठन बहुलतावादी, बहुस्तरीय समाज के विरोधी हैं तथा समरस्ता के स्थान पर केवल एकांगी दृष्टि वाले हैं। पर अब उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय के बाद सेक्यूलर मीडिया अपनी भड़काऊ टिप्पणियों से जो माहौल बनाना चाहता हैं उसके बावजूद भी बहुसंख्यक समाजपूर्ण शांति और वर्गों का सामंजस्य बनाए रख सका। जाति और धर्म के आधार पर कदाचित बहुसंख्यक समाज में आज एक भी शिक्षित व्यक्ति ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा जो भेदभाव में खुलकर विश्वास जताए। इसके विपरित चाहे ब्रिटिश नेशनल पार्टी हो या यूरोपीय संघ की संसद हो या फ्रांस, डेनमार्क, जर्मनी अथवा, स्पेन के सर्वोच्च स्तर पर कार्य करने वाले नेता हों या संसद सदस्य अल्पसंख्यक ों के लिए क्या शब्द प्रयुक्त कर चुके हैं इस पर आलोचना तो दूर इस विषय पर टिप्पणी करने में भी उन्हें जैसे असुविधा व संकोच हो रहा हैं। स्पष्ट है कि जिस तरह आज यूरोप में महसूस किया जा रहा हैं कि सेक्यूलरवादी विचारकों, मानवाधिकार व वामपंथी संगठनों के अल्पसंख्यकों के अंध-समर्थन ने उनके समाज के लिए भावी खतरा पैदा किया है। वहीं हमारे देश में भी यह समझना आवश्यक हो गया है कि हमारे बुध्दिजीवी अल्पसंख्यकों में पहचान की राजनीति करते रहकर उन्हें अलगाव का अहसास कराने में ऐसी भूमिका अदा कर रहे हैं जो देश के लिए भावी चुनौती हो सकती हैं।

 

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों का विशेषज्ञ हैं।

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